भारत में एक अजीब रिवाज चल पड़ा है. वह यह कि दुनिया के विकसित देश जिस योजना और तकनीकी को खारिज कर देते हैं, हम लोगों के अदालत सहित सभी सरकारी संस्थान उसे सफलता की कुंजी समझ बैठते हैं.
गौरतलब है कि वर्तमान सरकार ने डॉ. मनमोहन सिंह के दामाद इंटेलिजेंस ब्यूरो में कार्यरत अशोक पटनायक को 13 जुलाई 2016 को नैटग्रिड का प्रमुख बना दिया. यह पद अप्रैल 2014 से खाली था क्योंकि कैप्टन रघु रमन के खिलाफ खुफिया रिपोर्ट के कारण उन्हे नया कांट्रैक्ट नहीं दिया गया था. मार्च 2017 में गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट से यह बात सामने आई कि नैटग्रिड में सूचना प्रौद्योगिकी के सक्षम उम्मीदवारों की कमी के कारण 35 पद खाली हैं.
यह मामला लोक सभा में भी उठा था. देशी तकनीकी और देशी सूचना और बायोमेट्रिक प्रोद्योगिकी में सक्षम लोगों को दरकिनार कर विदेशी तत्त्वों को ऐसे संवेदनशील मामलों में शामिल करना भी देशवासियों और देश की सुरक्षा को खतरे में डालता प्रतीत होता है. सुप्रीम कोर्ट के आधार और नैटग्रिड के रिश्तों को अभी तक नहीं रखा गया है. लोक सभा में इस संबंध में सवाल उठाया गया है.
वैसे तो अमेरिका में आधार जैसी बायोमेट्रिक यूआईडी के क्रियान्वयन की चर्चा 1995 में ही हो चुकी थी मगर हाल के समय में धरातल पर इसे अमेरिकी रक्षा विभाग में यूआईडी और रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन (आरएफआईडी) की प्रक्रिया माइकल वीन के रहते उतारा गया. वीन 2003 से 2005 के बीच एक्विजिशन, टेक्नोलॉजी एंड लॉजिस्टिक्स (एटी ऐंड एल) में अंडर सेक्रेटरी डिफेंस हुआ करते थे. एटी ऐंड एल ने ही यूआईडी और आरएफआईडी कारोबार को जन्म दिया. अंतरराष्ट्रीय फौजी गठबंधन "नाटो" के भीतर दो ऐसे दस्तावेज हैं जो चीजों की पहचान से जुड़े हैं. पहला मानकीकरण संधि है जिसे 2010 में स्वीकार किया गया था.
दूसरा एक दिशा निर्देशिका है जो नाटो के सदस्यों के लिए है जो यूआईडी (आधार इसका ब्रांड नाम है) के कारोबार में प्रवेश करना चाहते हैं. ऐसा लगता है कि भारत का नाटो से कोई रिश्ता बन गया है. यहां हो रही घटनाएं इसी बात का आभास दे रही हैं. इसी के आलोक में देखें तो चुनाव आयोग और यूआईडीएआई द्वारा गृह मंत्रलय को भेजी गयी सिफारिश को मतदाता पहचान पत्र को यूआइडी के साथ मिला दिया जाय, चुनावी पर्यावरण को बदलने की एक कवायद है जो एक बार फिर इस बात को रेखांकित करती है कि बायोमेट्रिक प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का इस्तेमाल उतना निर्दोष और राजनीतिक रूप से तटस्थ चीज नहीं जैसा कि हमें दिखाया जाता है.
ध्यान देने वाली बात ये है कि चुनाव आयोग की वेबसाइट के मुताबिक हर ईवीएम में यूआईडी होता है. विपक्षी सियासी दलों ने ईवीएम के विरोध में तो देरी कर ही दी अब वे बायोमेट्रिक यूआईडी/आधार के विरोध में भी देरी कर रहे है. यही नहीं, राज्यों में जहां इन विरोधी दलों कि सरकार है वह वे अनूठा पहचान यूआईडी/आधार परियोजना का बड़ी तत्परता से लागू भी कर रहे हैं. वे इसके दूरगामी परिणाम से अनभिज्ञ हैं.
यह ऐसा ही है जैसे अमेरिकी डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति जब पहली बार शपथ ले रहे थे तो उन्हें यह पता ही नहीं चला कि जिस कालीन पर खड़े थे वह उनके परम विरोधी पूंजीपति डेविड कोच की कम्पनी इन्विस्ता द्वारा बनायी गई थी. डेविड कोच ने ही अपने संगठनों के जरिये पहले उन्हें उनके कार्यकाल के दौरान गैर चुनावी शिकस्त दी और फिर बाद में चुनावी शिकस्त भी दी. भारत में भी विरोधी दल जिस बायोमेट्रिक यूआईडी/आधार और यूआइडी युक्त ईवीएम की कालीन पर खड़े हैं वह कभी भी उनके पैरों के नीचे से खींची जा सकती है. लोकतंत्र में विरोधी दल को अगर आधारहीन कर दिया जाता है तो इसका दुष्परिणाम जनता को भोगना पड़ता है क्योंकि ऐसी स्थिति में उनके लोकतान्त्रिक अधिकार छिन जाते हैं.
ईवीएम के अलावा जमीन के पट्टे संबंधी विधेयक में जमीन के पट्टों को अनूठा यूआइडी/आधार से जोड़ने की बात शामिल है. यह सब हमारे संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण होगा और प्रौद्योगिकी आधारित सत्ता प्रणाली की छाया लोकतंत्र के मायने ही बदल रहा है जहां प्रौद्योगिकी और प्रौद्योगिकी कंपनियां नियामक नियंत्रण से बाहर है क्योंकि वे सरकारों, विधायिकाओं और विरोधी दलों से हर मायने में कहीं ज्यादा विशाल और विराट हैं.
यूआइडी/आधार और नैटग्रिड एक ही सिक्के के अलग-अलग पहलू हैं. एक ही रस्सी के दो सिरे हैं. विशिष्ट पहचान/आधार संख्या सम्मिलित रूप से राजसत्ता और कंपनिया विभिन्न कारणों से नागरिकों पर नजर रखने का उपकरण है. यह परियोजना न तो अपनी संरचना में और न ही अमल में निर्दोष हैं. हैरत कि बात यह भी है कि एक तरफ गांधी जी के चंपारण सत्याग्रह के 100 साल होने पर सरकारी कार्यक्रम हो रहे हैं वही वे गांधी जी के द्वारा एशिया के लोगो का बायोमेट्रिक निशानदेही आधारित पंजीकरण के खिलाफ उनके पहले सत्याग्रह और आजादी के आन्दोलन के सबक को भूल गए.
उन्होंने उंगलियों के निशानदेही द्वारा पंजीकरण कानून को कला कानून कहा था और सबंधित दस्तावेज को सार्वजनिक तौर पर जला दिया था. चीनी निवासी भी उस विरोध में शामिल थे. ऐसा लगता है जैसे चीन को यह सियासी सबक याद रहा मगर भारत भूल गया. चीन ने बायोमेट्रिक निशानदेही आधारित पहचान अनूठा परियोजना को रद्द कर दिया है.
गौरतलब है कि कैदी पहचान कानून, 1920 के तहत किसी भी कैदी के उंगलियों के निशान को सिर्फ मजिस्ट्रेट की अनुमति से लिया जाता है और उनकी रिहाई पर उंगलियों के निशान के रिकॉर्ड को नष्ट करना होता है. कैदियों के ऊपर होने वाले जुल्म की अनदेखी की यह सजा की अब हर देशवासी को उंगलियों के निशान देने होंगे और कैदियों के मामले में तो उनके रिहाई के वक्त नष्ट करने का प्रावधान रहा है, देशवासियों के पूरे शारीरिक हस्ताक्षर को रिकॉर्ड में रखा जा रहा है. बावजूद इसके जानकारी के अभाव में देशवासियों की सरकार के प्रति आस्था धार्मिक आस्था से भी ज्यादा गहरी प्रतीत होती है. सरकार जो कि जनता की नौकर है अपारदर्शी और जनता को अपारदर्शी बना रही है.
(लेखक 2010 से आधार संख्या-NPR-वोटर ID परियोजना व गुमनाम चंदा विषय पर शोध कर रहे हैं. इस संबंध में संसदीय समिति के समक्ष भी पेश हुए.)
(साभार- जनपथ)
यह तीन हिस्सों की सीरीज का पहला पार्ट है.