देशवासियों के ऊपर जबरन थोपी गई आधार परियोजना

एक ऐसे भरोसेमंद विपक्ष की जरूरत है जो यह लिखित वादा करे कि सत्ता में आने पर ब्रिटेन, अमेरिका, चीन, रूस और अन्य देशों कि तरह भारत भी अपने वर्तमान और भविष्य के देशवासियों को बायोमेट्रिक आधार आधारित देशी व विदेशी खुफिया निगरानी से आजाद करेगी.

WrittenBy:डॉ. गोपाल कृष्ण
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धन की परिभाषा में देश के आंकड़े, निजी संवेदनशील सूचना और डिजिटल सूचना शामिल है. भारत सरकार की बायोमेट्रिक्स समिति की रिपोर्ट बायोमेट्रिक्स डिजाइन स्टैंडर्ड फॉर यूआईडी एप्लिकेशंस की अनुशंसा में कहा है कि बायोमेट्रिक्स आंकड़े राष्ट्रीय संपत्ति हैं और उन्हें अपने मूल विशिष्ट लक्षण में संरक्षित रखना चाहिए. इलेक्ट्रॉनिक आंकड़े भी राष्ट्रीय संपत्ति हैं अन्यथा अमेरिका और उसके सहयोगी देश अंतरराष्ट्रीय व्यापार संगठन की वार्ता में मुफ्त में ऐसी सूचना पर अधिकार क्यों मांगते? कोई राष्ट्र या कंपनी या इन दोनों का कोई समूह अपनी राजनीतिक शक्ति का विस्तार आंकड़े को अपने वश में करके अन्य राष्ट्रों पर नियंत्रण कर सकता है. एक देश या एक कंपनी किसी अन्य देश के संसाधनों को अपने हित में शोषण कर सकता है. आंकड़ों के गणितीय मॉडल और डिजिटल तकनीक के गठजोड़ से गैरबराबरी और गरीबी बढ़ सकती है और लोकतंत्र खतरे में पड़ सकता है.

संवेदनशील सूचना के साइबर बादल (कंप्यूटिंग क्लाउड) क्षेत्र में उपलब्ध होने से देशवासियों, देश की संप्रभुता व सुरक्षा पर खतरा बढ़ गया है. किसी भी डिजिटल पहल के द्वारा अपने भौगोलिक क्षेत्र के लोगों के ऊपर किसी दूसरे भौगोलिक क्षेत्र के तत्वों के द्वारा उपनिवेश स्थापित करने देना और यह कहना कि यह अच्छा काम है, देश हित में नहीं हो सकता है. उपनिवेशवाद के प्रवर्तकों की तरह ही साइबरवाद व डिजिटल इंडिया के पैरोकार खुद को मसीहा के तौर पर पेश कर रहे हैं और बराबरी, लोकतंत्र एवं मूलभूत अधिकार के जुमलों का मंत्रोचारण कर रहे हैं. ऐसा कर वे अपने मुनाफे के मूल मकसद को छुपा रहे हैं.

दूसरे कई देशों ने आधार जैसी परियोजनाओं पर जो कदम उठाए उनके अनुभवों को दरकिनार करके आधार पर चार जजों का अधूरा फैसला प्रतीत होता है. इसने आकड़ों के राष्ट्रवाद की विचारधारा को नकार दिया है. इस विचारधारा के तहत यूरोप में जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन के अलावा अमेरिका, चीन, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में इस तरह की परियोजनाओं को रोक दिया गया है. अब तो यह स्पष्ट है कि आधार परियोजना और आधार कानून राष्ट्रवाद का लिटमस टेस्ट बन गया है.

सुप्रीम कोर्ट ने अभी यह तय नहीं किया है कि यदि आधार परियोजना और विदेशी कंपनियों के ठेका और संविधान में द्वंद्व हो तो संविधान प्रभावी होगा या ठेका. न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने अपने फैसले स्पष्ट किया है कि संविधान प्रभावी होगा. बाकी के चार जजों ने इस मामले में चुप्पी साध ली है. उनकी खामोशी चीख रही है और उनको कठघरे में खड़ा कर रही है.

ठेका-राज से निजात पाने के लिए विशिष्ट पहचान/आधार संख्या जैसे उपकरणों द्वारा नागरिकों पर सतत नजर रखने और उनके जैवमापक रिकार्ड तैयार करने पर आधारित तकनीकी शासन की पुरजोर मुखालफत करने वाले व्यक्तियों, जनसंगठनों, जन आंदोलनों, संस्थाओं के अभियान का समर्थन करना एक तार्किक मजबूरी है. फिलहाल देशवासियों के पास अपनी संप्रभुता को बचाने के लिए आधार परियोजना का बहिष्कार ही एक मात्र रास्ता है. आधार परियोजना और विदेशी कंपनियों के ठेके का एक मामला दिल्ली हाई कोर्ट में लंबित है. सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की पीठ को अभी तय करना है कि आधार कानून संविधान सम्मत है या नहीं.

अगले चुनाव से पहले एक ऐसे भरोसेमंद विपक्ष की जरूरत है जो यह लिखित वादा करे कि सत्ता में आने पर ब्रिटेन, अमेरिका, चीन, रूस और अन्य देशों कि तरह भारत भी अपने वर्तमान और भविष्य के देशवासियों को बायोमेट्रिक आधार आधारित देशी व विदेशी खुफिया निगरानी से आजाद करेगी.

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लेखक 2010 से आधार संख्या-NPR-वोटर आईडी परियोजना व गुमनाम चंदा विषय पर शोध कर रहे हैं. इस संबंध में संसदीय समिति के समक्ष भी पेश हुए.

(साभार- जनपथ)

तीन हिस्सों की सीरीज का यह तीसरा पार्ट है. पहला पार्ट और दूसरा पार्ट यहां पढ़ें.

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