2019 से पहले अगर सामाजिक न्याय की ताकतें अपने समाजों के हाथ में सत्ता का भरोसा नहीं दे पातीं तो भाजपा का फर्जी भगवा समाजवाद इसे उड़ा ले जाएगा.
समाजवाद के गर्भ से निकला नेतृत्व जब जाति और प्रतिनिधित्व के सवाल को त्याग रहा था उसी वक़्त राजनीति के चाणक्य कहे जा रहे भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह भगवा समाजवाद का मॉडल पेश कर रहे थे. उत्तर प्रदेश व देश भर में उन्होंने प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी को पिछड़ा नेता के के तौर पर स्थापित किया. ग़ैर यादव, ग़ैर जाटव जातियों के बीच टकराव और भ्रम की स्थिति फैलाकर भाजपा ने संगठन, विधानसभा व लोकसभा, केंद्र और राज्यों में मंत्री तक ग़ैर यादव ग़ैर जाटव जातियों को नेता बनाया. जातिवाद की इसी शातिर बुनियाद पर गढ़ी गई है भगवा समाजवाद की परिकल्पना.
पिछड़ा वर्ग से संबंधित जातिया यूं तो मेहनतकश खेती-किसानी में लगी जातियां हैं. यह देश को बनाने वाला ऐसा अहम तबका रहा जो हजारों साल से बराबरी के मौके, ज़मीन के मालिकाना हक़ और अधिकार के मामले में हाशिये पर रहा है. आजादी के बाद इस बेजुबान वर्ग के बीच से ललई सिंह यादव, कर्पूरी ठाकुर, राम स्वरुप वर्मा, लोहिया से लेकर पेरियार, कांशीराम, अब्दुल जलील फरीदी जैसी आवाज़ें पैदा हुईं. उन्होंने इस मेहनतकश अवाम को उठाया, जगाया और बताया की इस धरती और आसमान के बीच जो कुछ है उस पर जितना संपन्न लोगों का हक़ है उतना ही उनका भी है.
इसके नतीजे में हमें 80-90 के दशक में इन्हीं समाजों के बीच से लालू प्रसाद यादव, जगदेव कुशवाहा, मुलायम सिंह यादव, मायावती, रामविलास पासवान, शरद यादव, मित्रसेन यादव जैसे सामाजिक न्याय के पुरोधाओं ने कड़ा संघर्ष कर उस पिछड़ा वर्ग के विवेक को जगाया जो सदियों से मनुवादियों की कावड़ उठाऊ ब्रिगेड बना हुआ था. इस हाशिये के समाज को पूर्व प्रधानमत्री वीपी सिंह द्वारा मंडल कमीशन लागू कर नौकरी और शिक्षा में 27% आरक्षण का प्रावधान किया इन समाजवादी पुरोधाओ के संघर्ष की वजह से पिछड़ा या बहुजन समाज चपरासी से कलेक्टर बना!
भगवा समाजवाद की परिकल्पना एक मनगढ़ंत अभियान का हिस्सा है. इसके जरिए आरएसएस ने बहुजन/सर्वहारा जातियों को बांट कर 2017 का विधानसभा जीतने की कोशिश की. चालाकी से उन्होंने ग़ैर यादव पिछड़ी जातियों में नफरत का माहौल यह कह कर बनाया कि सभी आर्थिक श्रोतों पर यादवों ने कब्ज़ा कर लिया है. उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग को यादव कमीशन कह नफ़रत का माहौल खड़ा किया गया जबकि 2017 के बाद पूरे देश की नौकरियों में, उत्तर प्रदेश की पोस्टिंग का ढंग देखें तो इसका चरित्र घोर सवर्णवादी दिखता है.
मंडल कमीशन के बाद उत्तर प्रदेश में राजनीतिक इतिहास गवाह है कि चाहे वो कांशीराम रहे हों या मुलायम सिंह यादव, सामाजिक न्याय के नेताओं ने पिछड़ी जातियों के बीच से ऐसे-ऐसे हाशिये के समाज से नेता, सांसद, विधायक बनाये जो मंडल कमीशन न होने की स्थिति में कही खड़ा नहीं हो सकता था.
दलित-पिछड़ों की हमायती बनने वाली केंद्र सरकार के क्रियाकलाप पर नज़र डाले तो पता चलता है की केंद्र की भाजपा सरकार आंबेडकर के नाम का प्रवचन तो करती दिखती है लेकिन समाज को पता है कि ग्रेड बी और सी की लाखों नौकरियां भाजपा सरकार ने होल्ड कर रखी हैं क्योंकि नौकरियां आई तो एक बड़ा हिस्सा इन्हीं जातियों को देना मजबूरी बन जाएगा. अमित शाह द्वारा भगवा समजावाद के प्रचार व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ओबीसी कह कर चुनाव जीतने का प्रयास तो सफल रहा लेकिन यह भी सत्य है कि दलित पिछड़ों की वो सभी जातियां नौकरियों के मामले में खाली हाथ आज कटोरा लिए खड़ी हैं. निजी सेक्टर में नौकरियों की एक सीमा है.
घात लगाकर आरक्षण ख़त्म करने का खेल
नवउदारवादी नीतियों को आगे बढ़ाने में नरेन्द्र मोदी सरकार ने नया कीर्तिमान स्थापित किया है. इस देश में बहुजन/सर्वहारा का वोट लिए बिना भाजपा की सरकार नहीं बन सकती थी इसलिए महात्मा फुले, आंबेडकर और लोहिया का नाम जपने के साथ देश की स्थापित राष्ट्रीय उद्योग या नवरत्न कंपनियों में लाखों नौकरियों को ख़त्म कर उसे निजी हाथों में बेचने की पूरी प्रक्रिया तय कर ली गयी.
हुकूमत में पॉलिसी बनाने में, देश को चलाने में, बुद्धिजीवी वर्ग का एक अहम रोल होता है. 2006 में तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह द्वारा शिक्षा में 27% आरक्षण लाया गया जिसका नतीजा हम देख सकते हैं, विश्वविद्यालयों में दलित-पिछड़ा प्रतिनिधित्व तेजी से बढ़ा. इस समाज के लोगों को शिक्षकों की नौकरियों में तो पहले से ही लटका कर रखा गया था, लेकिन देश के विश्वविद्यालयों में आरक्षण आने को आरक्षण विरोधी ताकतें पचा नहीं पायीं. नई नीति के तहत मानव संसाधन मंत्री प्राकश जावेडकर ने शैक्षिक नौकरियों में आरक्षण विश्विद्यालय स्तर पर ख़त्म कर विभाग के स्तर पर कर दिया.
सभी जानते है कि विभाग में पांच पद निकलने पर किसी दलित-पिछड़े को नौकरी नहीं मिलेगी? ताज्जुब कि ये सब करते हुए भी नरेन्द्र मोदी कहते है कि वो डॉ बीआर आम्बेडकर के शिष्य. संघ प्रमुख मोहन भागवत मेरठ में एक लाख दलितों को इकठ्ठा भी कर लेते है और उच्च शिक्षा में दलित-पिछड़ों को मिलने वाली फेलोशिप को भी उनकी समर्थक केंद्र सरकार लील जाती है.
भगवा समाजवाद के चैम्पियन कहलाने वाले योगी आदित्यनाथ और देश के प्रचारित तौर पर ओबीसी कहलाने वाले प्रधानमंत्री से पूछा जाना चाहिए कि कैसे अप्रैल 2018 में चार बड़े विश्विद्यालयों में निकली 215 विज्ञापित नौकरियों में दलित-पिछड़ों का प्रतिनिधित्व सिकुड़ कर 3 की संख्या पर रहा, जबकि इसकी आबादी देश में 70% है. क्या यह आरक्षण को लीलने का मोदी सरकार का खेल नहीं है?
इसी तरह तमिलनाडु केन्द्रीय विश्वविद्यालय में निकले 65 पदों में दलितों-पिछड़ों का प्रतिनिधित्व 3 रहा. इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय केन्द्रीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक में निकले 52 पदों में इनका प्रतिनिधित्व सिर्फ एक था. अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय में भोपाल में विज्ञापित पदों से दलितों-पिछड़ों को लातमार कर शून्य पर पहुंचा दिया गया. हरियाणा केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने इसी दौरान 80 रिक्तियों का विज्ञापन निकाला जिसमें दलितों-पिछड़ों की सहभागिता शून्य रही.
यह सब उसी सरकार के कार्यकाल में हो रहा है जो बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर का नाम सबसे ज्यादा बेच रही है. बहुजनों को झांसा देकर वोट लेते हुए भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बाबा साहेब के शिष्य बने रहेंगे. अगर दलितों-पिछड़ों का वोट लेकर जीतने वाले सांसद अपने समाज के लिए बने “आल दलित एमपीज़ फोरम” चाहती तो बहुजनों को दिए गए इस धोखे को रोका जा सकता था, लेकिन हुआ इसका उल्टा.
नरेंद मोदी सरकार में मंडल कमीशन से निकले नेता रामविलास पासवान उल्टे सवर्णों के लिए आरक्षण की वकालत करते नज़र आये और उनके सुपुत्र चिराग पासवान का मानना है कि दलितों के लिए रिज़र्व सीटें ख़त्म कर देना चाहिए. यह तब है जब वे खुद एक अरक्षित सीट से चुनाव जीत कर आते है. अब दलित-पिछड़ा-अल्पसंख्यक सामाजिक न्याय की पक्षधर युवा ताकतों को इस हारती लड़ाई को अपने हाथ लेकर आगे आना होगा.
सामाजिक न्याय बनाम आरएसएस की पिच
संघ के बारे में कह सकता हूं कि 2014 से उसने देश में अपनी एक रेखा खींची है, और विपक्ष उसकी बिछाई बिसात पर मोहरा बबना हुआ है. उसकी कोशिश राजनीतिक लाइन को कुछ तय खांचों में सीमित करने की है जिसे किसी के लिए भी तोड़ना मुश्किल हो मसलन मुसलमान आतंकवादी है. कांग्रेस मुसलमानों-मुल्लों की पार्टी है. समाजवादी सरकार मुस्लिम-आतंकवादियों का साथ देती है. यादव जाति ने अन्य ओबीसी जातीयों का हक मार लिया वगैरह वगैरह.
इनके झूठ और अफवाह का तंत्र इतना तेज़ होता है कि जब संघ के कार्यकर्ता सुबह-सुबह पार्क में गरीब कमज़ोर वर्गों को भड़काने के लिए शाखाएं लगाते हैं तब तक बाकी समाज सो रहा होता है. यह एक ऐसी पिच है जो विकास, फ्लाईओवर, एक्सप्रेसवे की ईमानदार कोशिशों को हवा में उड़ा देती है. तब आप आरएसएस की पिच कर खेलना शुरू करते है. इस पिच में आपको खौफ लगता है कि आपने आरक्षण समर्थन में बात की या मुसलमानों पर हो रहे ज्यादतियों पर बात की तो वोटों का ध्रुवीकरण होगा और आप सर्व समाज के चक्कर में बहुजन/सर्वहारा समाज को भी खो देते है. जब तक आरएसएस द्वारा यह पिच धराशाई नहीं होती साम्प्रदायिकता का नाच कर रही शक्तियों का कुछ नहीं बिगाड़ा जा सकता.
आज की समाजवादी पार्टियों ने अगर संख्या के अधार पर पार्टी संगठन में, देश के आर्थिक श्रोतों पर अगर इन तबकों को हिस्सा दिया तो आरएसएस की इस पिच को धराशाई किया जा सकता है. ऐसा नहीं हुआ तो इस समाजवादी देश के सपने को बिखेरने में आरएसएस सफल हो जाएगी. 2019 के बाद अगर भाजपा सत्ता में फिर से वापस आई तो बहुत संभव है कि संविधान पर भी हाथ साफ करे. और इसके लिए काफी हद तक ज़िम्मेदार होंगी सामाजिक न्याय की ताक़तें.