बीते 60 वर्षों से एक परिवार हिंदी की इस 128 साल पुरानी संस्था पर क़ब्ज़ा जमाये बैठा था.
नागरीप्रचारिणी सभा के योगदान
नागरीप्रचारिणी सभा का योगदान बहुत बड़ा है. 1893 में स्थापित इस संस्था ने पचास सालों तक हस्तलिखित हिंदी ग्रंथों की खोज का देशव्यापी अभियान चलाया. इन ग्रंथों के विधिवत पाठ-संपादन से तुलसी, सूर, कबीर, जायसी, रहीम और रसखान जैसे कवियों की प्रामाणिक रचनावालियां प्रकाशित हुईं और शिक्षित भारतीय समाज उनसे परिचित हुआ.
इसी सभा ने अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज विद्वानों की लगभग 25 वर्षों की साझा मेहनत के फलस्वरूप ‘हिंदी शब्दसागर’ नामक हिंदी का पहला, सबसे बड़ा, समावेशी और प्रामाणिक शब्दकोष तैयार किया. भारत की संविधान सभा और बाद में गठित अनेक आयोगों ने नियमों, कानूनों और संवैधानिक पदों के हिंदी प्रतिशब्द तैयार करने के लिए इसी शब्दसागर की मदद ली है. इस शब्दसागर की अहमियत का अंदाज़ा इस बात से भी लग जाता है कि इसकी भूमिका के तौर पर प्रकाशित आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ शीर्षक निबंध को पिछले एक हज़ार वर्षों के साहित्य के इतिहास की सबसे विश्वसनीय और प्रामाणिक आलोचना पुस्तक के तौर पर आज तक पढ़ा जाता है.
आज़ादी के पहले अदालतों में हिंदी को कामकाज की भाषा बनाने के लिए इस संस्था ने एक अखिल भारतीय आंदोलन चलाकर पांच लाख हस्ताक्षरों का एक ज्ञापन संयुक्त प्रांत के तत्कालीन गवर्नर को सौंपा था. उसी समय हिंदी में सरकारी और अदालती कामकाज की सुविधा के लिए सभा ने एक ‘कचहरी हिंदी कोश’ भी प्रकाशित की.
नागरीप्रचारिणी सभा के प्रकाशनों का इतिहास गौरवशाली रहा है. ‘हिंदी शब्दसागर’ के 12 खंडों के अलावा इस संस्था ने इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका की तर्ज पर 12 खंडों का ‘हिंदी विश्वकोश’, 16 खंडों का ‘हिंदी साहित्य का वृहत इतिहास’ और 500 से ज़्यादा ग्रंथ प्रकाशित किये. एक समय तक यहां से प्रकाशित रिसर्च जर्नल ‘नागरीप्रचारिणी पत्रिका’ का भी बड़ा मान रहा है.
नागरीप्रचारिणी सभा ने ही सौ साल पहले एमए की कक्षाओं के लिए हिंदी का पहला पाठ्यक्रम बनाया था.
नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना क्वींस कॉलेज, वाराणसी की 9वीं कक्षा के तीन छात्रों– बाबू श्यामसुंदरदास, पंडित रामनारायण मिश्र और शिवकुमार सिंह ने इसी कॉलेज के छात्रावास के बरामदे में बैठकर की. बाद में इसकी स्थापना की तिथि इन्हीं महानुभावों ने 16 जुलाई 1893 निर्धारित की और आधुनिक हिंदी के जनक भारतेंदु हरिश्चन्द्र के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्ण दास इसके पहले अध्यक्ष हुए. काशी के सप्तसागर मुहल्ले में घुड़साल में इसकी बैठकें होती थीं और बाद में इस संस्था का स्वतंत्र भवन बना. पहले ही साल जो लोग इसके सदस्य बने, उनमें महामहोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी, इब्राहिम जॉर्ज ग्रियर्सन, अम्बिकादास व्यास, चौधरी प्रेमघन जैसे भारत-ख्याति के विद्वान थे.
जब इस संस्था की स्थापना की गई तो इसका उद्देश्य हिंदी और देवनागरी लिपि का राष्ट्रव्यापी प्रचार एवं प्रसार था, उस समय न्यायालयों में या अन्यत्र सरकारी कामों में हिंदी का प्रयोग नहीं हो सकता था और हिंदी की शिक्षा की व्यवस्था वैकल्पिक रूप से मिडिल पाठशालाओं तक ही सीमित थी. हिंदी में आकर ग्रंथों का पूर्ण रूप से अभाव था. प्रेमसागर, बिहारी सतसई, तुलसीकृत रामायण और मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत जैसे ग्रंथ ही आकर-ग्रन्थ माने जाते थे, जो जहां-तहां मिडिल में वैकल्पिक रूप से पढ़ाये जाते थे. भारतेंदु और उनकी मित्रमंडली का साहित्य केवल साहित्यकारों के अध्ययन और चिंतन तक सीमित था.