किसान आंदोलन: बेनतीजा वार्ताओं की एक और तारीख, क्‍या करेंगे आंदोलनकारी?

प्रधानमंत्री ने कृषि मंत्रालय के अधिकारियों से कहा है कि वे कृषि कानूनों में बदलावों को सुझायें ताकि जल्‍दी से जल्‍दी आंदोलन को खत्‍म किया जा सके.

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आंदोलन की गति

किसानों के आंदोलन में मौजूद युवाओं का धैर्य अब चुक रहा है. 31 दिसंबर से लेकर 3 जनवरी के बीच हरियाणा में हुई घटनाएं इसका गवाह हैं. युवाओं के बीच एक समानांतर नेतृत्‍व भी काम कर रहा है जो परदे के पीछे से अपनी कार्यवाहियों को अंजाम दे रहा है. इनमें बठिंडा की लोकप्रिय युवा शख्सियत लक्‍खा सिधाना का नाम सबसे खास है जिनकी सोशल मीडिया अपील को घंटे भर में दो लाख व्‍यू मिल रहे हैं. 3 जनवरी को रेवाड़ी के बैरिकेड तोड़कर धारूहेड़ा तक आये जवानों के मुंह पर लक्‍खा सिधाना का ही नाम था.

एक ओर सिधाना की यह स्‍वयंभू नौजवान फौज है जो भगत सिंह की पूजा करती है और राजस्‍थान के मशहूर घड़साना आंदोलन की विरासत को संभाले हुए है. दूसरी ओर युनिवर्सिटी में पढ़े-लिखे किसानों के बेटे हैं जो पंजाब के वाम छात्र संगठनों की राजनीति करते हैं. इन सभी की नजर में यह आंदोलन महज तीन कानूनों को वापस लेने का मामला नहीं है बल्कि एक राजनीतिक आंदोलन है. इस राजनीतिक आंदोलन से वे क्‍या हासिल करना चाहते हैं, यह अलहदा बात है. गनीमत अब तक बस इतनी है कि आंदोलन के केंद्रीय नेतृत्‍व से इनका पूर्ण मोहभंग नहीं हुआ है.

पिछले करीब डेढ़ महीने से दिल्‍ली की सरहदों, खासकर सिंघू बॉर्डर पर चल रहे धरने की प्रकृति में एक दिलचस्‍प बदलाव यह देखने में आया है कि आंदोलन के भीतर मौजूद वाम संगठनों, युवाओं के स्‍वतंत्र समूहों और सिखों के दक्षिणपंथी धड़ों के बीच एक किस्‍म की अदृश्‍य एकता कायम हुई है. दिल्‍ली की यह सरहद दर्जन भर गुरद्वारों में तब्‍दील हो चुकी है, जहां दिल्‍ली के सरदार वीकेंड पर मत्‍था टेकने और लंगर का प्रसाद चखने आ रहे हैं. दूसरी ओर तम्‍बुओं से निकलते इंकलाबी गीत और पोस्‍टर हैं.

इन दो ध्रुवों के बीच आंदोलन का 41 संगठनों वाला और कोर के सात सदस्‍यों वाला नेतृत्‍व राजनीतिक रूप से अब मध्‍यमार्गी लगने लगा है. तारीख पर तारीख की रणनीति न तो सिख दक्षिणपंथि‍यों को समझ आ रही है, न वाम धड़ों को. इससे आंदोलन के भीतर बेचैनी है. यह बेचैनी आज की वार्ता के बाद क्‍या शक्‍ल लेगी, कहना मुश्किल है.

जानकारों की राय

आंदोलन और सरकार के बीच बातचीत पर निगाह रखे कुछ जानकारों का मानना है कि सरकार अब आंदोलन से ध्‍यान भटकाने के लिए कुछ और मोर्चों को खोल सकती है. ये मोर्चे कुछ भी हो सकते हैं. सरकार का इंटेलिजेंस चूंकि सीधे आंदोलन को हाथ लगाने के पक्ष में नहीं है लिहाजा मीडिया और जनता का किसी दूसरी घटना या प्रक्रिया से ध्‍यान भटकाना एक फायदेमंद विकल्‍प हो सकता है.

इसके बावजूद 26 जनवरी को होने वाली समानांतर किसान परेड की तात्‍कालिकता को कैसे हल किया जाएगा, यह कोई नहीं बता सकता. समस्‍या यह भी है कि यह परेड कहां होगी, इस बारे में आंदोलन के नेतृत्‍व ने कोई स्‍पष्‍ट जवाब नहीं दिया है. प्रेस क्‍लब में आयोजित अपनी पहली कॉन्‍फ्रेंस में संयुक्‍त किसान मोर्चे से एक पत्रकार के इस संबंध में पूछे गये सवाल को डॉ. दर्शन पाल ने टाल दिया था.

आंदोलन में शामिल पंजाब के एक युवा बताते हैं कि आंदोलन का नेतृत्‍व इस तरह की कार्रवाइयों को ओपेन एंडेड यानी बहुविकल्‍पीय रखता है. वह अपनी ओर से कोई फ़रमान नहीं देता. इसके लिए वे आंदोलन शुरू होने के पहले हरियाणा में तोड़े गये बैरिकेडों का हवाला देते हैं. वे कहते हैं, ‘’कहा तो उसके लिए भी नहीं गया था, लेकिन मना भी नहीं किया गया था.‘’

बिलकुल यही उदासीन प्रतिक्रिया 3 जनवरी को धारूहेड़ा से 5 किलोमीटर पहले हुए उपद्रव पर भी देखी गयी, जब आंदोलन के नेतृत्‍व ने अपना मुंह नहीं खोला था. जानकारों की मानें तो आंदोलन की यही प्रकृति सरकार के लिए एक पहेली है.

मौतों पर चुप्‍पी

इस बीच 60 से ज्‍यादा किसान दिल्‍ली की सरहदों पर अपनी जान गंवा चुके हैं. ज्‍यादातर बीमारी, ठंड और शारीरिक व्‍याधियों से गुजर गये और कुछ ने अपने सुसाइड नोट में यह लिखकर अपनी जान दे दी कि उनकी मौत का जिम्‍मेदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं.

सुसाइड नोटों में अपने नाम से प्रधानमंत्री को न तो कोई फ़र्क पड़ा, न ही किसानों के मरने से. आज तक उन्‍होंने इन मर चुके किसानों पर अपना मुंह नहीं खोला है जबकि दो दिन पहले अमेरिका के कैपिटल हिल में घुसे हिंसक उपद्रवियों के हंगामे पर उन्‍होंने बाकायदे ट्वीट किया है.

(साभार- जनपथ)

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आंदोलन की गति

किसानों के आंदोलन में मौजूद युवाओं का धैर्य अब चुक रहा है. 31 दिसंबर से लेकर 3 जनवरी के बीच हरियाणा में हुई घटनाएं इसका गवाह हैं. युवाओं के बीच एक समानांतर नेतृत्‍व भी काम कर रहा है जो परदे के पीछे से अपनी कार्यवाहियों को अंजाम दे रहा है. इनमें बठिंडा की लोकप्रिय युवा शख्सियत लक्‍खा सिधाना का नाम सबसे खास है जिनकी सोशल मीडिया अपील को घंटे भर में दो लाख व्‍यू मिल रहे हैं. 3 जनवरी को रेवाड़ी के बैरिकेड तोड़कर धारूहेड़ा तक आये जवानों के मुंह पर लक्‍खा सिधाना का ही नाम था.

एक ओर सिधाना की यह स्‍वयंभू नौजवान फौज है जो भगत सिंह की पूजा करती है और राजस्‍थान के मशहूर घड़साना आंदोलन की विरासत को संभाले हुए है. दूसरी ओर युनिवर्सिटी में पढ़े-लिखे किसानों के बेटे हैं जो पंजाब के वाम छात्र संगठनों की राजनीति करते हैं. इन सभी की नजर में यह आंदोलन महज तीन कानूनों को वापस लेने का मामला नहीं है बल्कि एक राजनीतिक आंदोलन है. इस राजनीतिक आंदोलन से वे क्‍या हासिल करना चाहते हैं, यह अलहदा बात है. गनीमत अब तक बस इतनी है कि आंदोलन के केंद्रीय नेतृत्‍व से इनका पूर्ण मोहभंग नहीं हुआ है.

पिछले करीब डेढ़ महीने से दिल्‍ली की सरहदों, खासकर सिंघू बॉर्डर पर चल रहे धरने की प्रकृति में एक दिलचस्‍प बदलाव यह देखने में आया है कि आंदोलन के भीतर मौजूद वाम संगठनों, युवाओं के स्‍वतंत्र समूहों और सिखों के दक्षिणपंथी धड़ों के बीच एक किस्‍म की अदृश्‍य एकता कायम हुई है. दिल्‍ली की यह सरहद दर्जन भर गुरद्वारों में तब्‍दील हो चुकी है, जहां दिल्‍ली के सरदार वीकेंड पर मत्‍था टेकने और लंगर का प्रसाद चखने आ रहे हैं. दूसरी ओर तम्‍बुओं से निकलते इंकलाबी गीत और पोस्‍टर हैं.

इन दो ध्रुवों के बीच आंदोलन का 41 संगठनों वाला और कोर के सात सदस्‍यों वाला नेतृत्‍व राजनीतिक रूप से अब मध्‍यमार्गी लगने लगा है. तारीख पर तारीख की रणनीति न तो सिख दक्षिणपंथि‍यों को समझ आ रही है, न वाम धड़ों को. इससे आंदोलन के भीतर बेचैनी है. यह बेचैनी आज की वार्ता के बाद क्‍या शक्‍ल लेगी, कहना मुश्किल है.

जानकारों की राय

आंदोलन और सरकार के बीच बातचीत पर निगाह रखे कुछ जानकारों का मानना है कि सरकार अब आंदोलन से ध्‍यान भटकाने के लिए कुछ और मोर्चों को खोल सकती है. ये मोर्चे कुछ भी हो सकते हैं. सरकार का इंटेलिजेंस चूंकि सीधे आंदोलन को हाथ लगाने के पक्ष में नहीं है लिहाजा मीडिया और जनता का किसी दूसरी घटना या प्रक्रिया से ध्‍यान भटकाना एक फायदेमंद विकल्‍प हो सकता है.

इसके बावजूद 26 जनवरी को होने वाली समानांतर किसान परेड की तात्‍कालिकता को कैसे हल किया जाएगा, यह कोई नहीं बता सकता. समस्‍या यह भी है कि यह परेड कहां होगी, इस बारे में आंदोलन के नेतृत्‍व ने कोई स्‍पष्‍ट जवाब नहीं दिया है. प्रेस क्‍लब में आयोजित अपनी पहली कॉन्‍फ्रेंस में संयुक्‍त किसान मोर्चे से एक पत्रकार के इस संबंध में पूछे गये सवाल को डॉ. दर्शन पाल ने टाल दिया था.

आंदोलन में शामिल पंजाब के एक युवा बताते हैं कि आंदोलन का नेतृत्‍व इस तरह की कार्रवाइयों को ओपेन एंडेड यानी बहुविकल्‍पीय रखता है. वह अपनी ओर से कोई फ़रमान नहीं देता. इसके लिए वे आंदोलन शुरू होने के पहले हरियाणा में तोड़े गये बैरिकेडों का हवाला देते हैं. वे कहते हैं, ‘’कहा तो उसके लिए भी नहीं गया था, लेकिन मना भी नहीं किया गया था.‘’

बिलकुल यही उदासीन प्रतिक्रिया 3 जनवरी को धारूहेड़ा से 5 किलोमीटर पहले हुए उपद्रव पर भी देखी गयी, जब आंदोलन के नेतृत्‍व ने अपना मुंह नहीं खोला था. जानकारों की मानें तो आंदोलन की यही प्रकृति सरकार के लिए एक पहेली है.

मौतों पर चुप्‍पी

इस बीच 60 से ज्‍यादा किसान दिल्‍ली की सरहदों पर अपनी जान गंवा चुके हैं. ज्‍यादातर बीमारी, ठंड और शारीरिक व्‍याधियों से गुजर गये और कुछ ने अपने सुसाइड नोट में यह लिखकर अपनी जान दे दी कि उनकी मौत का जिम्‍मेदार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं.

सुसाइड नोटों में अपने नाम से प्रधानमंत्री को न तो कोई फ़र्क पड़ा, न ही किसानों के मरने से. आज तक उन्‍होंने इन मर चुके किसानों पर अपना मुंह नहीं खोला है जबकि दो दिन पहले अमेरिका के कैपिटल हिल में घुसे हिंसक उपद्रवियों के हंगामे पर उन्‍होंने बाकायदे ट्वीट किया है.

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