काल ने साल 2021 में भारतीय लोकतंत्र से दो प्रश्न पूछे. उसने आखिरी दिन तक इंतजार किया. जो जवाब आए, वह उससे पस्त और हताश होकर चला जा रहा है लेकिन इसी दौरान उभरी एक जोरदार प्रवृत्ति पर चकित भी है जिसे खाद-पानी मिला तो नए गुल खिला सकती है. हालांकि ऐसा होने के आसार कम हैं. यह कहने के जितने कारण हैं उससे अधिक लेकिन अपरिभाषित कारण ऐसे हैं जिनकी बुनियाद पर उम्मीद पाली जा सकती है. उम्मीद एक बेहया और बिंदास चीज है जो बिना किसी कारण के भी पलती रहती है.
पहला प्रश्न था- जब लाखों जन महामारी से मर रहे हों, सड़कें श्मशान हो जाएं, नदियां लाशों से पट जाएं, सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा तबाह हो, प्राइवेट अस्पताल मरीजों की जान को बंधक बनाकर ब्लैकमेल कर रहे हों, देश की सरकार ताली-थाली से कोरोना भगाने की विफलता के बाद लगातार झूठ बोल रही हो और बीमारी को धार्मिक रंगत देकर मरते लोगों के बीच दंगा कराकर चुनाव जीतने की जुगत कर रही हो. ऐसे में मीडिया को क्या करना चाहिए?
जवाब आया- मीडिया को सरकार की क्रूरता, अक्षमता, लापरवाही पर पर्दा तानना चाहिए और कॉरपोरेट चिकित्सा संस्थानों और प्राइवेट अस्पतालों का बगलगीर हो जाना चाहिए क्योंकि झूठ फैलाने से पैसा मिलता है. सच बोलने से लाशें पहियों में फंस कर सरकारी हिंदुत्व के रथ को रोक देंगी और अपनी छुतही बीमारी से प्रधानमंत्री की चमत्कारी छवि को संक्रमित कर सकती हैं.
दूसरी लहर में कोरोना से इतने जन (छिपाऊ और दकियानूस अनुमानों के मुताबिक तीन लाख से अधिक) मरे थे कि किसी भी आकार के मीडिया के लिए लाशों पर लेटकर ढक पाना असंभव था. लिहाजा मीडिया ने प्रधानमंत्री मोदी के बर्थडे 17 सितंबर का इंतजार किया गया ताकि एक दिन में रिकार्ड वैक्सीनेशन की प्रेरणा का राग गाया जा सके. व्यक्तित्व का जादू ऐसा था कि जिन्हें महीना भर पहले वैक्सीन लगी थी उनके आंकड़ों को उसी दिन कोविन वेबसाइट पर अपलोड किया गया और फोटोमंडित सर्टिफिकेट दिए गए.
एक महीने बाद 22 अक्तूबर को प्रधानमंत्री मोदी ने 100 करोड़ (कई तरह के जुगाड़ से जुटाई गई संख्या) टीके लगने का एलान किया और मीडिया ने हर दिशा में इसका डंका पीट दिया जबकि उस दिन तक सिर्फ 20 प्रतिशत आबादी को ही वैक्सीन की दोनों डोज लग पाई थीं. क्या इंडिया टुडे, टाइम्स नाउ, सीएनएन न्यूज़-18 और क्या टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स और क्या इंडियन एक्सप्रेस सभी प्रधानमंत्री की तस्वीरों और सरकारी लनतरानियों से छलक गए.
कोरोना लहर में तबलीगी जमातों का थूक सबसे बड़ी खोजी पत्रकारिता था, यह तब तक बना रहा जब तक कि प्रधानमंत्री खुद बंगाल में भीड़ बटोर कर ‘दीदी ओ दीदी’ की लंठपुकार नहीं लगाने लगे. महामारी का जो भी सच सामने आ पाया उसका श्रेय युवाओं को मोबाइल फोन से वीडियो बनाने की लग चुकी लत को जाता है वरना न तो लाल बही वाले सेठ, न टाई वाले सीईओ के जमाने में, जनस्वास्थ्य कभी मीडिया की चिंता नहीं रहा. श्रम और संसाधन साध्य चिकित्सा विज्ञान पर मुफ्त की राजनीति हमेशा भारी रही है.
पहले अखबारों में 'पपीता फल ही नहीं औषधि भी' हुआ करता था. स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण और फार्मा कंपनियों के कॉरपोरेटीकरण के बाद किसी फूड सप्लीमेंट के विज्ञापन के साथ 'मनचाहा शरीर पाएं' को ही पत्रकारिता का नाम दे दिया गया. हेल्थ-जर्नलिज्म क्या है, यह 2002 में एशिया को चपेट में लेने वाली सार्स बीमारी के समय ही पता चल गया था. सरकारी प्रवक्ता, हर तीन दिन पर जब तक कुछ बोलता नहीं था मीडिया के पास दिखाने, सुनाने, पढ़ाने के लिए कुछ नहीं होता था.
चिकने डॉक्टरों को पैनल में बिठाकर, सरकारी नीतियों के बजाय उपभोक्ता पर फोकस रखते हुए, मंहगे प्राइवेट अस्पतालों को मानवीय चेहरा देना टीवी पत्रकारिता का प्रिय काम रहा है. कॉरपोरेट को इतने से संतोष नहीं था इसलिए शैंपू और खुजली की दवा के विज्ञापन में भी एप्रन पहना कर एक डॉक्टरनुमा अभिनेता-अभिनेत्री को खड़ा करना पड़ता था.
दूसरा प्रश्न था- जब देश के किसान अपनी खेती और अस्मिता बचाने के लिए राजधानी घेर कर बैठे हुए एक के बाद एक मर रहे हों, सरकार लाठी, खाई-खंदक, कील-कांटे समेत दमन के तमाम उपाय रोज आजमाते हुए अहंकार में बलबला रही हो. ऐसे में मीडिया को क्या करना चाहिए?
जवाब आया- सबसे पहले तो यह खोज की जानी चाहिए कि जीन्स पहनने वाले, पीज्जा खाने वाले और अंग्रेजी के कुछ शब्दों का इस्तेमाल करने वाले लोग किसान कैसे हो सकते हैं. इसके बाद उन्हें खालिस्तानी, आतंकवादी, नक्सली बताते हुए उन किराए के सरकारी गुंडों की तरफदारी करनी चाहिए जो उन्हें अपने टैक्स से बनी सड़कों से हटाने के लिए चीख रहे हों.
पिछले सात साल के आंदोलनों में गोदी मीडिया को कोसना प्रतिरोध का अनिवार्य हिस्सा बन गया था. इससे पहले आजादी के बाद से भूमंडलीकरण यानी 90 के शुरुआती दशक तक 'मीडिया मिशन या प्रोफेशन' की वैसी ही झूठी बहस चलती रही जैसे समाज में 'प्रेम बनाम कामवासना' की युगों से चलती आ रही थी. फिर अचानक पूंजी के बोझ से मुक्त वैकल्पिक मीडिया का कंघा गंजों को बेचा जाने लगा. पहले राजनीति बदलती है फिर कुछ और बदलता है. किसान आंदोलन में राजनीति को मोड़ने की क्षमता थी इसलिए तकनीक के सहारे जद्दोजहद कर रहा एक वैकल्पिक मीडिया उभर आया जो पूंजी के बोझ से पूरी तरह तो नहीं लेकिन अभी लालची सेठों, प्रबंधकों और नीति नियंताओं से मुक्त है. वीडियो बनाने की आसानी और विचार की जटिलता और सरकार के खिलाफ साहस का संतुलन साध पाने वालों को अब पत्रकार नहीं सोशल इंफ्लुएंसर कहा जाता है.