रामनामी पत्रकारिता, कारसेवक पत्रकार और संविधान की मय्यत

दिन ब दिन की इंटरनेट बहसों और खबरिया चैनलों के रंगमंच पर संक्षिप्त टिप्पणी.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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इस हफ्ते एक अरसे बाद फिर से स्वर्ग में चाय की टपरी पर महफिल जमी. हिंदुस्तान में लगातार बदलते हालात के मद्देनज़र स्वर्ग में चाय की टपरी पर भी गतिविधियां तेज़ हो गई थीं. चाय की टपरी पर माहौल बहुत तनावपूर्ण था. एक ओर नेहरू, राजेंदर बाबू बैठे थे, दूसरी ओर अटल बिहारी वाजपेयी और सावरकर बैठे थे. हिंदुस्तान में घट रही घटनाओं को लेकर नेहरू, राजेंद्र बाबू और अटल बिहारी चिंतित थे. लेकिन सावरकर के चेहरे पर मंद मुस्कान बिखरी हुई थी. इन चारों के बीच में जो कुछ बतकही हुई उसमें गांधीजी का अंत में हस्तक्षेप बहुत महत्वपूर्ण था. अखबारों और खबरिया चैनलों की रामनामी पत्रकारिता पर विशेष रूप से चिंता जाहिर की गई. 

रामनामी पत्रकारिता के शोर में मीडिया का एक और दिवालियापन कांग्रेस पार्टी के उस फैसले के बाद दिखा जब काग्रेस के शीर्ष नेताओं सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे और अधीर रंजन चौधरी ने अयोध्या में प्रस्तावित प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया. इसके बाद तो कारसेवक पत्रकारों ने हमले का घोड़ा ही खोल दिया. 

कांग्रेस पार्टी के फैसले का नफा-नुकसान तो वही ठीक से समझ सकती है लेकिन अपनी सीमित राजनीतिक समझ के आधार पर मैं कहना चाहूंगा कि पूरे विपक्ष समेत काग्रेस का इस कार्यक्रम में न जाने का फैसला दूरगामी राजनीति के लिहाज से अच्छा है. कैसे अच्छा है, उसके लिए पूरी टिप्पणी देखिए.

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