पूरे देश को गुमराह कर लोगों को आधार कार्ड बनवाने और उसे फोन से जोड़ने के लिए बाध्य कर दिया गया.
भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण ने एक जैवमापन मानक समिति (बायोमेट्रिक्स स्टैंडर्डस कमिटि) का गठन किया. समिति खुलासा करती है कि जैवमापन सेवाओं के निष्पादन के समय सरकारी विभागों और वाणिज्यिक संस्थाओं द्वारा प्रामाणिकता स्थापित करने के लिए किया जाएगा. यहां वाणिज्यिक संस्थाओं को परिभाषित नहीं किया गया है. जैवमापन मानक समिति ने यह संस्तुति की है कि जैवमापक आंकड़े राष्ट्रीय निधि हैं और उन्हें उनके मौलिक रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए. समिति नागरिकों के आंकड़ाकोष को राष्ट्रीय निधि अर्थात 'धन' बताती है.
यह निधि कब कंपनियों की निधि बन जाएगी कहा नहीं जा सकता. ऐसे समय में जब बायोमेट्रिक आधार और कंपनी कानून मामले में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच खिचड़ी पकती सी दिख रही है, आधार आधारित केंद्रीकृत ऑनलाइन डेटाबेस से देश के संघीय ढांचे को खतरा पैदा हो गया है. आधार आधारित व्यवस्था के दुरुपयोग की जबरदस्त संभावनाएं हैं और यह आपातकालीन स्थिति तक पैदा कर सकने में सक्षम है. ये देश के संघीय ढांचे का अतिक्रमण करती हैं और राज्यों के अधिकारों को और मौलिक व लोकतान्त्रिक अधिकारों को कम करती हैं.
देश के 28 राज्यों एवं 7 केंद्र शासित प्रदेशों में से अधिकतर ने यूआईडीएआई के साथ समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए हैं. राज्यों में वामपंथी पार्टियों की सरकारों ने इस मामले में दोमुहा रवैया अख्तियार कर लिया है. अपने राज्य में वे इसे लागू कर रहे हैं मगर केंद्र में आधार परियोजना में अमेरिकी खुफिया विभाग की संलिप्तता के कारण विरोध कर रहे हैं. क्या उनके हाथ भी ठेके के बंटवारे के कारण बांध गए हैं? कानून के जानकार बताते हैं कि इस समझौते को नहीं मानने से भी राज्य सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि कोई कानूनी बाध्यता नहीं है.
पूर्व न्यायाधीश, कानूनविद और शिक्षाविद यह सलाह दे रहे हैं कि यूआईडी योजना से देश के संघीय ढांचे को एवं संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है. राज्य सरकारों, केंद्र के कई विभागों और अन्य संस्थाओं को चाहिए कि यूआईडीएआई के साथ हुए एमओयू की समग्रता में समीक्षा करे और अनजाने में अधिनायकवाद की स्थिति का समर्थन करने से बचें. एक ओर जहां राज्य और उनके नागरिक अपने अधिकारों को लेकर चिंतित हैं और केंद्रीकृत ताकत का विरोध करने में लगे हैं, वहीं दूसरी ओर प्रतिगामी कनवर्जेंस इकनॉमी पर आधारित डेटाबेस और अनियमित सर्वेलेंस, बायोमेट्रिक व चुनावी तकनीकों पर मोटे तौर पर किसी की नजर नहीं जा रही और उनके खिलाफ आवाज अभी-अभी उठना शुरू हुआ है.
आधार कानून 2016 की धारा 57 कहती है:
“Act not to prevent use of Aadhaar number for other purposes under law”.
इस धारा के प्रावधान में लिखा है कि:
Nothing contained in this Act shall prevent the use of Aadhaar number for establishing the identity of an individual for any purpose, whether by the State or any body corporate or person, pursuant to any law, for the time being in force, or any contract to this effect.
(धारा 57 कहती है कि ‘राज्य या कोई निगम या व्यक्ति’ आधार संख्या का इस्तेमाल ‘किसी भी उद्देश्य के लिये किसी व्यक्ति की पहचान स्थापित करने में कर सकता है.)’
लोक सभा की अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इस प्रावधान सहित 59 धाराओं वाले आधार कानून को धन विधेयक के रूप में मुहर लगाई थी. सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली संविधान पीठ ने दो फैसले दिए हैं. दोनों फैसलों में आधार कानून पर सवाल उठाया गया है. चार जजों ने आधार के बहुत सारे प्रावधानों पर सवाल उठाया है. एक जज ने पूरे आधार कानून को असंवैधानिक बताया है. कोर्ट ने आधार कानून की धारा 57 को खत्म कर दिया है. आधार एक्ट के तहत प्राइवेट कंपनियां 2010 से ही आधार की मांग कर रही थी.
धारा 57 के अनुसार सिर्फ राज्य ही नहीं बल्कि बॉडी कॉरपोरेट या फिर किसी व्यक्ति को चिन्हित करने के लिए आधार संख्या मांगने का अधिकार अब नहीं है. इस प्रावधान के तहत मोबाइल कंपनी, प्राइवेट सर्विस प्रोवाइडर्स के पास वैधानिक सपोर्ट था जिससे वो पहचान के लिए आपका आधार संख्या मांगते थे. ऐसे नाजायज प्रावधान को धन विधेयक का हिस्सा बनाया गया था जिसे लोक सभा और लोक सभा की अध्यक्ष ने कानून बना दिया था.
26 सितंबर, 2018 तक इस प्रावधान के तहत देशवासियों के साथ कानून के नाम पर घोर अन्याय किया गया. इस अन्याय के लिए लोक सभा और लोक सभा की अध्यक्ष को नागरिकों से माफी मांगनी चाहिए. इस प्रावधान से देश हित और नागरिकों के हित के साथ खिलवाड़ हुआ. इसकी सांस्थानिक जिम्मेवारी तय होनी चाहिए. कोर्ट ने आधार संख्या को बैंक खाता नंबर से लिंक करने की अनिर्वाता को भी सुप्रीम कोर्ट ने खत्म कर दिया है. कोर्ट के आदेश के बाद आधार कानून में 2019 में संशोधन कर धारा 57 को हटा दिया गया है.
इस धारा के हटने से पूर्व के समझौते अभी तक निरस्त नहीं हुए हैं. वोटर आईडी आधार का जोड़ उन्हीं समझौतों (ठेकों) कारण सामने आया है. ये समझौते (ठेके) संविधान और कोर्ट के आदेश से ज्यादा बाध्यकारी प्रतीत हो रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट के चार जजों के फैसले में कहा गया है कि आधार कानून धन विधेयक (मनी बिल) है और उन्होने लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को सही बताया है. ये चार जज हैं प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए के सीकरी, न्यायमूर्ति ए एम खानविल्कर और न्यायमूर्ति अशोक भूषण. न्यायमूर्ति मिश्रा, सीकरी व भूषण सेवामुक्त हो चुके हैं. गौरतलब है कि इन जजों का भी ये मानना है कि लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को संवैधानिक चुनौती दी जा सकती है.
न्यायमूर्ति डी वाइ चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा है कि वह सरकार की इस दलील से सहमत नहीं है कि आधार कानून धन विधेयक है और उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष के फैसले को गलत बताया है. आधार को किसी भी तरीके से लोकसभा अध्यक्ष को धन विधेयक नहीं बताना चाहिए था क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 110 (धन विधेयक की परिभाषा) की शर्तों को पूरा नहीं करता है. उन्होंने कहा कि ‘धारा 57 के तहत कोई लाभ और सब्सिडी का वितरण नहीं है. मनी बिल या धन विधेयक के तहत राजस्व और खर्च से जुड़े हुए मामले आते हैं. इस पर अंतिम फैसला लोकसभा लेती है.
ऐसे विधेयकों पर राज्य सभा में चर्चा तो हो सकती है लेकिन उसे खारिज नहीं कर सकती. उन्होंने अपने फैसले में कहा कि आधार को साधारण विधेयक की तरह पारित किया जा सकता है. उन्होंने आधार को लागू करने वाले भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (UIDAI) के साथ हुए विदेशी निजी कंपनियों के करार का हवाला देते हुए कहा कि इन बायोमेट्रिक तकनीकी कंपनियों की सहभागिता से से होने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी खतरे और नागरिकों के मूलभूत अधिकारों के हनन को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है. इसलिए उन्होने आधार परियोजना और कानून को खारिज कर दिया और इसके जगह पर कोई और वैकल्पिक व्यवस्था करने की अनुसंशा की है.
(लेखक 2010 से आधार संख्या-NPR-वोटर आईडी परियोजना व गुमनाम चंदा विषय पर शोध कर रहे हैं. इस संबंध में संसदीय समिति के समक्ष भी पेश हुए.)
(साभार- जनपथ)
तीन हिस्सों की सीरीज का यह दूसरा पार्ट है. पहला पार्ट यहां पढ़ें.