प्रेस फ्रीडम डे: केंद्र की पत्रकारों के लिए एसओपी लाने की योजना के बीच 2 राज्यों के मौजूदा कानूनों पर एक नजर

देशभर में केवल महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कानून हैं, लेकिन वह बहुत अधिक प्रभावी नहीं हैं.

WrittenBy:तनिष्का सोढ़ी
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

अतीक अहमद की हत्या के बाद केंद्र सरकार पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) तैयार करने की योजना बना रही है. एक तरफ जहां इस कदम ने दर्शाया है कि केंद्र और कई राज्यों के स्तर पर इस तरह का कोई कानून नहीं था, वहीं जिन दो राज्यों में इस तरह के कानून हैं, उनमें भी कई समस्याएं हैं. 

महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ दो ऐसे राज्य हैं, जहां इस तरह के कानून हैं. न्यूज़लॉन्ड्री ने दोनों राज्यों के पत्रकारों से बात की और पूछा कि ये कानून जमीनी स्तर पर कैसे काम करते हैं या फिर काम करते भी हैं या नहीं. 

पत्रकारों ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि महाराष्ट्र में मुद्दा है कानून का ठीक से लागू न होना जबकि छत्तीसगढ़ का कानून 2020 में जारी मसौदे से बिल्कुल अलग है. 

महाराष्ट्र: पुलिस थानों को इसकी खबर तक नहीं है!

महाराष्ट्र पत्रकार और पत्रकारिता संस्थान (हिंसा और संपत्ति को नुकसान या क्षति की रोकथाम) अधिनियम, 2017 पारित करने में प्रदेश सरकार को वर्षों लग गए. यह कानून राज्य में पत्रकारों के खिलाफ हिंसा के मामलों को गैर-जमानती, संज्ञेय अपराध बनाता है. इस कानून को राष्ट्रपति की स्वीकृति 2019 में आकर मिली. 

लेकिन इस कानून को पारित करने के लिए दबाव डालने वाली संस्था, महाराष्ट्र पत्रकार हल्ला विरोधी कृति समिति के प्रमुख एसएम देशमुख ने कहा कि चार साल बाद भी पत्रकारों को इस कानून से कोई खास फायदा नहीं मिल रहा है.

देशमुख ने बताया कि इस अधिनियम के तहत अभी तक किसी को सजा नहीं हुई है और चार वर्षों में केवल 36 मामले दर्ज किए गए हैं. उन्होंने कहा, “कई थानों को तो इस कानून के बारे में पता ही नहीं है.”

देशमुख के संगठन ने “200 से अधिक पुलिस स्टेशनों के अधिकारियों” के साथ इस अधिनियम के राजपत्र और सरकारी रेसोल्यूशन को साझा किया है. उनका आरोप है कि राज्य सरकार ने जो किया वह पर्याप्त नहीं है.

उन्होंने कहा कि यह सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि हर पुलिस स्टेशन के पास जीआर और राजपत्र हो.  उन्होंने बताया कि तीन महीने पहले मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे से मुलाकात करके इस कानून के प्रभावी कार्यान्वयन का अनुरोध भी किया था. उन्होंने कहा कि इस कानून का प्रयोग कुछ ही मामलों में किया गया था. हालांकि, मुख्यमंत्री कार्यालय में प्रधान सचिव बृजेश सिंह ने कहा था कि कानून के कार्यान्वयन में कोई समस्या नहीं है. सिंह इससे पहले राज्य के सूचना और प्रचार विभाग के प्रमुख थे. उन्होंने कहा कि जब भी आवश्यकता होती है इस कानून का उपयोग किया जाता है.

पत्रकार और मीडिया विश्लेषक गीता सेशु ने कहा कि कानून के धरातल पर ज्यादा आगे नहीं बढ़ने का एक कारण यह है कि इसमें ऐसे प्रावधान हैं जो पहले से ही भारतीय दंड संहिता में मौजूद हैं. उन्होंने कहा, “कार्यान्वन के लिए एक मुकम्मल ढांचा होना चाहिए, जैसे पत्रकारों पर हमले होने की स्थिति में किन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को सतर्क करना होगा, अधिनियम को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए और मामलों को फास्ट-ट्रैक किया जाना चाहिए.” 

पत्रकार-एक्टिविस्ट जतिन देसाई ने भी देशमुख की बातों का समर्थन किया. 

उन्होंने कहा, “जमीन पर बहुत कुछ नहीं बदला है, खासकर आंतरिक क्षेत्रों में. यह कानून लोगों को पत्रकारों पर हमला करने से नहीं रोक पा रहा है. उदाहरण के लिए हाल ही में पत्रकार शशिकांत वारिशे की हत्या को ही ले लीजिए.”

गौरतलब है कि इस साल फरवरी में रत्नागिरी जिले के राजापुर में 48 वर्षीय वारिशे की कथित तौर पर दिनदहाड़े हत्या कर दी गई थी. मेट्रो और मेनस्ट्रीम मीडिया के ग्लैमर से दूर काम कर रहे कई पत्रकारों की यही कहानी है. 

छत्तीसगढ़ के कानून में खामियां

छत्तीसगढ़ सरकार ने हाल ही में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए एक कानून बनाया है.

राज्य में पत्रकार अक्सर दावा करते हैं कि आलोचनात्मक रिपोर्टिंग के लिए उन्हें उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है. पुलिस द्वारा ज्यादती के कथित मामलों पर पत्रकारों के व्यापक विरोध के बाद, 2018 के चुनावी घोषणापत्र में कांग्रेस ने पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए एक कानून बनाने का वादा किया था.

सत्ता में आने के कुछ समय बाद ही राज्य सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के रिटायर्ड जज जस्टिस आफताब आलम की अध्यक्षता में एक समिति बनाई. इस समिति ने एक साल तक जनसभाएं कीं और पत्रकारों और बुद्धिजीवियों से सुझाव लिए. इसने 2020 में 71 धाराओं के साथ कानून का मसौदा पेश किया. 

मसौदे को प्रगतिशील और पत्रकार समर्थक बताया गया लेकिन राज्य के पत्रकारों की मानें तो पिछले महीने पारित मीडियाकर्मी सुरक्षा विधेयक मसौदे से बिल्कुल अलग है और इससे मीडियाकर्मियों को खास फायदा नहीं होगा. 

उदाहरण के तौर पर ऐसे मामलों के प्रावधानों को लें जिनमें सरकारी अधिकारी अभियुक्त हैं. मसौदा विधेयक में कहा गया था कि किसी लोक सेवक द्वारा जानबूझकर कर्तव्य की उपेक्षा किए जाने पर उसे एक वर्ष तक के कारावास से दंडित किया जाएगा. हालांकि, पारित विधेयक में सिर्फ इतना कहा गया है कि लोक सेवक को “सुनवाई के उचित अवसर के बाद उक्त नियमों के तहत उपयुक्त दंड दिया जा सकता है.” बिल के अनुसार निजी व्यक्तियों को 25,000 रुपए तक के जुर्माने की सजा हो सकती है.

हालांकि बिल में एक बात अच्छी है, वो है 'मीडियाकर्मी' की विस्तारित परिभाषा. विधेयक में 'मीडियाकर्मी' का अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो कर्मचारी, स्वतंत्र संविदा अथवा प्रतिनिधि के तौर पर किसी मीडिया प्रतिष्ठान से जुड़ा हो. इसमें लेखक, समाचार संपादक, उप-संपादक, फीचर लेखक, कॉपी एडिटर, रिपोर्टर, संवाददाता, कार्टूनिस्ट, समाचार फोटोग्राफर, वीडियो पत्रकार, अनुवादक, इंटर्न, और समाचार संकलनकर्ता या स्वतंत्र पत्रकार जो एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में मान्यता प्राप्त होने के पात्र हैं आदि सब शामिल हैं. 

कानून में समाचार संकलनकर्ता की परिभाषा है-स्ट्रिंगर या एजेंट समेत हर वह व्यक्ति जो नियमित रूप से समाचार या सूचना एकत्र करता है या उसे मीडियाकर्मियों या मीडिया प्रतिष्ठानों को भेजता है. वहीं "मीडियाकर्मी जिसे सुरक्षा की आवश्यकता है" की परिभाषा केवल जोखिम या हिंसा का सामना कर रहे पंजीकृत मीडियाकर्मी तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें तकनीकी सहायक कर्मचारी, ड्राइवर, दुभाषिया और बाहरी वैन ऑपरेटर भी शामिल हैं. 

कानून के अनुसार सरकार के पास मीडियाकर्मियों का एक रजिस्टर होगा. इसमें आवश्यक पात्रता की सूची भी दी गई है - छह बाइलाइन, तीन पेमेंट आदि. पंजीकरण दो साल के लिए वैध होगा और इसका स्वत: नवीनीकरण नहीं होगा.  

हालांकि, पत्रकारों ने कहा कि इस कानून के तहत पत्रकार कौन है, यह तय करने का अधिकार राज्य के पास होगा. जबकि मसौदे में प्रस्तावित था कि हर जिले में एक मीडिया सुरक्षा इकाई का गठन होगा जिसके प्रतिनिधि स्थानीय पत्रकारों द्वारा चुने जाएंगे, अधिनियम में केवल एक राज्य-स्तरीय प्राधिकरण और एक समिति का प्रावधान है.

मीडियाकर्मियों ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि वे इस महीने के अंत में अधिकारियों से चर्चा करके बिल में संशोधन करने की अपील करेंगे.    

एक टेलीविजन पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, "आप कैसे और किस आधार पर तय करेंगे कि कौन पत्रकार है? छोटे जिलों में पत्रकारों को पैसे या कभी-कभी बाईलाइन भी नहीं मिलती है. लोगों का इस बिल पर उतना भरोसा नहीं है जितना कि ड्राफ्ट पर था. लेकिन कोई भी इस पर बहस नहीं कर रहा है क्योंकि मीडिया संस्थाएं इन बातों पर खुलकर चर्चा नहीं करती हैं.”

छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में राजस्थान पत्रिका  के रेजिडेंट एडिटर मनीष गुप्ता ने कहा, “कई लोग नए बिल को लेकर असहज हैं, हालांकि वे मसौदे से खुश थे.” 

इस कानून के लिए आंदोलन शुरू करने वाली संस्था पत्रकार संरक्षण कानून संयुक्त संघर्ष समिति के संयोजक कमल शुक्ला ने कहा, "बिल में मीडियाकर्मियों की सुरक्षा के बजाय उनके पंजीकरण पर अधिक ध्यान दिया गया है. यह कानून एक धोखा है, क्योंकि मसौदे के प्रावधानों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है." 

एक्सप्रेस मीडिया सर्विसेज में काम करने वाले पत्रकार श्याम कुमार ने कहा कि रायपुर प्रेस क्लब इस पर जल्द ही चर्चा करेगा कि बिल को कैसे लागू किया जाएगा. “हमें यह भी सोचना होगा कि राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में जाने वाले पत्रकारों की सुरक्षा कैसे की जाए. उनका समर्थन कैसे किया जा सकता है?” 

केंद्र की एसओपी योजना के लेकर चिंताएं

सेशु ने कहा कि वह केंद्र सरकार के पत्रकारों के लिए “एसओपी” के प्रस्ताव को लेकर चिंतित हैं.

“यह पत्रकारों के उत्पीड़न के मामलों को उजागर करने में कैसे मदद करेगा? इसके पीछे क्या तर्क है?” उन्होंने पूछा. “निश्चित रूप से सरकार इस तरह का सदमा और आतंक पैदा करती है जिससे स्थिति और बिगड़ जाती है. एसओपी पुलिस के लिए होना चाहिए, जब वह हिरासत में लिए गए लोगों को ले जा रही हो.”

अभी तक एसओपी की योजना अस्पष्ट है. मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो नियमों में उन घटनाओं के कवरेज को लेकर मानदंड होंगे जिनमें जोखिम अधिक होता है, जैसे किसी संदिग्ध का बहुत नजदीकी से पीछा न करें.

सेशु ने कहा कि एसओपी का इस्तेमाल पत्रकारों की पहुंच को प्रतिबंधित करने के लिए किया जा सकता है. “हर स्तर पर पत्रकार पहुंच के लिए संघर्ष कर रहे हैं, चाहे वह संसद की कार्यवाही को कवर करना हो या कोई विरोध-प्रदर्शन कवर करते समय पीटा जाना.” 

इस स्टोरी को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
Also see
article imageविश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस: मीडिया की आजादी आपके लिए क्यों मायने रखती है?
article imageसुभाष चंद्रा: ताश के पत्तों की तरह बिखरता मीडिया मुगल का साम्राज्य
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like