‘किसान कन्या’ फिल्म की रिलीज को राष्ट्रीय घटना के तौर पर प्रचारित किया गया था.
इस पृष्ठभूमि और परिवेश में ‘किसान कन्या’ फिल्म के प्रोडक्शन में प्रदर्शन से संबंधित बातें...
1931 में पहली टॉकी फिल्म का निर्माण कर चुके आर्देशर ईरानी ने इंपीरियल फिल्म कंपनी के अधीन कलर फिल्म बनाने की बात सोची. उन दिनों कंपनी की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, इसलिए कंपनी का एक समूह नहीं चाहता था कि कलर फिल्म में भारी निवेश किया जाए. फिर भी सबसे पहले और कुछ नया करने की जिद में आर्देशर ईरानी को कलर फिल्म के निर्माण का फैसला लिया. इस फिल्म के निर्देशन की जिम्मेदारी उन्होंने मोती बी गिरवानी को सौंपी. इंपीरियल फिल्म कंपनी में मुंशी के तौर पर कार्यरत सआदत हसन मंटो को गिडवानी बहुत पसंद करते थे. उन्होंने उनसे कहानी लिखने को कहा. मंटो ने एक कहानी लिखी. कहानी पसंद आने के बावजूद निर्माता चाहते थे कि कोई बड़ा नाम लेखक के तौर पर जुड़ जाए. मंटो की कोशिश से शांतिनिकेतन में फारसी के अध्यापक प्रोफेसर जियाउद्दीन जुड़ गए. मंटो ने ‘मेरी शादी’ संस्मरण में उनके इस जुड़ाव की सच्चाई (फ्रॉड) के बारे में बता दिया है.
सोशल मीडिया और तमाम जगहों पर यह फिल्म 1937 की रिलीज बताई गई है, जबकि यह 8 जनवरी 1938 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में रिलीज हुई थी. हो सकता है कि 1937 में शूटिंग आरंभ होने के साथ चर्चित होने के कारण यह साल उससे चिपक गया हो. यह भी हो सकता है कि फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट 1937 में ही मिल गया हो. पहली कलर फिल्म होने की वजह से इस फिल्म के निर्माण की खबरें पत्र-पत्रिकाओं में लगातार सुर्खियां बटोर रही थीं.
कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ की रिलीज के सालों पहले प्रयोगवादी साहसी फिल्मकार वी शांताराम ने द्विभाषी फिल्म ‘सैरंध्री’ को कलर करने की कोशिश की थी. ब्लैक एंड ह्वाइट में बनी इस फिल्म को कलर करने के लिए उन्होंने फिल्म का प्रिंट जर्मनी भेजा था. जर्मनी में ‘बायपैक कलर प्रिंटिंग प्रोसेस’ से इसे कलर किया गया, लेकिन तकनीकी दिक्कतों के कारण यह प्रक्रिया अंतिम रूप में असफल रही. निराश होकर वि शांताराम ने ‘सैरंध्री’ को ब्लैक एंड ह्वाइट में ही रिलीज किया और फिर तुरंत किसी और फिल्म को कलर करने की कोशिश भी नहीं की. इस तरह पहली कलर फिल्म होने का श्रेय ‘किसान कन्या’ को मिला.
‘किसान कन्या’ अमेरिका की एक कंपनी ने कलर किया था. इसे ‘सिनेकलर प्रक्रिया’ से कलर किया गया था. बताते हैं कि कलर करने के लिए आवश्यक उपकरण और ज्ञान आर्देशर ईरानी ने आयातित किया था. ब्लैक एंड ह्वाइट में शूट हुई फिल्म को कलर किया गया था. तब तक फिल्मों की शूटिंग के लिए कलर नेगेटिव (फिल्में) अभी आविष्कृत नहीं हुई थीं. कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ को लेकर छप रही खबरों की वजह से फिल्म इंडस्ट्री समेत दर्शकों की जिज्ञासा बढ़ी हुई थी.
मैजेस्टिक सिनेमा में आयोजित इस फिल्म के प्रीमियर में तत्कालीन राज्यपाल सपत्निक आए थे. शहर के गणमान्य अतिथियों (बाबुराव पटेल भी) के सानिध्य में प्रीमियर के बाद फिल्म रिलीज हुई तो इसे देखने के लिए आरंभिक हफ्ते में दर्शकों की भरी भीड़ उमड़ आई थी. इस फिल्म की रिलीज को राष्ट्रीय घटना के तौर पर प्रचारित किया गया था. प्रीमियर की ‘फिल्म इंडिया’ में छपी रिपोर्ट में ‘भारत की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ की सफलता’ शीर्षक से छपी रिपोर्ट में लिखा गया था. घंटों पहले से गलियों में भीड़ एकत्रित होने लगी और सिनेमाघर की सभी सीटें भरी हुई थीं. ऐसा लग रहा था कि आज सारी गलियां मैजेस्टिक सिनेमा की तरफ आ रही हैं. गलियों में दर्शकों का जनसैलाब उमड़ आया था.
रविवार को पुलिस अधिकारियों को भारी भीड़ को नियंत्रित करना पड़ा. सड़कों से लोगों के ना हटने की वजह से ट्राम और कारों की रफ़्तार धीमी हो गयी थी. सिनेमाघर की सीमित सीटों की वजह से सभी दर्शकों को टिकट नहीं मिल पाया. मजबूरन हजारों दर्शकों को निराश होकर लौटना पड़ा. फिल्म के चारों शो में यही हालत रही. फिल्मप्रेमियों के लिए यह दुर्लभ नजारा था. वे पहली कलर टॉकी देखने के लिए उतावली भीड़ को देखकर दंग थे. दर्शकों ने इस फिल्म में जो रंगीनी देखी उससे लगता है कि यह फिल्म निश्चित रूप से सफल होगी और फिल्म इंडस्ट्री के भविष्य में क्रांतिकारी परिवर्तन ले आएगी, हर भारतीय को रंगों से विशेष प्रेम है और इस फिल्म को ‘सिनेकलर प्रक्रिया’ से जिस तरह रंगीन किया गया है, वह हर लिहाज से वास्तविक जिंदगी की तरह है. फिल्म को निश्चित ही बड़ी सफलता मिलेगी, जो अभी तक ब्लैक एंड ह्वाइट फिल्मों को मिलती रही है.
तमाम प्रचार और आरंभिक भीड़ के बावजूद फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कमाल नहीं कर सकी थी. इस फिल्म के लेखन और निर्देशन की काफी आलोचना हुई थी. ऐसी जानकारी मिलती है कि इंपीरियल फिल्म कंपनी में ही कुच्छ लोग नहीं चाहते थे कि ‘किसान कन्या’ सफल हो. फिल्म इंडस्ट्री में भी आर्देशर ईरानी की कामयाबी के कई दुश्मन थे. वे भी नहीं चाहते थे कि यह फिल्म कोई कमाल कर सके. बाबूराव पटेल ने अपने रिव्यू में आरोप लगाया था कि यह फिल्म ‘गुंडा’ का गरिमाकरण करती है. फिल्म में एक ‘गुंडा’ चरित्र था, जो क्लाइमेक्स में बदल जाता है. वह अपना अपराध स्वीकार कर लेता है और निर्दोष नायक को आजाद करवा देता है. मुमकिन है ‘किसान कन्या’ का ‘गुंडा’ कहीं ना कहीं जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुंडा’ के नायक के समान हो.
इस फिल्म का कोई भी प्रिंट अब उपलब्ध नहीं है. प्रचार सामग्रियों और छपी रिपोर्टों के आधार पर फिल्म संबंधी सारी जानकारियां एकत्रित की गई हैं. वहीं सही-गलत तरीके से हर जगह उपलब्ध है. ‘किसान कन्या’ भारतीय सिनेमा के इतिहास में पहली कलर फिल्म होने के कारण ऐतिहासिक महत्व रखती है. इस कलर फिल्म के निर्माण के बावजूद लंबे समय तक कलर फिल्म प्रचलन में नहीं आयी थी. आजादी के बाद ही इस दिशा में निर्माताओं ने ठोस कदम उठाए.
फिल्म का कथासार
किसान कन्या हमारे गांव की कहानी है. यह विस्तार से जमींदार और साहूकार की मनमानी और क्रूर व्यवहार को चित्रित करती है, जो खेतिहरों को परेशान करते रहते हैं. फिल्म में भारत के एक गांव को चुना गया है और कहानी को रोचक एवं नाटकीय मोड़ दिया गया है. गांव के किसानों की दुर्दशा को इस कहानी में गूंथा गया है. इसकी वजह से फिल्म शुरू से अंत तक बेहद रोचक हो गई है. गांव के ठेठ जमींदार ने किसानों की जिंदगी मुश्किल कर रखी है. वह उन्हें हर तरह से सताता रहता है. फिल्म की कहानी मुख्य रूप से जमींदार, उसकी पत्नी रामदाई, खलनायक रणधीर, नायक रामू और नायिका बांसुरी के बीच चलती है.
रणधीर को ‘गुंडा’ चरित्र दिया गया है. ऐसे चरित्र गांव-देहात में मिल जाते हैं. लेखक ने विलेन के चरित्र को उदार और नरमदिल का भी बनाया है, जिसकी वजह से फिल्म में ‘गुंडा’ का गरिमाकाण हुआ है. बांसुरी जमींदार के यहां नौकरानी है. जमींदार अपने रैयतों का शोषण करता है और हर मुमकिन मौके पर उन्हें लूटता है. धार्मिक स्वभाव की जमींदार की पत्नी रामदाई अपने पति की दुष्टता से नाखुश रहती है. शोषण और परेशानी के दृश्यों के बीच कहानी आगे बढ़ती है. क्लाइमैक्स के ठीक पहले जमींदार की हत्या हो जाती है. रामू पर हत्या का आरोप लगता है. पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती है. जमींदार की पत्नी सच्चाई से वाकिफ है. वह हत्यारे रणधीर के पास जाकर निर्दोष रामू को छुड़ाने की बात करती है. उदारदिल रणधीर राजी हो जाता है और अपना अपराध स्वीकार कर लेता है. रामू आजाद होने के बाद बांसुरी से मिल जाता है.
फिल्म में एक संदेश भी है कि गांव के अमीर लोग गरीब ग्रामीणों के प्रति अपना कर्तव्य निभाएं और गांव के विकास में योगदान करें.
इस पृष्ठभूमि और परिवेश में ‘किसान कन्या’ फिल्म के प्रोडक्शन में प्रदर्शन से संबंधित बातें...
1931 में पहली टॉकी फिल्म का निर्माण कर चुके आर्देशर ईरानी ने इंपीरियल फिल्म कंपनी के अधीन कलर फिल्म बनाने की बात सोची. उन दिनों कंपनी की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, इसलिए कंपनी का एक समूह नहीं चाहता था कि कलर फिल्म में भारी निवेश किया जाए. फिर भी सबसे पहले और कुछ नया करने की जिद में आर्देशर ईरानी को कलर फिल्म के निर्माण का फैसला लिया. इस फिल्म के निर्देशन की जिम्मेदारी उन्होंने मोती बी गिरवानी को सौंपी. इंपीरियल फिल्म कंपनी में मुंशी के तौर पर कार्यरत सआदत हसन मंटो को गिडवानी बहुत पसंद करते थे. उन्होंने उनसे कहानी लिखने को कहा. मंटो ने एक कहानी लिखी. कहानी पसंद आने के बावजूद निर्माता चाहते थे कि कोई बड़ा नाम लेखक के तौर पर जुड़ जाए. मंटो की कोशिश से शांतिनिकेतन में फारसी के अध्यापक प्रोफेसर जियाउद्दीन जुड़ गए. मंटो ने ‘मेरी शादी’ संस्मरण में उनके इस जुड़ाव की सच्चाई (फ्रॉड) के बारे में बता दिया है.
सोशल मीडिया और तमाम जगहों पर यह फिल्म 1937 की रिलीज बताई गई है, जबकि यह 8 जनवरी 1938 को मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में रिलीज हुई थी. हो सकता है कि 1937 में शूटिंग आरंभ होने के साथ चर्चित होने के कारण यह साल उससे चिपक गया हो. यह भी हो सकता है कि फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट 1937 में ही मिल गया हो. पहली कलर फिल्म होने की वजह से इस फिल्म के निर्माण की खबरें पत्र-पत्रिकाओं में लगातार सुर्खियां बटोर रही थीं.
कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ की रिलीज के सालों पहले प्रयोगवादी साहसी फिल्मकार वी शांताराम ने द्विभाषी फिल्म ‘सैरंध्री’ को कलर करने की कोशिश की थी. ब्लैक एंड ह्वाइट में बनी इस फिल्म को कलर करने के लिए उन्होंने फिल्म का प्रिंट जर्मनी भेजा था. जर्मनी में ‘बायपैक कलर प्रिंटिंग प्रोसेस’ से इसे कलर किया गया, लेकिन तकनीकी दिक्कतों के कारण यह प्रक्रिया अंतिम रूप में असफल रही. निराश होकर वि शांताराम ने ‘सैरंध्री’ को ब्लैक एंड ह्वाइट में ही रिलीज किया और फिर तुरंत किसी और फिल्म को कलर करने की कोशिश भी नहीं की. इस तरह पहली कलर फिल्म होने का श्रेय ‘किसान कन्या’ को मिला.
‘किसान कन्या’ अमेरिका की एक कंपनी ने कलर किया था. इसे ‘सिनेकलर प्रक्रिया’ से कलर किया गया था. बताते हैं कि कलर करने के लिए आवश्यक उपकरण और ज्ञान आर्देशर ईरानी ने आयातित किया था. ब्लैक एंड ह्वाइट में शूट हुई फिल्म को कलर किया गया था. तब तक फिल्मों की शूटिंग के लिए कलर नेगेटिव (फिल्में) अभी आविष्कृत नहीं हुई थीं. कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ को लेकर छप रही खबरों की वजह से फिल्म इंडस्ट्री समेत दर्शकों की जिज्ञासा बढ़ी हुई थी.
मैजेस्टिक सिनेमा में आयोजित इस फिल्म के प्रीमियर में तत्कालीन राज्यपाल सपत्निक आए थे. शहर के गणमान्य अतिथियों (बाबुराव पटेल भी) के सानिध्य में प्रीमियर के बाद फिल्म रिलीज हुई तो इसे देखने के लिए आरंभिक हफ्ते में दर्शकों की भरी भीड़ उमड़ आई थी. इस फिल्म की रिलीज को राष्ट्रीय घटना के तौर पर प्रचारित किया गया था. प्रीमियर की ‘फिल्म इंडिया’ में छपी रिपोर्ट में ‘भारत की पहली कलर फिल्म ‘किसान कन्या’ की सफलता’ शीर्षक से छपी रिपोर्ट में लिखा गया था. घंटों पहले से गलियों में भीड़ एकत्रित होने लगी और सिनेमाघर की सभी सीटें भरी हुई थीं. ऐसा लग रहा था कि आज सारी गलियां मैजेस्टिक सिनेमा की तरफ आ रही हैं. गलियों में दर्शकों का जनसैलाब उमड़ आया था.
रविवार को पुलिस अधिकारियों को भारी भीड़ को नियंत्रित करना पड़ा. सड़कों से लोगों के ना हटने की वजह से ट्राम और कारों की रफ़्तार धीमी हो गयी थी. सिनेमाघर की सीमित सीटों की वजह से सभी दर्शकों को टिकट नहीं मिल पाया. मजबूरन हजारों दर्शकों को निराश होकर लौटना पड़ा. फिल्म के चारों शो में यही हालत रही. फिल्मप्रेमियों के लिए यह दुर्लभ नजारा था. वे पहली कलर टॉकी देखने के लिए उतावली भीड़ को देखकर दंग थे. दर्शकों ने इस फिल्म में जो रंगीनी देखी उससे लगता है कि यह फिल्म निश्चित रूप से सफल होगी और फिल्म इंडस्ट्री के भविष्य में क्रांतिकारी परिवर्तन ले आएगी, हर भारतीय को रंगों से विशेष प्रेम है और इस फिल्म को ‘सिनेकलर प्रक्रिया’ से जिस तरह रंगीन किया गया है, वह हर लिहाज से वास्तविक जिंदगी की तरह है. फिल्म को निश्चित ही बड़ी सफलता मिलेगी, जो अभी तक ब्लैक एंड ह्वाइट फिल्मों को मिलती रही है.
तमाम प्रचार और आरंभिक भीड़ के बावजूद फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई खास कमाल नहीं कर सकी थी. इस फिल्म के लेखन और निर्देशन की काफी आलोचना हुई थी. ऐसी जानकारी मिलती है कि इंपीरियल फिल्म कंपनी में ही कुच्छ लोग नहीं चाहते थे कि ‘किसान कन्या’ सफल हो. फिल्म इंडस्ट्री में भी आर्देशर ईरानी की कामयाबी के कई दुश्मन थे. वे भी नहीं चाहते थे कि यह फिल्म कोई कमाल कर सके. बाबूराव पटेल ने अपने रिव्यू में आरोप लगाया था कि यह फिल्म ‘गुंडा’ का गरिमाकरण करती है. फिल्म में एक ‘गुंडा’ चरित्र था, जो क्लाइमेक्स में बदल जाता है. वह अपना अपराध स्वीकार कर लेता है और निर्दोष नायक को आजाद करवा देता है. मुमकिन है ‘किसान कन्या’ का ‘गुंडा’ कहीं ना कहीं जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुंडा’ के नायक के समान हो.
इस फिल्म का कोई भी प्रिंट अब उपलब्ध नहीं है. प्रचार सामग्रियों और छपी रिपोर्टों के आधार पर फिल्म संबंधी सारी जानकारियां एकत्रित की गई हैं. वहीं सही-गलत तरीके से हर जगह उपलब्ध है. ‘किसान कन्या’ भारतीय सिनेमा के इतिहास में पहली कलर फिल्म होने के कारण ऐतिहासिक महत्व रखती है. इस कलर फिल्म के निर्माण के बावजूद लंबे समय तक कलर फिल्म प्रचलन में नहीं आयी थी. आजादी के बाद ही इस दिशा में निर्माताओं ने ठोस कदम उठाए.
फिल्म का कथासार
किसान कन्या हमारे गांव की कहानी है. यह विस्तार से जमींदार और साहूकार की मनमानी और क्रूर व्यवहार को चित्रित करती है, जो खेतिहरों को परेशान करते रहते हैं. फिल्म में भारत के एक गांव को चुना गया है और कहानी को रोचक एवं नाटकीय मोड़ दिया गया है. गांव के किसानों की दुर्दशा को इस कहानी में गूंथा गया है. इसकी वजह से फिल्म शुरू से अंत तक बेहद रोचक हो गई है. गांव के ठेठ जमींदार ने किसानों की जिंदगी मुश्किल कर रखी है. वह उन्हें हर तरह से सताता रहता है. फिल्म की कहानी मुख्य रूप से जमींदार, उसकी पत्नी रामदाई, खलनायक रणधीर, नायक रामू और नायिका बांसुरी के बीच चलती है.
रणधीर को ‘गुंडा’ चरित्र दिया गया है. ऐसे चरित्र गांव-देहात में मिल जाते हैं. लेखक ने विलेन के चरित्र को उदार और नरमदिल का भी बनाया है, जिसकी वजह से फिल्म में ‘गुंडा’ का गरिमाकाण हुआ है. बांसुरी जमींदार के यहां नौकरानी है. जमींदार अपने रैयतों का शोषण करता है और हर मुमकिन मौके पर उन्हें लूटता है. धार्मिक स्वभाव की जमींदार की पत्नी रामदाई अपने पति की दुष्टता से नाखुश रहती है. शोषण और परेशानी के दृश्यों के बीच कहानी आगे बढ़ती है. क्लाइमैक्स के ठीक पहले जमींदार की हत्या हो जाती है. रामू पर हत्या का आरोप लगता है. पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती है. जमींदार की पत्नी सच्चाई से वाकिफ है. वह हत्यारे रणधीर के पास जाकर निर्दोष रामू को छुड़ाने की बात करती है. उदारदिल रणधीर राजी हो जाता है और अपना अपराध स्वीकार कर लेता है. रामू आजाद होने के बाद बांसुरी से मिल जाता है.
फिल्म में एक संदेश भी है कि गांव के अमीर लोग गरीब ग्रामीणों के प्रति अपना कर्तव्य निभाएं और गांव के विकास में योगदान करें.