नेताजी: जिसका जलवा कायम था

अखिलेश के कंधों पर मुलायम सिंह और सपा की विरासत है. पिछड़ों की सियासत कमजोर पड़ चुकी है. मोदी के रूप में एक अलंघ्य चुनौती मौजूद है. मुलायम सिंह के बिना यह सब बहुत मुश्किल होने वाला है.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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साल 2012 में राष्ट्रपति पद का चुनाव होना था. यूपीए ने अभी अपने उम्मीदवार की घोषणा नहीं की थी. उससे पहले ही ममता बनर्जी के साथ मिलकर मुलायम सिंह यादव ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस दिल्ली में की. जून की चिलचिलाती गर्मी में दोनों नेताओं ने तीन नाम उछाल कर सुस्त पड़े राष्ट्रपति चुनावों में हलचल पैदा कर दी थी. इन नामों में पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी, पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के साथ तीसरा नाम मनमोहन सिंह का था जो कि उस वक्त प्रधानमंत्री थे. लेकिन असली झटका तब लगा जब मुलायम सिंह ने अगले दिन लखनऊ पहुंच कर अपना बयान बदल दिया. अब उन्होंने यूपीए के उम्मीदवार को समर्थन देने की घोषणा कर दी. पहले तो ममता बनर्जी की बहुत फजीहत हुई लेकिन बाद में प्रणब मुखर्जी का नाम घोषित होने के कारण उन्होंने भी बंगाली अस्मिता का साथ देते हुए अपनी फजीहत को थोड़ा कम कर लिया.

तब लखनऊ में एक सपा नेता ने कहा था, “साइकिल की खासियत है कि यह न्यूनतम समय और न्यूनतम स्थान में अधिकतम टर्न ले सकती है.” मुलायम सिंह यादव की राजनीति हमेशा उनके विपक्षियों के लिए पहेलीदार रही है. मुलायम सिंह यादव अपने दौर में उस कद के नेता थे जिसने भारत की राजनीति को दिशा दी, अपनी राजनीतिक दक्षता से पूरी राजनीतिक जमात को उलझाए रखा और एक वक्त ऐसा भी आया जब वो देश के प्रधानमंत्री पद तक लगभग पहुंच गए थे. यह 1996 की संयुक्त मोर्चा सरकार का दौर था. एक बार चूकने के बाद मुलायम सिंह सिर्फ कोशिश करते रहे, लेकिन कभी उस पद के आस-पास पहुंचते नहीं दिखे.

मुलायम सिंह यादव ने जिस दौर में राजनीति की शुरुआत की थी वह हर लिहाज से उनके खिलाफ था. जाति से पिछड़ा, बड़ी मुश्किल से हिंदी बोलने वाला, अंग्रेजी से बिदकने वाला, ट्रेनिंग से शिक्षक और पहलवान. कहने का अर्थ ये कि उस दौर की सियासत में सफल होने के तमाम मानकों पर मुलायम सिंह यादव असफल सिद्ध होते थे. चौड़ी छाती, उन्नत ललाट, भाषण कला में निपुण नेताओं की परिभाषा में औसत कद वाले मुलायम सिंह कहीं फिट नहीं होते थे. जब आप इस नजरिए से मुलायम सिंह के सियासी सफर को देखेंगे तब आप कहने को मजबूर हो जाएंगे कि उनकी राजनीतिक सफलता असाधारण थी. मुलायम सिंह के मार्गदर्शक रहे चौधरी चरण सिंह उन्हें छोटे कद का बड़ा नेता कहते थे.

बाद में ऐसा दौर भी आया जब मुलायम सिंह के बरक्स उन्हीं चौधरी चरण सिंह के बेटे चौधरी अजीत सिंह ताल ठोंकने लगे. बड़ी होशियारी से मुलायम सिंह ने इस संघर्ष में अजीत सिंह को पछाड़ा और चरण सिंह की राजनीतिक विरासत पर अपना पुख्ता दावा पेश किया. यह विरासत उत्तर प्रदेश में पिछड़ा राजनीति की सियासत थी. धीरे-धीरे अजित सिंह जाट बेल्ट के नेता के रूप में सिमटते गए और मुलायम सिंह ने अपना कद इतना बड़ा किया कि तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, दो बार उत्तर प्रदेश की विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और एक बार देश के रक्षामंत्री बने. आधी सदी से ज्यादा के इस सफर में लगभग पूरे समय वो विधानसभा और संसद में बने रहे.

सियासत में सफलता के लिए जरूरी चतुराई और अवसर को सूंघने की अकूत क्षमता मुलायम सिंह ने बार-बार दिखाई. परिस्थिति के मुताबिक अवसरवाद, अपने साथियों को कभी न भूलने का अद्भुत कौशल, परिवारवाद के चंगुल में रहे, लेकिन पार्टी और संगठन खड़ा करने की अद्भुत क्षमता दिखाई. और इन सबसे ऊपर राजनीति में सफल होने के लिए जरूरी मोटी चमड़ी का उनके पास पर्याप्त भंडार था. परिवारवाद और यादववाद के आरोपों के बीच यह बात कही जा सकती है कि मंडल पूर्व और पश्चात कि राजनीति में मुलायम सिंह ने पिछड़ों-अल्पसंख्यकों के सशक्तिकरण का सबसे महत्वपूर्ण काम किया.

मुलायम उन चुनिंदा नेताओं में थे जो अपने किसी भी चुनावी मंच पर खड़े होकर भीड़ में मौजूद 20-25 लोगों का नाम लेकर पहचान सकते थे. समाजवाद का यह भारतीय संस्करण उत्तर भारत की उस मिट्टी में पैदा हुआ था जहां अनगिनत कहानियां कोई सफलता की इबारत लिखने से पहले ही लुप्त हो जाने को अभिशप्त हैं. यहां अवसर नहीं थे, यहां संसाधन नहीं थे. ऐसे ही निपट गांव सैंफई के एक अखाड़े में तैयार हुए थे मुलायम सिंह यादव. वहीं उन्होंने पहलवानी के साथ राजनीति के पैंतरे सीखे.

सक्रिय राजनीति में मुलायम सिंह का सफर साल 1967 में शुरू हुआ. तब वो संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर उत्तर प्रदेश की विधानसभा में पहुंचे थे. वह कांग्रेस की निर्विरोध प्रभुता का दौर था. इसी दौर में उनकी मुलाकात छोटे लोहिया यानी जनेश्वर मिश्रा से हुई. 1977 में जनता पार्टी (सोशलिस्ट और जनसंघ) की सरकार में मुलायम सिंह पशुपालन और सहकारिता मंत्री रहे. लेकिन यह सरकार ज्यादा दिनों तक चली नहीं. राजनीतिक उठापटक का पहला नमूना बहुत शुरुआती दौर में ही देखने को मिल गया था, जब मुलायम सिंह यादव ने 1980 में उत्तर प्रदेश के बड़े समाजवादी नेता राजनारायण का साथ छोड़कर चौधरी चरण सिंह का साथ पकड़ लिया था. चरण सिंह का समाजवाद से कोई जुड़ाव नहीं था, ना ही पिछड़ों की सियासत में पूरी तरह फिट होते थे. वे मूलत: जमींदार थे. पर मुलायम सिंह ने जो कदम बढ़ाया वह आगे सही कदम साबित हुआ.

समाजवाद का झंडा वो जीवन भर पकड़े रहे लेकिन इसके विचारों को यदाकदा तोड़ते-मरोड़ते भी रहे. इन भटकावों को लेकर मुलायम सिंह यादव का तर्क था कि लोहिया के जाने के बाद समाजवादी समूहों के संगठन को बचाए रखने के लिए बहुत सारे संसाधनों और लोगों की जरूरत थी इसलिए उन्हें कुछ समझौते करने पड़े. सियासत की इस मजबूरी को समझा जा सकता है. हालांकि कुछ लोगों के गले से नेताजी का यह तर्क नहीं उतरता. उनके मुताबिक यह अवसरवाद था.

समाजवादी विचारों से भटकाव को लोग अनिल अंबानी और सहारा जैसे उद्योगपतियों के प्रेम में भी देख सकते हैं और अमिताभ बच्चन, जया बच्चन समेत तमाम फिल्मी सितारों के साथ समाजवादी पार्टी की नजदीकियों में भी देख सकते हैं. यह सबकुछ मुलायम सिंह के सत्ता में रहते हुए हुआ. उनके पुराने साथी रहे दिग्गज पिछड़ा नेता बेनी प्रसाद वर्मा हमेशा कहते रहे कि उन्होंने सपा इसीलिए छोड़ी क्योंकि मुलायम सिंह समाजवाद के रास्ते से भटक गए थे. नेताजी कुछ लोगों पर आंख बंद करके यकीन करते थे. वर्मा का इशारा अमर सिंह की ओर था. अमर सिंह मुलायम सिंह की जिंदगी में किसी तूफान की तरह शामिल हुए. उन्होंने समाजवादी पार्टी की राजनीतिक संस्कृति को जड़ से हिला दिया और फिर सियासत की अंधेरी गली में खो गए. समाजवादी पार्टी जैसे-तैसे इस झंझावात से बाहर निकली और खुद को प्रासंगिक बनाए रखने में सफल रही. खुद बेनी प्रसाद वर्मा भी बाद में कई घाट का पानी पीकर पुन: समाजवाद के घाट लगे.

अस्सी का दशक आते-आते मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक कद्दावर नेता के तौर पर स्थापित हो चुके थे. यह राजनीतिक सरगर्मियों का दौर था. बोफोर्स घोटाले को मुद्दा बनाकर वीपी सिंह पूरे देश में गैर कांग्रेसी हवा बनाने के लिए निकले हुए थे. इस दौर में बनी जनता दल का हाथ मुलायम सिंह ने भी पकड़ लिया. 1989 में केंद्र में वीपी सिंह की सरकार बनी और मुलायम सिंह पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. यह कांग्रेस के असंतुष्टों, समाजवादियों के अलावा वाम और दक्षिणपंथियों का बेमेल गठबंधन था.

इस दौर की दो घटनाओं ने मुलायम सिंह के राजनीतिक ‘कौशल’ को जमकर निखारा और उनके राजनीतिक कद को भी बढ़ाया. पहला मंडल आयोग की रपट का लागू होना और दूसरा राम मंदिर आंदोलन. 11 महीने बाद केंद्र की वीपी सिंह सरकार भाजपा के समर्थन वापसी के चलते गिर गई लेकिन मुलायम सिंह ने चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी और कांग्रेस के बाहरी समर्थन से उत्तर प्रदेश की सरकार बचा ली. इसी दौरान 1990 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी पहली रथयात्रा निकाली और अयोध्या में विवादित बाबरी मस्जिद-रामजन्मभूमि पर शिलान्यास की घोषणा की थी. बड़ी संख्या में कारसेवक अयोध्या पहुंच रहे थे. 2 नवंबर, 1990 को उग्र कारसेवकों पर पुलिस ने गोली चलाई जिसमें दर्जन भर लोग मारे गए. इस घटना ने मुलायम सिंह को तत्कालीन राजनीति का सबसे कद्दावर चेहरा बना दिया. उनका तर्क था कि संविधान की रक्षा उनके लिए सर्वोपरि थी. बदले में दक्षिणपंथी ब्रिगेड ने उन्हें मौलाना मुलायम की उपाधि दे दी. इस तरह मुलायम सिंह का 'एमवाइ' समीकरण तैयार हुआ जो अगले दो दशक तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में ताकतवर बना रहा.

मुलायम सिंह यादव खुद को लोहिया की विरासत का अगुवा मानते थे. लेकिन दोनों के व्यक्तित्व में कई विरोधाभास थे. लोहिया स्पष्टवादी थे, मुलायम सिंह अपनी बातों को हमेशा अस्पष्ट तरीके से कहते थे. धर्म निरपेक्षता का दामन उन्होंने ताउम्र पकड़े रखा, लेकिन उसके साथ जमकर प्रयोग भी किए. आगे ये बात स्पष्ट होगी. पिछड़ा राजनीति की लोहियावादी परिभाषा को समेटकर समाजवाद को जाति विशेष (यादव) तक सीमित करने का आरोप भी उनके ऊपर लगा.

लोहिया की विरासत और मंडल आंदोलन ने उन्हें पिछड़ों का नेता बनाया, बाबरी मस्जिद आंदोलन में उनके रुख ने उन्हें मुसलमानों का रहनुमा बनाया. इस तरह वो समकालीन उत्तर प्रदेश की राजनीति में सबसे बड़े कद के नेता बन गए. कांग्रेस ने उन्हें ज्यादा दिन समर्थन नहीं दिया. 1991 में केंद्र की चंद्रशेखर और उत्तर प्रदेश की मुलायम सरकार गिर गई. इसके बाद उन्होंने चंद्रशेखर से भी अपनी राहें अलग कर लीं. 1992 के अक्टूबर महीने में उन्होंने अपनी समाजवादी पार्टी का गठन किया.

यहां से मुलायम सिंह आत्मनिर्भर क्षत्रप बन गए. उनके पास अपनी पार्टी थी, अपना कैडर था, अपना वोटबैंक था. इस दौरान वो बसपा के सहयोग से एक बार फिर मुख्यमंत्री बने पर दोनों के रिश्ते उसी दौरान बहुत खराब हो गए.

1996 मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन का महत्वपूर्ण साल है. इस साल मुलायम सिंह प्रधानमंत्री पद की देहरी पर पहुंच कर फिसल गए. ज्यादातर सपाई उस वाकये को बेहद अफसोस के साथ याद करते हैं. वामपंथियों के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा की सरकार बनाने में मुलायम सिंह ने अहम भूमिका अदा की थी. बात जब प्रधानमंत्री पद की आई तो मुलायम सिंह भी रेस में थे. लेकिन गठबंधन के कुछ अन्य घटकों ने उनकी मंशा पर पानी फेर दिया. संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी तो पहले ज्योति बसु का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए आया. उन्हें उनकी ही पार्टी ने लंगड़ी मार दी, फिर मुलायम सिंह का नाम आगे आया तो उनके सजातियों ने उनका खेल खराब कर दिया. फिर एचडी देवेगौड़ा के नाम पर आम सहमति बनी.

मुलायम सिंह उस सरकार में रक्षा मंत्री रहे. 1999 का साल केंद्र की राजनीति में बेहद उठापटक का साल रहा. 13 महीने पुरानी अटल बिहारी वाजेपयी की केंद्र सरकार गिर गई. इसके बाद सोनिया गांधी तमाम विपक्षी दलों के समर्थन की चिट्ठी लेकर राष्ट्रपति भवन पहुंची. इसमें मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के समर्थन की चिट्ठी भी थी. तब मुलायम सिंह यादव ने जबरदस्त यू-टर्न लिया. सोनिया गांधी के हाथ में उनके समर्थन की चिट्ठी थी, और दूसरी तरफ उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके घोषणा कर दी कि वो कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन नहीं देंगे. भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस वाकये का जिक्र अपनी किताब ‘माइ कंट्री, माइ लाइफ’ में किया है. उन्होंने लिखा है कि दिल्ली के सुजान सिंह पार्क में 20 अप्रैल, 1999 को उनकी गुप्त मुलाकात मुलायम सिंह के साथ हुई थी.

वैचारिक विरोधाभास तमाम नेताओं की तरह ही मुलायम सिंह की सियासत में भी समय-समय पर दिखा. मसलन जिस लेफ्ट के साथ 1989 और 1996 में वो सरकार बना चुके थे, उसी को ठेंगा दिखाकर 2008 में उन्होंने परमाणु करार के मुद्दे पर कांग्रेसनीत यूपीए सरकार को बचाने का काम किया. इससे पहले वो परमाणु करार के कट्टर विरोधी थे.

मुलायम सिंह के सियासी कदम अमूमन सटीक ही पड़े, एक वक्त को छोड़कर. यह ऐसा समय था जब उनका यादव-मुसलिम समीकरण ध्वस्त होता दिखा. 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने भाजपा नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को सपा में शामिल कर लिया. कल्याण सिंह घूम-घूम कर खुद को बाबरी मस्जिद विध्वंस का नायक बताते फिरते थे. इसीलिए ऊपर मैंने कहा कि उन्होंने धर्म निरपेक्षता के साथ भी प्रयोग किए. इसका खमियाजा मुलायम सिंह को उठाना पड़ा. सपा लोकसभा में 39 से 22 सीटों पर आ गई और उनके सारे मुसलिम प्रत्याशी चुनाव हार गए.

हालांकि मुसलिम मानसिकता पर उनकी पकड़ चमत्कारिक थी. सिविल न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर लेफ्ट उन्हें यह कह कर कांग्रेस से दूर करने की कोशिश करता रहा कि मुसलमान अमेरिका विरोधी है, पर मुलायम सिंह का आकलन था कि मुसलमान अमेरिका से नहीं मोदी से चिढ़ता है. इस मामले में उन्होंने कल्याण सिंह के अलावा कभी कोई गलती नहीं की. ऊपरी तौर पर मीडिया को यह मौका उन्होंने कभी नहीं दिया कि उनके ऊपर भाजपा से सांठगांठ का ठप्पा लगे. जबकि राजनीतिक हलकों में यह बात मशहूर है कि 2003 में उन्होंने भाजपा के अप्रत्यक्ष सहयोग से ही उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई थी.

2012 मुलायम सिंह की सियासत का चमकता साल है. इसने मुलायम सिंह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को नया जीवन दिया. उनका बेटा उत्तर प्रदेश सरीखे विशाल राज्य का पहली बार पूर्ण बहुमत से मुख्यमंत्री बना. पूर्ण बहुमत का कारनामा खुद मुलायम सिंह कभी नहीं कर पाए थे. बहू, भाई, भतीजे, सब संसद में पहुंच गए. ऐसे में प्रधानमंत्री पद की आकांक्षा रखना कोई गलत बात नहीं थी.

मुलायम सिंह 2014 के लोकसभा चुनाव को अपने लिए आखिरी मौके के रूप में देख रहे थे. यह कइयों के लिए आखिरी मौका था मसलन भाजपा के दिग्गज नेता लाल कृष्ण आडवाणी के लिए भी यह अंतिम अवसर था. लेकिन यह मोदी की आंधी का साल था जिसमें तमाम नेताओ की आखिरी उम्मीद तिनके की तरह उड़ गई. 2014 में क्या हुआ सबने देखा. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी पांच लोकसभा सीटों पर सिमट गई. सारी सीटें परिवार के सदस्यों ने जीती.

इसी दौरान मुलायम सिंह का स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा था. 2012 के बाद सपा ने कोई भी चुनाव नहीं जीता है. अपने रहते ही मुलायम सिंह ने अपनी राजनीतिक विरासत बेटे अखिलेश यादव को सौंप दी. हालांकि इस दौरान अखिलेश की अपने चाचा शिवपाल यादव से काफी खींचतान भी चली. मुलायम सिंह दूर से यह सब देखते रहे. अंत तक किसी को नहीं पता चल सका कि अखिलेश और शिवपाल की खींचतान में मुलायम सिंह का क्या रुख था. उनकी हालत उस कृषकाय-असहाय बुजुर्ग की हो गई थी जिसके बच्चे उसके सामने ही लड़ते रहे और वो चाहकर भी कुछ नहीं कर सके. पर अंत में यह सब अखिलेश के पक्ष में गया. अब उन्हीं के कंधों पर मुलायम सिंह और सपा की विरासत है. वैचारिकता के मोर्चे पर गफलत की स्थिति दिखती है, पिछड़ों की सियासत बेहद कमजोर हो चुकी है. मोदी के रूप में एक अलंघ्य चुनौती मौजूद है. मुलायम सिंह के बिना यह सब बहुत मुश्किल होने वाला है. जिसका जलवा कायम था, वह मुलायम अब नहीं रहे.

(यह पूर्व में लिखे गए लेख का अद्यतन और संशोधित संस्करण है)

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