आने वाले दिनों में रूस-यूक्रेन का संकट बढ़े या घटे, हिंदी के पाठकों को बहुत सावधानीपूर्वक अपने लिए अखबार और अखबारों के लेख चुनने होंगे.
रूस-यूक्रेन की आड़ में चमकते हथियार
दैनिक जागरण युद्ध में भी खुराफात से नहीं मानता. एक तो वहां जाने कौन सी संपादकीय नीति है कि वे जरूरी मसलों पर अंग्रेजी के लेखकों को अनुवाद कर के नहीं छापते, भले अपने मालिक को छापना पड़ जाए. दूसरे, युद्ध जैसे संवेदनशील मामले के बहाने अपने हथियार तेज करने की उनकी दबी-छुपी ख्वाहिश सामने आ जाती है.
अव्वल तो इस अखबार के मालिक संजय गुप्ता ने संपादकीय पेज पर अग्रलेख में (27 फरवरी को) वही सब लिखा जो पिछले चार दिन से उनके यहां छप रहा था. दूसरे, उन्होंने यह लिखकर थोड़ा ज्यादा ही छूट ले ली कि ''दोनों महाशक्तियां भारत को अपने पक्ष में करना चाह रही हैं''. सन 1966 से लेकर आज तक भारत की कूटनीति रूस और अमेरिका के संदर्भ में परस्पर संतुलन की ही रही है. जिस दौर में भारत रूस से हथियार खरीद रहा था उस दौर में अमेरिका से ऑटोमोबाइल भी खरीद रहा था. राजनय में 'हेजिंग' नाम की एक चीज़ होती है, जिससे संजय गुप्ता पूरी तरह गाफिल हैं.
बहरहाल, रूस-उक्रेन संकट के बहाने एक और राग जो जमकर जागरण सहित दूसरे अखबारों में चला है वह 'आत्मनिर्भरता' का है. परमाणु निषेध वाले घिसे-पिटे सिद्धांत के सहारे अब उक्रेन को उलाहना दी जा रही है कि उसने क्यों अपने परमाणु हथियार संधि के हवाले कर दिए. शेखर गुप्ता बाकायदे इस बात की खुशी जाहिर कर रहे हैं कि अच्छा हुआ भारत ने ऐसा नहीं किया. ऊपर से दिखने वाला युद्ध-विरोधी कैसे अपने भीतर युद्ध की संभावनाओं को पुष्ट करता है, उसका बेहतरीन उदाहरण शेखर गुप्ता का यह लेख है (बिज़नेस स्टैंडर्ड, 28 फरवरी). यही लेख दैनिक भास्कर ने 1 मार्च को छापा है (मुस्कराने वाले बुद्ध यूक्रेन पर क्या करते?).
यूक्रेन में फंसे भारतीय छात्रों के बहाने जागरण के संपादक राजीव सचान ने 2 मार्च के अपने लेख में राहुल गांधी को बेजा घसीट लिया है. लगता है सचान कायदे से अपनी बात नहीं रख पाए थे इसलिए ठीक अगले ही दिन प्रदीप सिंह का एक लेख जागरण ने छापा जिसमें उन लोगों को गरियाया गया है जो यूक्रेन से सहानुभूति रखते हैं.
प्रदीप सिंह पुराने पत्रकार हैं लेकिन पिछले कुछ साल से निरंतर दक्षिणावर्त हैं. बड़े दिलचस्प तरीके से उन्होंने अपने लेख में लिखा है कि ''यूक्रेन संकट के बीच देश में एक संवैधानिक संकट खड़ा करने का भी अभियान चल रहा है''. इस ''संवैधानिक संकट'' के वाहकों में वे ममता बनर्जी, एमके स्टालिन, उद्धव ठाकरे, चंद्रशेखर राव को गिनवा रहे हैं जो उनके मुताबिक ''मोदी के 'कोऑपरेटिव फेडरलिज्म' को चुनौती दे रहे हैं''. प्रदीप सिंह के लेख की आखिरी पंक्ति पढ़कर दुनिया सिर के बल खड़ी नज़र आती है:
''ये मुख्यमंत्री यह समझने को तैयार नहीं हैं कि वे मोदी को कमज़ोर करने की कोशिश में संविधान और देश को कमजोर कर रहे हैं.''
प्रदीप सिंह का यह नायाब लेख सिर्फ इसलिए पढ़ा जाना चाहिए ताकि जाना जा सके कि यूक्रेन और रूस जैसी दूर की कौड़ी में भी अपने नेता की भक्ति की गुंजाइश कैसे निकाली जा सकती है और उसके लिए विरोधियों की किस हास्यास्पद तरीके से निशानदेही की जा सकती है. खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए एक समय के अच्छे पत्रकार और संपादक आज कैसे-कैसे द्रविड़ प्राणायाम कर रहे हैं, यह लेख उसका अभूतपूर्व उदाहरण है. काश! इन्हें एक व्यक्ति को संविधान और देश का पर्याय बताते हुए छटांक भर भी शर्म आती!
जागरण को हालांकि ये सब करने में शर्म नहीं आती. इसीलिए यह अखबार शांति का विकल्प परमाणु हथियार को भी बता सकता है. 3 मार्च को अगले ही पन्ने पर संजय वर्मा का लेख पढ़ें. अब सोचें, कि शांति का विकल्प हथियार कैसे हो सकता है? लिखने वाले ने तो लिख दिया, लेख छप भी गया. बात इतनी ही होती तो ठीक था लेकिन रूस-यूक्रेन के बहाने जागरण का एजेंडा कहीं ज्यादा संगीन है. 25 फरवरी को संपादकीय पन्ने पर एक लेख छपा है (डॉ. अजय खमरिया) जिसमें कहा गया है कि रक्षा मंत्रालय के अधीन सैनिक स्कूल खोले जाने चाहिए और बच्चों को देशभक्ति से सराबोर शिक्षा दी जानी चाहिए. इसमें एक जिला पर एक सैनिक स्कूल की सिफारिश की गई है जिसे निजी-सार्वजनिक भागीदारी मॉडल पर चलाया जाए.
विवेक के दो-चार स्वर
जिस वक्त युद्ध के बहाने तमाम किस्म के खतरनाक एजेंडे अखबारों में चलाए जा रहे हों, कुछेक स्वर ऐसे भी हैं जो वास्तव में युद्ध-विरोध के आदर्श के साथ लिख रहे हैं और व्यावहारिकता की जमीन पर विश्लेषण कर रहे हैं. इनके लिए कभी-कभार छोटे अखबारों को भी पढ़ लेना चाहिए. वहां अच्छे लेख छपते हैं.
स्वतंत्र वार्ता ने 28 फरवरी को समाजवादी नेता रघु ठाकुर और भास्कर के पूर्व समूह संपादक श्रवण गर्ग के लेख छापे हैं. अत्यंत संतुलित और स्वस्थ लेख हैं दोनों. इसके अलावा हिंदुस्तान में एकाध मौकों पर पूर्व विदेश सचिव शशांक के लेख संपादकीय पन्ने पर छपे हैं जो रूस-यूक्रेन संकट पर सही समझ विकसित करने में मदद करते हैं. डॉ. वैदिक को विदेश मामलों पर पढ़ना हमेशा ही जानकारी को बढ़ाता है. हमने देखा है कि पिछले साल अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े के दौरान हिंदी अखबारों में छपे डॉ. वैदिक के विश्लेषण तमाम अंग्रेजी लेखकों के मुकाबले ज्यादा वास्तविक और प्रामाणिक थे.
आने वाले दिनों में रूस-यूक्रेन का संकट बढ़े या घटे, हिंदी के पाठकों को बहुत सावधानीपूर्वक अपने लिए अखबार और अखबारों के लेख चुनने होंगे. आखिरकार यह समझना जरूरी है कि हथियार की तरह अखबार भी एक ऐसा धंधा है जो जंग की सूरत में चोखा हो जाता है. इसलिए जंग के दौर में सही अखबारों का और सही लेखकों का चयन करें. इस बात को समझें कि युद्ध-विरोध की बात करने वाले अखबार दरअसल राष्ट्रवाद की मजबूरी से ग्रस्त हैं. शांति के पीछे की उनकी भावना कतई वैचारिक और पवित्र नहीं है.