'पक्ष'कारिता: हिंदी के बुलडोजर प्रेमी संपादकों का 'कांग्रेसमुक्‍त' तीर्थ

पांच राज्‍यों के विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद हिंदी के अखबार जैसी खबरों को तरजीह दे रहे हैं, वह एक एजेंडे का हिस्‍सा है.

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राजनीतिक बाइनरी या नूराकुश्‍ती?

ये जो अचानक बंगाल से लेकर गुजरात वाया हिमाचल 'आप' को भाजपा के बरअक्‍स खड़ा कर के एक नई राजनीतिक बाइनरी बनाने की कोशिश की जा रही है, इसे लेकर सार्वजनिक चर्चा कम ही हुई है. परंपरागत राजनीतिक दलों से परेशान हो चुके मतदाता आम तौर से 'आप' को एक वैकल्पिक ताकत मान बैठते हैं. पंजाब में भी लोगों ने 'आप' को विकल्‍प मानकर ही चुना है. दिल्‍ली इस विकल्‍प का तिहराव कर चुकी है. यह विकल्‍प वास्‍तव में कितना सच्‍चा है और कितना गढ़ा हुआ, इसे समझने के लिए यह देखना जरूरी है कि आखिर किन जगहों पर 10 साल पुरानी हो चुकी इस पार्टी को विकल्‍प बताया जा रहा है. ये सभी वही राज्‍य हैं जहां कांग्रेस अब भी ठीकठाक बच रही है या सत्‍ता में है. जाहिर है, 'आप' को कांग्रेस का विकल्‍प बताना और किसी को नहीं, भाजपा को लाभ देता है. यह कोई संयोग नहीं, एक सुनियोजित पटकथा है.

हिंदुस्‍तान के पूर्व पत्रकार हरजिंदर ने बहुत खुलकर तो नहीं, लेकिन चलाचली के लहजे में इस बात को एक लेख में समझाने की कोशिश की है. हिंदुस्‍तान में 14 मार्च को छपे इस लेख का शीर्षक है 'भाजपा के ही नक्‍शेकदम पर आप'. इसे पढ़ा जाना चाहिए.

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इस लेख के अंत में हरजिंदर लिखते हैं, ''जब आप का जन्‍म हुआ तकरीबन तभी नरेंद्र मोदी के नेतृत्‍व में नई भाजपा का पुनर्जन्‍म हुआ... दोनों ने कांग्रेस के कमजोर होते आधार से खाली हुई जमीन पर पूरी आक्रामकता से अपने पैर पसारे हैं... भाजपा जिस तरह की राजनीति कर रही है वहां उसी तरह की दूसरी स्‍पर्धी आम आदमी पार्टी ही है.''

आखिरी वाक्‍य में 'स्‍पर्धी' की अपनी-अपनी व्‍याख्‍याएं हो सकती हैं, लेकिन 'आप' को तब तक स्‍पर्धी नहीं माना जाना चाहिए जब तक वह किसी राज्‍य में भाजपा को सीधी टक्‍कर देकर रिप्‍लेस न कर ले. फिलहाल यह सूरत कहीं नहीं दिखती. यह 'स्‍पर्धा' नूराकुश्‍ती ही जान पड़ती है. शशि शेखर सीधे-सीधे पूछते हैं, ''क्‍या अगले पांच साल में हम नरेंद्र मोदी बनाम अरविंद केजरीवाल की लड़ाई देखने जा रहे हैं?" यहां भी 'लड़ाई' के असल मायने हमें समझने होंगे.

विधानसभा चुनावों के दौरान हिंदी में अनुज्ञा बुक्‍स से प्रकाशित इस लेखक की पुस्‍तक 'आम आदमी के नाम पर' में इन सवालों के जवाब बहुत तफ़सील से दिए जा चुके हैं. शशि शेखर का सवाल सही है, लेकिन उसका परिप्रेक्ष्‍य गड़बड़ है क्‍योंकि उसमें एक एजेंडा और सदिच्‍छा शामिल है कि ऐसा ही हो. हरजिंदर उस परिप्रेक्ष्‍य को पीछे अन्‍ना आंदोलन तक जाकर थोड़ा स्‍पष्‍ट करते हैं. नरेंद्र मोदी की भाजपा और केजरीवाल दोनों एक ही परिघटना की पैदाइश हैं- दोनों एक ही सिक्‍के के दो पहलू हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं- बात को यहां से शुरू करेंगे तब जाकर अखबारों की मौजूदा कारस्‍तानी आपको समझ में आएगी. किताब न भी प़ढ़ें तो आने वाले नौ महीने में पंजाब और गुजरात-हिमाचल के चुनाव बहुत कुछ स्‍पष्‍ट कर देंगे कि भगवा बरसने पर 'आप' की बल्‍ले-बल्‍ले क्‍यों होती है.

फिलहाल तो यूपी में योगी की जीत पर सारे अखबार ऐसे लहालोट हैं कि लोकतंत्र और संविधान को कुचलने के प्रतीक बुलडोजर को दिल से लगा बैठे हैं. नीचे दी हुई दैनिक जागरण में छपी खबर से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हिंदी अखबारों को 'कुचलने' वाली सत्‍ता कितनी पसंद है. यह संयोग नहीं है कि शशि शेखर अपने अग्रलेख में (13 मार्च, हिंदुस्‍तान) लिखते हैं, ''इन चुनावों का संदेश स्‍पष्‍ट है कि मोदी और योगी ने जातियों के मायाजाल को 'बुल्‍डोज' कर दिया है.''

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आज 2022 में हिंदी के एक संपादक के लिए जाति 'मायाजाल' है और 'बुलडोजर' माया को तोड़ने वाला यथार्थ. ऐसे संपादक इस देश की आने वाली पीढि़यों को संविधान-विरोधी बनाने के लिए हमेशा याद रखे जाएंगे, जो अपने हाथ पर अब प्रेमिका का नाम या भगवान की तस्‍वीर नहीं, 'बुलडोजर बाबा' गोदवाती है.

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यह तस्‍वीर अमर उजाला में छपी है, बनारस से है. यह तस्‍वीर हमारे वक्‍त में लोकतंत्र और संविधान पर एक गंभीर टिप्‍पणी है, बशर्ते इसे हास्‍य में न लिया जाय.

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