अंजना ओम कश्यप ने बनारस से जो रिपोर्ट की वह कितनी तथ्यात्मक और कितनी कल्पना की उड़ान है?
अंजना ओम कश्यप आज तक समाचार चैनल पर समाचार पढ़ती हैं. अक्सर पढ़ते-पढ़ते मेहमानों से झगड़ भी जाती हैं. आप उन्हें एरोगेंट समझ सकते हैं, लेकिन इसके पीछे उनके ‘हज़ारों-हज़ार साल’ के अर्जित ज्ञान का दबाव है. अंजना बनारस से भाजपा प्रत्याशी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 25 अप्रैल को हुए रोडशो को कवर करने गयी थीं. उनके मुताबिक़ उन्हें वहां पहुंचकर काशी विश्वनाथ कॉरीडोर के बारे में ‘पता चला’.
यह ‘हज़ारों हज़ार साल’ के ज्ञान में एक विक्षेप था. तकरीबन नाटकीय समक्षता जैसा कुछ. पूरा मीडिया नहीं तो कम से कम अंग्रेज़ी मीडिया इस कॉरीडोर परियोजना के नाम पर बनारस की मूल संरचना से खिलवाड़ किये जाने, घरों और मंदिरों को तोड़े जाने पर दर्जनों रिपोर्ट कर चुका है लेकिन आज तक की स्टार ऐंकर को इसके बारे में 25 अप्रैल को ही ‘पता चला’. संभव है.
खैर, इस ‘पता चलने’ के बाद जो हुआ, वह झूठ, अज्ञान, अहंकार और नाटकीयता का एक ऐसा मिश्रित अध्याय है, जिस पर बीते हफ़्ते में न तो किसी ने ध्यान दिया, न ही कोई टिप्पणी की. फिलहाल यह ढाई मिनट का छोटा सा वीडियो देखें, फिर इसका तफ़सील से पंचनामा.
अंजना के मुताबिक यह कॉरीडोर ‘कोई ऐसा-वैसा नहीं है बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट है जो 600 करोड़ की लागत से बनाया जा रहा है.’ जाहिर है, प्रधानमंत्री का सपना है तो ऐसा-वैसा नहीं ही होगा. बड़ा होगा. इसीलिए वे वहां पहुंच कर ‘दंग’ रह गयीं. इस ‘दंग’ पर बलाघात् है. सुनने में ऐसा लगता है कि अगली पंक्ति में कोई त्रासद बात कही जाने वाली हो, लेकिन उसके बाद उनके मुंह से जैसे चमत्कार निकला:
‘एक तरफ काशी विश्वनाथ मंदिर, दूसरी तरफ गंगा’.
इस कथन की अंतर्वस्तु में पहली बार दिखी मौलिकता दरअसल बलाघात् का ही नतीज़ा थी, वरना वर्तमान काशी विश्वनाथ मंदिर जब रानी अहिल्याबाई ने बनवाया था, तब भी ‘एक तरफ काशी विश्वनाथ मंदिर’ था और ‘दूसरी तरफ गंगा’ थीं. हां, बीच में क्या गायब कर दिया गया है, किनके मकान तोड़े गये हैं, किनके मंदिर तोड़े गये हैं, उसका ज़िक्र करना उन्होंने ठीक नहीं समझा, वरना ‘दंग’ में प्रयुक्त बलाघात् वास्तव में अपनी पूरी प्रकृति के साथ चरितार्थ हो जाता. यह मोदीजी के सपने से मेल नहीं खाता, क्योंकि मोदीजी के सपने तो हमेशा खुशनुमा होते हैं. बस हक़ीक़त की ज़मीन पर उतरते ही बुलडोज़र बन जाते हैं.
अंजना इसके ठीक बाद अपनी परीकथा पर आती हैं, ‘हज़ारों हज़ार वर्ष पहले गंगा में स्नान करके लोग सिदा काशी विश्वनाथ मंदिर में जाकर भोलेनाथ के दर्शन करते थे.’
ये जो ‘सिदा’ है, उसे दरअसल ‘सीधा’ होना था. नाट्यशास्त्र में शब्दों पर बलाघात् से अर्थ बदल जाता है. सीधा को ‘सिदा’ कहने से जो ध्वनि उच्चरित होती है, उसका आशय यह निकलता है कि ‘हज़ारों हज़ार साल’ बाद लोग ‘सिदा’ स्नान कर के मंदिर नहीं आते हैं या आ पाते हैं. वे दरअसल यही कहना भी चाह रही थीं. बिलकुल सही सम्प्रेषित भी हुआ. ‘सिदा’ ने आगे कही जाने वाली बात के पीछे वाले कारण को पहले विश्वसनीय तरीके से स्थापित कर दिया, अब बस उस कार्य के विवरण की बारी थी जो की मोदीजी का सपना है.
लेकिन उससे पहले ‘हज़ारों हज़ार साल’ पर थोड़ा ठहरना होगा.
काशी विश्वनाथ का जो वर्तमान मंदिर है, उसे देवी अहिल्या ने 1780 में बनवाया था. आज जो मंदिर दिखायी देता है, वह इस लिहाज़ से 240 साल पुराना है. चलिये, कुछ दावे पुराने ढांचे के बारे में भी किये जाते हैं, उसे भी देख लें. लिखित इतिहास के अनुसार जिस मूल काशी विश्वनाथ मंदिर को कुतुबुद्दीन ऐबक ने पहली बार 1194 में तोड़ा था, उसका ज़िक्र सबसे पहले स्कंद पुराण के काशी खण्ड में आता है. स्कंद पुराण भले ही ईसा पूर्व चौथी-पांचवीं सदी या उसके आस-पास लिखा गया हो, जैसा कि हान्स टी. बेकर ने 2014 में मोतीलाल बनारसीदास से प्रकाशित अपनी संपादित पुस्तक ‘ओरिजिन एंड ग्रोथ ऑफ दि पुराणिक टेक्स्ट कॉर्पस’ में ज़िक्र किया है. लेकिन साथ ही यह भी सत्य है कि स्कंद पुराण का काशी खंड और इसके साथ ही कुछ और खंड काफी बाद में इसमें जोड़े गये हैं. उनके मुताबिक यह बारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध के आसपास की बात है. अभी तक यह पक्का नहीं है कि काशी खंड में वर्णित मंदिरों और मूल पाठ का कोई जिक्र स्कंद पुराण में पहले से था या नहीं. इसके अलावा स्कंद पुराण के नाम से कई ग्रंथ हैं लेकिन माना जाता है कि असली स्कंद पुराण ईसा पूर्व पहली सदी में लिखा गया था.
इन तथ्यों की रोशनी में अंजना को थोड़ा ढील भी दें, तो काशी विश्वनाथ मंदिर का सबसे प्राचीन ज़िक्र लगभग हजार साल भी नहीं हुआ है. वैसे भी कुल मिलाकर लिखित इतिहास ही मोटामोटी पांच हज़ार साल का माना जाता है. उसके पहले की स्थिति प्रागैतिहासिक है, जब इतिहास लेखन नाम की कोई चीज नहीं हुआ करती थी. ऐसे में अंजना ओम कश्यप के ‘हज़ारों हज़ार साल पहले’ को अधिकतम रियायत भी दी जाये, तो हज़ारों हज़ार का न्यूनतम मतलब निकलता है कुछ लाख साल पहले. मामला यहीं दिलचस्प बन पड़ता है.
आगे बढ़ते हैं. हज़ारों हज़ार साल से वे अचानक ‘अब’ पर आ जाती हैं और कथा बांचने की शैली ऐसी अपनाती हैं गोया मनुष्य का सारा विकासक्रम उनकी आंखों के समक्ष घट गया हो और प्रोफेसर मूनिस रज़ा का नृतत्वशास्त्र पानी भरने चला गया हो. देखिये:
‘अच्छा, अब परिस्थिति ऐसी हो गई कि धीरे-धीरे छोटे जो मंदिर बने हुए थे, आसपास में उन पर अवैध कब्ज़़ा शुरू हो गया. अवैध कब्ज़ा करते-करते घरों के अंदर उन मंदिरों को छिपा लिया गया था.’
ये धीरेधीरेवाद बहुत जोखिम भरा है. एक तो ‘हज़ारों हज़ार’ साल, उस पर से धीरे-धीरे. न कोई अवधि, न कोई कारण, न कोई स्रोत और न ही इतिहास. चलो मान लिया! कौन हज़ारों हज़ार में धीरे-धीरे अटके. लेकिन इस ‘अवैध कब्ज़े’ का क्या किया जाये? क्या मोदीजी ने अपने ड्रीम प्रोजेक्ट से मंदिरों पर ‘वैध कब्ज़ा’ कर लिया है? कहने का आशय तो यही जान पड़ता है कि मोदीजी का बनारस के मंदिरों पर किया गया ‘कब्ज़ा’ वैध है? वैसे, ये बात अंजना ओम को बतायी किसने? अगर उन्होंने पढ़ा होगा, जैसा कि पढ़ी-लिखी लगती भी हैं, तो ज़ाहिर है ‘हज़ारों हज़ार’ साल का ज्ञान घुट्टी बनाकर ही पिया होगा. इतनी मेहनत तो नहीं करनी थी. बस इतना जान लेना था कि मंदिरों को मंदिरतोड़कों से बचाने के लिए जनता ने एक समय में अपने भोले बाबा को अपने घर में छुपा लिया था. यह छुपाना दरअसल बचाना था. लोगों की आस्था का मामला था. और यह ज़्यादा पुरानी बात नहीं, महज चार सौ साल का मामला है. और इसका विश्वसनीय इतिहास मौजूद है. यहां ‘हज़ारों हज़ार साल’ जैसा सब कुछ हवा में नहीं है.
चूंकि अंजना ओम कश्यप ‘हज़ारों हज़ार’ साल की पढ़ाई पढ़ कर आयी थीं, तो आधुनिक दौर के कुछ पन्ने बेशक छूट गये होंगे, यह माना जा सकता है. इसीलिए उनकी अगली पंक्ति अपेक्षा के मुताबिक रही:
‘हम जब गये वहां पर… बीच-बीच में से मंदिर निकल रहे थे… और पुराण… मतलब प्राचीन काल के एकदम पौराणिक मंदिर… अब सरकार ने अवैध कब्ज़ा ढहाना शुरू कर दिया…’
बिना ‘एकदम’ लगाये मंदिरों को ‘पौराणिक’ साबित करना थोड़ा मुश्किल रहा होगा. इन मंदिरों की बेशक कार्बन डेटिंग कश्यप ने की होगी, तभी वैज्ञानिकों और पुरातत्वविदों के चार-पांच सौ साल की गणना से उलट पूरे दावे से इन मंदिरों को ‘पौराणिक’ ठहरा दिया. इसके बाद तो खैर सरकार ने ‘अवैध कब्ज़ा’ ढहाना शुरू कर ही दिया. फिर सबकुछ वैध हो गया.
आगे वे बताती हैं कि अब एक ‘चमकता हुआ’ कॉरीडोर बनाया जा रहा है. दबे हुए मलबे के ऊपर धूल-मिट्टी के मैदान को ‘चमकता’ हुआ कॉरीडोर कहते वक़्त शायद उन्हें अपने नोएडा स्थित अपने दफ़्तर का ख़याल रहा हो, जहां हर गलियारा आंखें चुंधियाने की हद तक चमकता रहता है. दरअसल, यह एक सभ्यता और संस्कृति की बरबादी को ‘कॉरीडोर’ कहे जाने की शाब्दिक चमक है. यह चमक दिमाग पर ‘सिदा’ असर करती है. ऐसा असर, कि दिल्ली का कोई पढ़ा-लिखा पत्रकार बौरा जाये और अंत में भावविभोर होकर फिर अपने पहले और सर्वथा मौलिक वाक्य पर आ जाये, ‘एक तरफ काशी विश्वनाथ मंदिर, दूसरी तरफ गंगा’.
बहरहाल, अब तक ‘हज़ारों हज़ार साल’ का ज्ञान देने के बाद उसे वैलिडेट करने की बारी थी. बनारस सनातन रूप से वैलिडेट करने का ही काम करता रहा है. बनारस कुछ भी वैलिडेट कर सकता है. अपने अस्तित्व और अपनी अस्तित्वहीनता को भी वैलिडेट कर सकता है. शिव और अशिव, घोर और अघोर, बनारस में सब वैध है. बनारसियों की जुबान को फेस वैल्यू पर इसीलिए नहीं लेना चाहिए. खासकर पंडों को, जिन्हें अपनी अंटी से बुनियादी सरोकार होता है, भक्त की भक्ति से नहीं. भक्त के ज्ञान से तो एकदम नहीं.
तो इस बात से अनभिज्ञ होते हुए सिर पर पल्लू डालकर अंजना भक्तिन बन गयीं. एक नौजवान से टीका लगवाया, जिसे उन्होंने ‘पंडितजी’ कह कर दर्शकों को मिलवाया. पंडितजी भाव पकड़ चुके थे. उनका पूरा जीवन अभी दुनियादारी के लिए बाक़ी पड़ा था. चमकदार क्लाइंट सामने खड़ा था. वे उसके विपरीत कैसे बोल देते. उन्होंने दोगुनी ऊर्जा से भरकर जो कुछ कहा उसे केवल दो शब्दों में बयां किया जा सकता है, बल्कि केवल एक शब्द की आवृत्ति में: ‘मोदी मोदी’.
पंडे ने वही कहा जो मोदी ने काशी विश्वनाथ कॉरीडोर का उद्घाटन करते वक़्त कहा था. अंजना के ‘पंडितजी’ ने कहा कि मोदीजी ने मेरी माताजी को मुक्त कर दिया है. मोदी भी यही बोल गये थे 9 मार्च को कि उन्होंने भगवान शिव को मुक्त कर दिया है. काशी सबको मुक्त करती है. मोदीजी काशी के पूज्य शिव को ही मुक्त कर दिये. पंडितजी इसी को दुहरा रहे हैं. मामला धंधे का है, समझिए. एक तीर से दो शिकार- पंडित से क्लाइंट खुश और क्लाइंट से मोदीजी. बचे महादेव, तो उनका क्या है. नीलकंठ हैं. सब पी जायेंगे. देख ही कौन रहा है. प़ड़े रहें हिमालय पर, वैसे भी बनारस में डबल गर्मी है- विकास की और चुनाव की.
अंतिम दृश्य बिलकुल अपेक्षित है. जिस बात को पंडितजी ने नारद भाव में अतिरिक्त अभिनय करते हुए आधे मिनट में कहा, उसे दो शब्दों में अंजनाजी ने समेट दिया. वही, जिसे वे अपने नाम के आगे कश्यप की जगह एक बार लगा चुकी हैं प्राइम टाइम में?
मोदी! और क्या!