जो आवाजें चार साल पहले तक मुक्त हुआ करती थीं, उन्हें बीते साल भर से प्रधानमंत्री के आगमन से पहले थाने से नोटिस थमा के चुप करा दिया जा रहा है.
कोई हफ्ते भर पहले स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जब बंगलुरु प्रवास पर थे, उनके पास बनारस से एक पत्रकार का फोन गया था. पत्रकार ने उनसे जानना चाहा था कि काशी विश्वनाथ कॉरिडोर प्रोजेक्ट में अब तक कुल कितने मंदिरों को तोड़ा गया है और कितनी मूर्तियों को विस्थापित किया गया है. स्वामीजी ने पलट कर पूछ दिया कि जब-जब कोई मंदिर तोड़ा गया तब-तब आपने अखबार में रिपोर्टिंग की ही होगी, तो आप ये बताइए कि कितने मंदिरों को तोड़े जाने को आपने कवर किया. पत्रकार का जवाब था कि हम लोग उसे कवर नहीं कर पाए. स्वामीजी ने कहा कि "जब मंदिर तोड़े जा रहे थे तब आपने कवर नहीं किया और अब हमसे पूछ रहे हैं! मने भिड़ाने के लिए हमारा उपयोग आप करेंगे और भिड़ा कर के मलाई काटने के लिए आप आगे आ जाएंगे?"
स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने हफ्ते भर पहले एक वीडियो जारी कर के बनारस में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के संदर्भ में अखबारों की भूमिका पर बड़ी खरी-खरी बात रखी है. आज पक्षकारिता में मैं भी वही कहने की कोशिश करूंगा जो उन्होंने कहा है. आज यह बात कही जानी तीन कारणों से अहम है. पहला कारण ये है कि जनवरी 2018 में जब काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के लिए बनारस के पक्कामहाल में अधिग्रहण के लिए जमीन की पैमाइश शुरू हुई थी, तब से ही मैं नियमित रूप से अलग-अलग मंचों पर वहां हो रहे विध्वंस को रिपोर्ट कर रहा था लेकिन तब मेरी कल्पना में भी नहीं था कि चार साल के भीतर बनारस का भूगोल ही नहीं, इतिहास भी बदल दिया जाएगा. चूंकि अखबारों में इतिहास के बदलने की यह प्रक्रिया संचित नहीं की गयी, तो जरूरी है कि यहां एक जगह पर कम से कम इस ऐतिहासिक विध्वंस का इतिहास एकमुश्त दर्ज हो जाए. बाकी तो सब जनता की स्मृतियों में है ही, उसे ''नव्य, भव्य और दिव्य'' की सरकारी चमक में विस्थापित नहीं किया जा सकता.
दूसरा कारण पहले का ही विस्तार है. 13 दिसंबर, 2021 को बनारस में जो कुछ भी घटा, उसके पीछे घटे बीते चार साल के सच पर अगले दिन किसी अखबार ने एक शब्द लिखना जरूरी नहीं समझा. बनारस या पूर्वांचल के अखबारों को तो छोड़ ही दें. हिंदी अखबारों के राष्ट्रीय संस्करणों ने भी इस जश्न में अपने पहले पन्ने के मास्टहेड तक को भगवा रंगने से नहीं बख्शा. तकरीबन सभी ने नरेंद्र मोदी के ''औरंगज़ेब-शिवाजी'' वाले बयान को शीर्षक बनाया. कई ने भक्तिमय संपादकीय भी लिखे. कुछ ने संपादकीय पन्ने पर अग्रलेख छापे. ज्यादातर को एक साथ समेटने की मैंने कोशिश की है. नीचे की तस्वीर देखिए- ऐसा लगता है कि 14 दिसंबर, 2021 को छपे नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, जनसत्ता, अमर उजाला, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, पायनियर, हरिभूमि, पंजाब केसरी और दैनिक जागरण का संपादक एक ही हो.
कॉरिडोर के उद्घाटन से एक दिन पहले हिंदी ही क्या, सभी प्रमुख अखबारों ने इस आयोजन का सरकारी विज्ञापन पहले पन्ने पर छापकर यह साबित कर दिया था कि बनारस का पक्कामहाल अब लिखित इतिहास के फुटनोट में भी याद नहीं रखा जाएगा. एक इतिहास वो था जब देवी अहिल्या ने मंदिर बनवाया था. आने वाले समय में दूसरा इतिहास यह होगा कि नरेंद्र मोदी ने बाबा विश्वनाथ को ''मुक्त'' करवाया (यह मैं नहीं कह रहा, खुद 9 मार्च 2019 को कॉरिडोर का उद्घाटन करते वक्त उन्होंने कहा था). नीचे दिया एक पन्ने का विज्ञापन इस बात का दस्तावेजी गवाह रहेगा कि आधुनिक काल में थोक भाव में काशी खंडोक्त देव-विग्रहों, पौराणिक काल के मंदिरों, घाटों, गलियों, ऐतिहासिक भवनों को तोड़े जाने में हमारे अखबार बराबर के भागीदार रहे. बनारस के पक्कामहाल के लोग- जिन्होंने सदियों से देव-विग्रहों और मंदिरों को अपने आंगन और आंचल में छुपाकर जीना सीख लिया था- उन्हें ''मंदिर चोर'' कहे जाने के अपराध में सत्ता के साथ ये अखबार भी बराबर के भागीदार हैं.
लिखने का तीसरा कारण ज्यादा अहम है. इस बार के भव्य आयोजन के बीच खुद बनारस से एक भी आवाज नहीं उठी जो स्मृतियों का आवाहन करती और बताती कि काशी विश्वनाथ धाम की चमक-दमक के पीछे कितने संघर्ष, दर्द और बलिदान छुपे हैं. स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सहित कुछ दूसरे प्रमुख लोग जिन्होंने जनवरी 2018 में धरोहर बचाओ आंदोलन की शुरुआत की थी, बोलते-बोलते थक गए लेकिन बनारस भांग खाकर सोया पड़ा रहा. इस बीच बीते दो साल में आंदोलन के अग्रणी बुजुर्गों केदारनाथ व्यासजी व मुन्ना मारवाड़ी और गीता जी का दुखद निधन हो गया. घाट पर रहने वाले लोगों को इस कदर विस्थापित किया गया है कि वे शहर की चौहद्दी पर पड़े-पड़े मौत का इंतजार कर रहे हैं. उनकी देह ही नहीं, आत्मा भी विस्थापित हो चुकी है. जो आवाजें चार साल पहले तक मुक्त हुआ करती थीं, उन्हें बीते साल भर से प्रधानमंत्री के आगमन से पहले थाने से नोटिस थमा के चुप करा दिया जा रहा है.
संघर्ष के दिन
बनारस के मशहूर खेल पत्रकार पद्मपति शर्मा ने जब 30 जनवरी, 2018 को फेसबुक पोस्ट लिख कर बताया था कि विश्वेश्वर पहाड़ी पर उनका पौने दो सौ साल पुराना मकान गिराया जाने वाला है और वे उसे रोकने के लिए अपने प्राण तक दे देंगे, तब पहली बार पक्कामहाल से बाहर यह खबर निकली थी कि वहां कुछ घट रहा है. इसके बाद चीजें इतनी तेजी से घटित हुईं कि लगा समय हाथ से फिसल रहा है. फरवरी का तीसरा हफ्ता आते-आते दुर्मुख विनायक का मंदिर तोड़ दिया गया. विश्वनाथ मंदिर के पास एक भवन गिरा दिया गया और एक गणेश मंदिर तोड़ा गया. वरिष्ठ पत्रकार सुरेश प्रताप सिंह ने लिखा था कि उस दिन मोहन भागवत शहर में ही थे. फिर भारत माता मंदिर तोड़ा गया. इसके बाद ही क्षेत्रिय लोगों ने धरोहर बचाओ संघर्ष समिति बनायी, जिसमें राजनाथ तिवारी और पद्मपति शर्मा की भूमिका अहम थी. गलियों की दीवारों पर पहली बार पोस्टर लगे, ''जान देंगे, घर नहीं''.
मैं फरवरी 2018 में पहली बार इस मसले पर रिपोर्ट करने बनारस गया था. सबसे पहली रिपोर्ट मैंने जब की, उस वक्त ये परचे दीवारों पर लगे हुए थे. आंदोलन का एक दफ्तर भी नीलकंठ गली में खुल चुका था. 25 फरवरी को समिति की पहली बैठक नीलकंठ परिसर में हुई. तब तक मंडन मिश्र का घर भी ध्वस्त कर दिया गया था- वही मंडन मिश्र जिनका शंकराचार्य के साथ शास्त्रार्थ काशी के इतिहास का एक सुनहरा पन्ना है. धरोहर बचाओ संघर्ष समिति और साझा संस्कृति मंच उस वक्त आंदोलन का झंडा उठा चुके थे. पहली बार 3 अप्रैल, 2018 को काशी की धरोहर बचाने के नारे के साथ गलियों में जुलूस निकला जिसकी अगुवाई स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने की.
स्वामी जुलाई के पहले हफ्ते में अनशन पर बैठ गए. अखबारों ने उन्हें तवज्जो नहीं दी. सितंबर में व्यासजी ने धरना देने का ऐलान किया. उनकी 87 साल की उम्र को देखते हुए शायद प्रशासन पसीज गया और आश्वासन देकर धरना स्थगित करवाया. इसके बाद नीलकंठ के रमेश कुमार ने मोदी और योगी के नाम अपने खून से एक पोस्टर लिखा और मंदिर न तोड़ने की दरख्वास्त की. रह-रह के ऐसी एकाध खबरें छप जाती थीं वरना मोटे तौर पर पक्कामहाल में हो रहे विध्वंस की खबरों से अखबार परहेज ही कर रहे थे. हां, अकेले सुरेश प्रताप सिंह लगातार लिख रहे थे. तब तक आंदोलन का एक नैतिक असर पक्कामहाल के उन व्यवसायियों व दुकानदारों तक पर दिख रहा था, जिन्हें इस ध्वंस में कोई नुकसान नहीं होना था बल्कि बाजारीकरण से फायदा ही होना था.
मेरी पहली मुलाकात कृष्ण कुमार शर्मा उर्फ मुन्ना मारवाड़ी से मार्च में हुई थी. उस दौरान आंदोलन से जुड़े ज्यादातर लोगों से मुलाकात हुई. तक तक किसी को अंदाजा नहीं था कि कितना बुरा घटने वाला है. इस स्थिति के राजनीति निहितार्थों से हालांकि आंख चुराना मुश्किल था. लोग बोल रहे थे और जम कर बोल रहे थे. नेशनल हेराल्ड में अपनी रिपोर्ट लिखते वक्त मैं खुद आश्वस्त था कि ये सारा मामला 2019 के लोकसभा चुनाव को केंद्र में रख कर है और जल्द ही प्रशासन हार जाएगा. फिर पता नहीं क्या हुआ कि अगले छह महीने में सारा आंदोलन ही बैठ गया.
ये सब देखते-देखते घटा. छह माह के भीतर तीन बार मैं बनारस गया और हर बार तस्वीर बदली हुई मिली- और भयावह, जिसका अंदाजा अखबारों से लगाना असंभव था क्योंकि अखबार अब धीरे-धीरे स्वर बदल रहे थे. जागरण की तो बात ही क्या, 'हिंदुस्तान' को भी मोतियाबिंद हो गया था. इस बारे में सुरेश प्रताप सिंह की यह पुरानी पोस्ट देखने लायक है:
नैरेटिव निर्माण और नियतिवाद
बनारस का विवेक एक विदेशी से ब्याह कर के दो साल पहले इटली के किसी गांव में चला गया था. वो वहीं एसी रिपेयरिंग का काम सीख रहा था. उसके भाई सब ललिता घाट और मणिकर्णिका पर छिटपुट काम किया करते थे. जलासेन घाट के पम्प के बगल मे गली के कोने पर मलिन बस्ती में विवेक का घर था. घर से जब फोन गया कि प्रशासन घर खाली करवाने का दबाव बना रहा है तो विवेक को वापस आना पड़ा. रोज कोई न कोई हथौड़ा छेनी ले के आ जा रहा था. एकाध बार पुलिसवाले भी आए थे. एक एसडीएम भी आया था घर खाली करवाने. मारपीट की थी. विवेक बहुत परेशान था. परिवार और मोहल्ले में सबसे बात हुई. कानूनी मदद पर भी विचार हुआ. यह बात दिसंबर 2018 की है.
जब तीन महीने बाद 9 मार्च 2019 को कॉरिडोर के उद्घाटन के दिन मैं जलासेन घाट पहुंचा तो मेरी आंखें फटी की फटी रह गयीं. पूरी की पूरी वाल्मीकि बस्ती उजाड़ दी गयी थी. विवेक का घर ऐसे गायब था, जैसे कभी रहा ही न हो. वो गली ही नहीं बची थी. बस एक कोना था जिससे गली का अहसास होता था. ऊपर जाने के लिए मलबा पार करना था. एकाध खच्चर टहलते दिखे. एक भी इंसान वहां नहीं था. ऊपर चढ़ते ही जो नजारा दिखा कि दिल धक से रह गया. मुन्ना मारवाड़ी की दुकान गायब थी. त्रिसंध्य विनायक मलबे में आधे दबे पड़े थे. जिधर देखो उधर खाई और मलबे का समुंदर.
कथित काशी विश्वनाथ धाम का उद्घाटन हुआ. मोदी जी बोले कि उन्होंने भगवान शिव को ''मुक्त'' कर दिया है. वापसी में विवेक के दोनों छोटे भाई भरी धूप में सिर पकड़े बैठे दिखे. बात की तो पता चला कि प्रशासन ने सभी स्थानीय लोगों को उद्घाटन होने तक उनके घरों में बंधक बना दिया था क्योंकि वे लोग अपने सांसद से मिलकर गुहार लगाना चाहते थे कि उनके घर न तोड़े जाएं. तब? आगे क्या? इस सवाल पर विवेक की अम्मा बोलीं, ''देखा, महादेव जहां ले जइहन चल जाइब.''
छह-छह लाख के मुआवजे का झुनझुना पकड़ा के इन 40 परिवारों को शहर की सीमा से बाहर वरुणापार कादीपुर भेज दिया गया. मुन्ना मारवाड़ी, जो आंदोलन के बिखर जाने तक डटे रहे, उन्हें भी जाना पड़ा. उद्घाटन के अगले दिन जब मैं मंड़ुवाडीह के पास उनके नये ठिकाने पर (जिसे मकान कहना मुश्किल था उस वक्त तक) मिलने गया, तो दो घंटे के दौरान पता ही नहीं चला कि वे कब बोलते-बोलते रो दे रहे थे और कब रोते-रोते कुछ बोल दे रहे थे. वे गहरे आघात और दुख में थे.
वो तारीख 9 मार्च 2019 कुछ ऐसी थी गोया पहली बार अहसास हुआ था कि एक सभ्यता की कब्र के ऊपर विकास की मीनार जबरन तानी जा रही है और यह मामला महज चुनावी नहीं है. सुरेश प्रताप जी लंबे समय से इसे काशी की पक्काप्पा संस्कृति का विध्वंस लिख रहे थे. वाकई, इसे सभ्यतागत त्रासदी से कुछ भी कम कहना मुनासिब नहीं होगा, यह अहसास उस दिन हुआ. ऐसा पहली बार लगा कि अब जो होगा, उसे रोका या पलटा नहीं जा सकेगा. दरअसल, सभ्यता के मलबे पर सजे मंच पर भाषण देकर मोदीजी ने उस दिन काशी की उलटी गिनती शुरू कर दी थी.
पद्मपति शर्मा के अमेरिका चले जाने और आंदोलन के कमजोर पड़ जाने के बाद एक तरफ अंतिम बचे लोगों ने विस्थापन और उजाड़ को अपनी नियति मान लिया था. दूसरी तरफ सत्ता और मीडिया साझा नैरेटिव गढ़ रहे थे. इस नैरेटिव का असल पता लगा लोकसभा चुनाव से ठीक पहले 25 अप्रैल 2019 को बनारस में हुए नरेंद्र मोदी के मेगा रोड शो में, जब दिल्ली से बाराती बन कर आए टीवी पत्रकारों को ''पहली बार'' पता लगा कि गंगा किनारे एक कॉरिडोर बन रहा है और लोगों के ''कब्जे'' से मंदिरों को छुड़ाया गया है. पूरे मीडिया ने मिलकर यह धारणा निर्मित करने की कोशिश की कि बनारस के लोग अपने घरों के भीतर मंदिरों को ''छुपा'' के रखे हुए थे और मोदीजी ने दरअसल भगवानों को मुक्त करवाया है. अंजना ओम कश्यप सरीखे पत्रकारों की चारणकारिता ने काशी की खंडोक्त परंपरा और ज्ञान का जो पलीता लगाया, कि भांग में डूबी जनता और मदमस्त हो गयी.
ऐसा नहीं है कि दिल्ली के मीडिया तक सही जानकारी पहुंचाने की कोशिश नहीं हुई. कुछ प्रिंट के पत्रकारों ने ध्वंस की सही रिपोर्ट की. कॉरिडोर उद्घाटन की शाम फोन पर रवीश कुमार से मेरी बात हो रही थी। मैंने उनसे कहा कि अभी भी वक्त है, आप खुद आकर तबाही को देखिए और दिखाइए, अच्छा होगा. उन्होंने इसे यह कहकर हलके में उड़ा दिया कि उन्हें लोग पहचानते हैं इसलिए वे हमारे जैसा खुले में नहीं घूम सकते. फिर मोदी के मेगा रोड शो से पांच दिन पहले मैंने खबर लिखी कि जिस महारानी अहिल्या बाई ने काशी विश्वनाथ मंदिर बनवाया, उन्हीं का घाट और महल बेचा जा रहा है. पूरा दम लगाकर भी यह स्टोरी हम दिल्ली के दिमाग में नहीं बैठा सके क्योंकि सत्ता अपना नैरेटिव पत्रकारों के दिमाग में बैठा चुकी थी. अब विध्वंस की त्रासदियों का कोई खरीदार नहीं बचा था. जो ऐसा करने में सक्षम थे, उन्हें अपने चेहरे के सामने आने का डर था.
लोकसभा चुनाव के बाद
मेरा खयाल है कि लोकसभा चुनाव के बाद बनारस में कॉरिडोर विरोध को लेकर हलचलें थम गयी थीं. जिस दिन लोकसभा चुनाव का नतीजा आया, उसके दो दिन बाद 25 मई 2019 को ऐतिहासिक कारमाइकल लाइब्रेरी के सिर पर हथौड़ा चला. नतीजे के तुरंत बाद इलाहाबाद हाइकोर्ट ने फैसला देकर वहां के स्थानीय लोगों की याचिका खारिज कर दी. मामला सुप्रीम कोर्ट में गया तो अदालत ने 16 लाख के मुआवजे का आदेश दिया और लाइब्रेरी के ध्वस्तीकरण पर रोक लगा दी. इसके बाद भी विध्वंस का सैलाब थमा नहीं. जुलाई में लाइब्रेरी गिरा दी गयी. फिर कपूर भवन ढहा. उसके बाद गोयनका छात्रावास की बारी आयी. वृद्धाश्रम, निर्मल मठ, अनंत भवन, पंडित कमलापति त्रिपाठी का पैतृक घर सहित 300 से अधिक भवन मिट्टी में मिला दिए गए. करीब 200 के आसपास विग्रहों को धूल चटा दी गयी. अखबार जश्न मनाते रहे.
धरोहर बचाओ आंदोलन में अंतिम सांस तक खड़ी रहने वाली जर्मनी की गीता जी की सबसे पहले मौत हुई. फिर केदारनाथ व्यास जी चले गए. बची-खुची आवाजें भी शांत हो गयीं. इसके बाद फरवरी 2020 में एक बार फिर राजा की सवारी निकली. इस बार थोड़ा और धूमधाम से. शहर को स्मार्ट सिटी घोषित कर दिया गया था. चौतरफा पहरा था. अबकी नरेंद्र मोदी बनारस को हजारों करोड़ की सौगात देने के नाम पर कर्नाटक के लिंगायतों को यहां के जंगमबाड़ी मठ से साधने बीएस येदियुरप्पा को लेकर आए थे. कहानी हालांकि इससे आगे की थी जिसे अखबारों ने फिर नहीं पकड़ा. 15 फरवरी की इस यात्रा से पहले उत्तर प्रदेश राज्य विधिक आयोग की ओर से राज्य के मंदिरों को एक प्रश्नावली भेजी गयी थी जिसमें उनसे बैंक खातों के बारे में जानकारी मांगते हुए पूछा गया था कि क्या जिला मजिस्ट्रेट को मंदिर का सीईओ तैनात कर दिया जाय?
काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के नाम पर जो दो सौ के आसपास मंदिर ढहाए गए थे, यह सरकारी विज्ञप्ति उसका विस्तार थी जिसकी जद में पांच हजार से ज्यादा मंदिर आने वाले थे. सरकार इन मंदिरों को ''अवैध'' मानती है. जाहिर है, जब काशी में मंदिरों को तोड़े जाने के खिलाफ खड़ा हुआ एक आंदोलन साल भर नहीं जी सका तो पूरे सूबे में ऐसा करने पर असहमति के किसी स्वर की कामना कैसे की जा सकती है. सो, हमेशा की तरह कहानी आयी और चली गयी. किसी अखबार ने ध्यान नहीं दिया. फिर कोरोना और उसके चलते लगाया गया लॉकडाउन प्रशासन के लिए सोने पर सुहागा साबित हुआ. मणिकर्णिका घाट को तोड़ दिया गया. अन्नपूर्णा माता का मंदिर चला गया. मार्च 2021 में सर्वप्राचीन अविमुक्तेश्वर महादेव का मंदिर तोड़ दिया गया. विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण में दक्षिणी दरवाजे पर जहां नंदी बैठे हैं, वहां अविमुक्तेश्वर महादेव हुआ करते थे. विकास उनको निगल गया. फिर शिवरात्रि के पर्व पर शिवलिंग के स्पर्श दर्शन पर रोक लगा दी गयी. तब भी अखबार चुप रहे.
देखी तुमरी कासी भैया
जिंदा लोगों को चुप होते सुना है. जब मुर्दे भी बोलना छोड़ देते हैं तब धरती उलटा घूमने लगती है. काशी में यही हुआ है. मंदिर आंदोलन की तीन शहादतों की बात तो अलग है, इस साल कोई 25000 लोग कोरोना से मरे हैं शहर में. इसी शहर में एक पिशाचमोचन है जहां पिशाचों को शांत कराने की परंपरा है. सारे पिशाच कुछ यूं शांत हो चुके हैं कि साल भर नहीं बीता और राजा की सवारी पर फूल बरस रहे हैं.
गंगा उस पार रेत की एक नहर बनायी गयी. बारिश आयी और रेत की नहर बह गयी. इस पार पानी पर हरी काई जम गयी और काशी की उत्तरवाहिनी गंगा आश्चर्यजनक रूप से दक्षिणवाहिनी हो गयी. तिस पर भी हिंदुस्तान अखबार थेथरई करता रहा कि गंगा में काई इलाहाबाद से आयी है. राजनीति और सामाजिकी तो दक्षिणवाहिनी थी ही पहले से, अब गंगा भी दक्खिन चल दी है. अब इस पर भी कोई आपत्ति न करे, तो बिना शिवरात्रि के शिव की नकली बारात मंत्री की अध्यक्षता में निकाली जाएगी और शिव दीपावली नाम की ऊटपटांग हरकत होगी. यही ''नव्य, भव्य और दिव्य'' है, जो असल में नकली है. इसके पीछे अखबारों को गुजराती शिवाजी का प्रताप दिख रहा है. जमीन पर काशी का विनाश हो गया, लेकिन अखबारों में शीर्षक लग रहा है ''काशी अविनाशी''. यह फेक न्यूज़ नहीं है, यह आंख पर परदा डालने की साजिश है.
काशी की मौलिकता इस बात में है कि यहां का भूगोल और इतिहास आपस में गुंथे हुए हैं (सिटी ऑफ लाइट्स, डायना एक्क). सभी प्राचीन नगरों में यह खासियत पायी जाती है. आप ऐसी जगहों का भूगोल बदलेंगे तो इतिहास भी बदल जाएगा. फिर जो लिखित वर्तमान होगा, वही आगे चलकर इतिहास माना जाएगा. इसलिए सत्ता की मंशा को समझिए- काशी के पक्कामहाल में 2018 से शुरू हुई ध्वंस और विस्थापन की कहानी मामूली नहीं है कि जमीन अधिग्रहित कर के मुआवजा देकर निपटा दी जाय. यह इतिहास का अधिग्रहण है, जिसकी कोई कीमत नहीं होती. इस अपराध में पूरा मीडिया बराबर शामिल है.
चार साल की यह संक्षिप्त कहानी मैंने सिर्फ इसलिए सुनायी है ताकि इतिहास बदलने वालों के अपराधों की फेहरिस्त सामने रहे तो स्मृतियों में स्थायी रूप से दर्ज हो जाय. स्मृतियों को मिटाने या बदलने वाली सत्ता अभी उतनी मूर्त नहीं हुई है. एक निजी स्वार्थ यह भी है कि बनारस में विध्वंस का पहला अध्याय समाप्त होने पर अपना भी कुछ रेचन हो जाय. वैसे, तबाही के एक-एक दिन का खाका आपको पढ़ना हो तो सुरेश प्रताप सिंह द्वारा लिखित ''उड़ता बनारस'' पढ़ लीजिए.
बनारस के अपराधी वे सभी हैं, जो बनारस को अपनी पहचान का एक अनिवार्य अंग मानते हैं और जिनके भीतर बनारस धड़कता है लेकिन जो चुप हैं. इस नगर को लूटा किसने है ये तो सामने दिख ही रहा है. मूल सवाल उन पहरेदारों से है जिन्हें 'जागते रहो' का हरकारा लगाना था. और ये सवाल उनसे खास है जिनके बारे में भारतेंदु डेढ़ सदी पहले लिख गए हैं:
लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे बे-बिसवासी।
महा आलसी झूठे शुहदे बे-फिकरे बदमासी।।
आप काम कुछ कभी करैं नहिं कोरे रहैं उपासी।
और करे तो हँसैं बनावैं उसको सत्यानासी।।
अमीर सब झूठे और निंदक करें घात विश्वासी।
सिपारसी डरपुकने सिट्टू बोलैं बात अकासी।।
देखी तुमरी कासी भैया देखी तुमरी कासी।।