भारत में नई करवट लेती मुस्लिम सियासत

आजादी के बाद के भारतीय इतिहास को देखने से पता चलता है कि मुसलमानों का कोई नेता मुसलमान नहीं हुआ. मोहम्‍मद अली जिन्‍ना अकेले मुसलमानों के पहले और अंतिम मुस्लिम नेता हुए.

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बिहार में बीते विधानसभा चुनाव के दौरान सीमांचल के बहादुरगंज में एक विशाल चुनावी सभा को संबोधित करते हुए ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के असदुद्दीन ओवैसी ने वहां मौजूद जनता से कहा कि लोग मुझे कहते हैं कि मैं बीजेपी का एजेंट हूं तो उसका एजेंट हूं, मैं इसका वोट काटने आया हूं तो उसको जिताने आया हूं. फिर उन्‍होंने पूछा- भाइयों, क्या आपको पता है कि बिहार में कितने फीसदी यादव भाई हैं और यादव भाइयों के कितने एमएलए बिहार विधानसभा में हैं? और आप जानते हैं कि बिहार में मुसलमानों की कितनी आबादी है और बिहार विधानसभा में कितने विधायक मौजूद हैं? इसका जवाब भी उन्‍होंने खुद ही दिया. ओवैसी ने कहा कि बिहार में यादव भाइयों की आबादी 14 फीसदी है और उनके विधायक 55 से अधिक हैं जबकि मुसलमानों की आबादी 16 फीसदी है और विधायक 24 हैं.

ओवैसी ने कहा, ‘’मैं यादव भाइयों को सलाम करता हूं कि उन्होंने अपनी भागीदारी बढ़ायी है लेकिन आपकी भागीदारी इतनी कम है, मैं चाहता हूं कि आपकी भागीदारी भी जनसंख्या के अनुपात में हो.‘’ और संयोग देखिए, बहादुरगंज से एआईएमआईएम के मोहम्मद अंजर नयामी को 85 हजार वोट मिले और वे चुनाव जीत गये.

बिहार के जिस सीमांचल में एआईएमआईएम उभर कर सामने आयी है, वहां की बहुसंख्य आबादी मुस्लिम है. यह इलाका नेपाल, पश्चि‍म बंगाल और बांग्लादेश से सटा हुआ है. विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम ने इसी इलाके पर फोकस किया और 20 सीटों पर चुनाव लड़कर पांच सीटों- अमौर, बहादुरगंज, बैसी, जोकीहाट और कोचाधामन में सफलता हासिल की. उन 20 उम्मीदवारों में पार्टी ने 15 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे जिसका उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा, बहुजन समाज पार्टी और पूर्व केन्द्रीय मंत्री देवेन्द्र प्रसाद यादव की पार्टी से गठबंधन था. इसमें एआईएमआईएम के अलावा सिर्फ बसपा ही एक और सीट पर चुनाव जीत सकी.

ऐसा नहीं है कि एआईएमआईएम ने बिहार में पहली बार कोशिश की है और उसे सफलता इतनी आसानी से मिल गयी है. एआईएमआईएम ने 2015 के विधानसभा चुनाव में भी बड़ी शिद्दत से चुनाव लड़ा था, लेकिन अपवादों को छोड़कर अधिकांश जगहों पर उसके उम्मीदवारों को ज़मानत गंवानी पड़ी थी, हालांकि किशनगंज विधानसभा उपचुनाव में उनकी पार्टी विजयी रही.

यहां सवाल यह है कि जिस पार्टी को पांच साल पहले बिहार में इतनी बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था, आखिर वैसी कौन सी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी कि कुछ ही महीनों के बाद अपनी लड़ी हुई पच्चीस फीसदी सीटों पर वह विजयी रही?

पुराने आंध्र प्रदेश और वर्तमान तेलंगाना की इस छोटी सी पार्टी के लिए वर्ष 2014 से अब तक का समय काफी लाभदायक रहा है. ओवैसी की पार्टी पिछले कई वर्षों से देश की राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश करती रही है, लेकिन भारतीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी का उद्भव उसके लिए काफी मुफीद साबित हुआ है. भारतीय जनता पार्टी के लगातार मज़बूत होने की प्रक्रिया ने धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों को कोने में धकियाने का काम किया है.

वैसे तो इसकी शुरुआत बहुत पहले हो गयी थी जब राजीव गांधी ने शाहबानो प्रकरण पर दकियानूसी मुसलमानों के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदल दिया था. परिणामस्वरूप, बीजेपी ने हिन्दू सांप्रदायिकता को छुपाने वाला अपना लबादा पूरी तरह उतार फेंका और धार्मिक आधार पर खुलकर हिन्दुओं की गोलबंदी उसने शुरू कर दी. शाहबानो प्रकरण के कुछ ही दिनों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में घोर हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा ने सांप्रदायिकता को देश की एकता और अखंडता के नारे से जोड़ दिया और साथ ही कश्मीर से सम्‍बंधित अनुच्‍छेद 370, तीन तलाक और कॉमन सिविल कोड के मुद्दे को भी जोरशोर से उछालने लगी.

बीजेपी ने इन मसलों के अलावा देश की विभिन्न समस्याओं को इस रूप में पेश करना शुरू जिससे लोगों में यह संदेश जाए कि भारतीय समाज की ज्‍यादातर समस्याओं के लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं. हकीकत में मुसलमानों की भी समस्याएं वही थीं जो सामान्य हिन्दुओं की थीं, लेकिन बीजेपी ने हर समस्या के लिए मुसलमानों को ही जवाबदेह ठहराया.

इसी बीच 1989 में सत्ता परिवर्तन हुआ और वीपी सिंह के नेतृत्व में नेशनल फ्रंट की सरकार बनी जिसमें बीजेपी बाहर से समर्थन कर रही थी. वीपी सिंह ने उस मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू करने का फैसला किया जो वर्षों से ठंडे बस्ते में दबाकर रख दिया गया था. मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होने से बीजेपी बौखला गयी क्योंकि आरएसएस भले ही हिन्दुओं की बात करे, उसकी विचारधारा के मूल में सवर्ण हिन्दू ही है. मंडल की काट में राम मंदिर का मुद्दा उछाला गया, पूरी गोबरपट्टी में मंदिर के पक्ष में गोलबंदी शुरू हुई जो हिन्दुत्व के पक्ष में कम, मुसलमानों के विरोध में ज्‍यादा थी. उस समय बिहार और उत्तर प्रदेश में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेता सत्‍ता में थे जिन्‍होंने हिन्दू सांप्रदायिकता के खिलाफ मजबूत पहलकदमी की थी.

मंडल की राजनीति ने मंदिर की राजनीति को सामाजिक रूप से चुनौती तो दी, लेकिन दीर्घकालीन प्रभाव नहीं छोड़ पायी. इसका मुख्य कारण यह था कि मंडल के पक्षकारों की संख्या भले ही ज्यादा रही हो, लेकिन सरकार चलाने के लिए जो भी संस्थान चाहिए- जैसे नौकरशाही, न्यायपालिका, मीडिया, एकेडमिक व थिंक टैंक- उनमें इनकी पहुंच नहीं थी या कह लीजिए वहां सवर्णों का कब्जा था, जो मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होने के कारण बुरी तरह दलित-पिछड़े नेतृत्व से खफ़ा था. कुल मिलाकर शासन करने में मददगार जितने भी अवयव थे, वे इन पार्टियों के खिलाफ़ थे.

दूसरी बात, गोबरपट्टी के मुसलमान सामाजिक न्याय की इन्‍हीं ताकतों के साथ खुद को जोड़कर रखे हुए थे. सभी संस्थानों के विरोध के परिणामस्वरूप हिन्दुत्व की ताकतें मजबूत होती चली गयीं. इसके अलावा सामाजिक न्याय की ताकतों द्वारा भविष्य की चुनौतियों को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण पिछड़े समुदाय की ही विभिन्न जातियों को बीजेपी ने कई टुकड़ों में विभाजित कर उन्हें सामाजिक न्याय की धारा से अलग कर दिया.

बीजेपी लगातार हर बात के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराती रही थी, इसलिए उनके खिलाफ गोलबंदी पूरी हो चुकी थी और मुसलमानों को शत्रु मानने का चक्र पूरा हो गया था. सामाजिक न्याय की ताकतों के पास आगे का कोई विज़न भी नहीं था, इसलिए ज्यों-ज्यों वे सामाजिक रूप से कमजोर होती गयीं, उन्‍होंने डर के चलते मुसलमानों की उचित समस्याओं पर भी अपनी आवाज़ उठानी बंद कर दी. उन्हें डर लगने लगा कि कहीं उनकी पार्टी को हिन्दू विरोधी न मान लिया जाय!

आजादी के बाद के भारतीय इतिहास को देखने से पता चलता है कि मुसलमानों का कोई नेता मुसलमान नहीं हुआ. मोहम्‍मद अली जिन्‍ना अकेले मुसलमानों के पहले और अंतिम मुस्लिम नेता हुए. यहां तक कि सैयद शहाबुद्दीन की भी आम मुसलमानों के बीच वैसी व्‍यापक स्‍वीकार्यता नहीं बन पायी. मुसलमानों ने हमेशा ही हिन्दू नेताओं पर विश्वास किया. जब से नरेन्द्र मोदी सत्ता पर काबिज हुए और जिस आक्रामक तरीके से हिन्दुत्व के एजेंडे को उन्‍होंने आगे बढ़ाया, मुसलमानों में असुरक्षा की भावना बढ़ती चली गयी. चाहे वह तीन तलाक का मसला हो, राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला रहा हो या फिर एनआरसी का मामला, हिन्दू नेतृत्व ने मुसलमानों के सवालों पर पूरी तरह चुप्पी साध ली.

एनआरसी के खिलाफ जब शाहीन बाग में प्रदर्शन चल रहा था तो किसी भी हिन्दू नेता ने उसके समर्थन में उतरना मुनासिब नहीं समझा जबकि एनआरसी का मामला मुसलमानों में भय उत्पन्न कर रहा था. इसी तरह उत्तर प्रदेश में आज़म खान के साथ जिस रूप में राज्य सरकार पेश आयी और उनकी पार्टी असमंजस की स्थिति में रही, इसने युवा मुसलमानों के मन में वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ शक़ को बढ़ाने का काम किया.

इसके उलट, ओवैसी ने जिस रूप में मुस्लिम समुदाय के पक्ष में तक़रीर की, उससे मुसलमान अवाम को लगा कि शायद वे उन्‍हें अपना वोट देकर बराबरी का अधिकार हासिल कर सकते हैं. दूसरी बात, असदुद्दीन ओवैसी जिस मजबूती के साथ संसद से लेकर सड़क तक अपनी बात रखते हैं, वह अब पूरे समुदाय को आकर्षित करने लगा है.

अगर आप संसद में ओवैसी के भाषण सुनें तो संवैधानिक पैमाने पर इतना खरा भाषण आपको किसी का नहीं लगेगा. पिछले कई वर्षों से उन्होंने भाषण कला में खुद को मांज लिया है. संसद में दो सदस्य की हैसियत से उन्‍हें यदा-कदा दो-तीन मिनट का समय मिलता है, लेकिन जिस वक्तृत्‍व कला का वे परिचय देते हैं, वह मुसलमानों में ही नहीं बल्कि गैर-मुसलमानों के बहुत से पढ़े-लिखे लोगों में भी आस जगाता है.

चूंकि हिन्दू नेतृत्व मुसलमानों की सुरक्षा करने में लगातार असफल हो रहा है इसलिए ओवैसी में भारतीय मुसलमान अपना भविष्य देखने लगा है. शायद ओवैसी भारत में एक अलग तरह की राजनीतिक शब्दावली और बिसात बिछाने की ओर अग्रसर हैं. हो सकता है कि इससे ही बेहतर भारत बने.

(साभार - जनपथ)

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बिहार में बीते विधानसभा चुनाव के दौरान सीमांचल के बहादुरगंज में एक विशाल चुनावी सभा को संबोधित करते हुए ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के असदुद्दीन ओवैसी ने वहां मौजूद जनता से कहा कि लोग मुझे कहते हैं कि मैं बीजेपी का एजेंट हूं तो उसका एजेंट हूं, मैं इसका वोट काटने आया हूं तो उसको जिताने आया हूं. फिर उन्‍होंने पूछा- भाइयों, क्या आपको पता है कि बिहार में कितने फीसदी यादव भाई हैं और यादव भाइयों के कितने एमएलए बिहार विधानसभा में हैं? और आप जानते हैं कि बिहार में मुसलमानों की कितनी आबादी है और बिहार विधानसभा में कितने विधायक मौजूद हैं? इसका जवाब भी उन्‍होंने खुद ही दिया. ओवैसी ने कहा कि बिहार में यादव भाइयों की आबादी 14 फीसदी है और उनके विधायक 55 से अधिक हैं जबकि मुसलमानों की आबादी 16 फीसदी है और विधायक 24 हैं.

ओवैसी ने कहा, ‘’मैं यादव भाइयों को सलाम करता हूं कि उन्होंने अपनी भागीदारी बढ़ायी है लेकिन आपकी भागीदारी इतनी कम है, मैं चाहता हूं कि आपकी भागीदारी भी जनसंख्या के अनुपात में हो.‘’ और संयोग देखिए, बहादुरगंज से एआईएमआईएम के मोहम्मद अंजर नयामी को 85 हजार वोट मिले और वे चुनाव जीत गये.

बिहार के जिस सीमांचल में एआईएमआईएम उभर कर सामने आयी है, वहां की बहुसंख्य आबादी मुस्लिम है. यह इलाका नेपाल, पश्चि‍म बंगाल और बांग्लादेश से सटा हुआ है. विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम ने इसी इलाके पर फोकस किया और 20 सीटों पर चुनाव लड़कर पांच सीटों- अमौर, बहादुरगंज, बैसी, जोकीहाट और कोचाधामन में सफलता हासिल की. उन 20 उम्मीदवारों में पार्टी ने 15 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे जिसका उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा, बहुजन समाज पार्टी और पूर्व केन्द्रीय मंत्री देवेन्द्र प्रसाद यादव की पार्टी से गठबंधन था. इसमें एआईएमआईएम के अलावा सिर्फ बसपा ही एक और सीट पर चुनाव जीत सकी.

ऐसा नहीं है कि एआईएमआईएम ने बिहार में पहली बार कोशिश की है और उसे सफलता इतनी आसानी से मिल गयी है. एआईएमआईएम ने 2015 के विधानसभा चुनाव में भी बड़ी शिद्दत से चुनाव लड़ा था, लेकिन अपवादों को छोड़कर अधिकांश जगहों पर उसके उम्मीदवारों को ज़मानत गंवानी पड़ी थी, हालांकि किशनगंज विधानसभा उपचुनाव में उनकी पार्टी विजयी रही.

यहां सवाल यह है कि जिस पार्टी को पांच साल पहले बिहार में इतनी बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था, आखिर वैसी कौन सी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी कि कुछ ही महीनों के बाद अपनी लड़ी हुई पच्चीस फीसदी सीटों पर वह विजयी रही?

पुराने आंध्र प्रदेश और वर्तमान तेलंगाना की इस छोटी सी पार्टी के लिए वर्ष 2014 से अब तक का समय काफी लाभदायक रहा है. ओवैसी की पार्टी पिछले कई वर्षों से देश की राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश करती रही है, लेकिन भारतीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी का उद्भव उसके लिए काफी मुफीद साबित हुआ है. भारतीय जनता पार्टी के लगातार मज़बूत होने की प्रक्रिया ने धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों को कोने में धकियाने का काम किया है.

वैसे तो इसकी शुरुआत बहुत पहले हो गयी थी जब राजीव गांधी ने शाहबानो प्रकरण पर दकियानूसी मुसलमानों के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदल दिया था. परिणामस्वरूप, बीजेपी ने हिन्दू सांप्रदायिकता को छुपाने वाला अपना लबादा पूरी तरह उतार फेंका और धार्मिक आधार पर खुलकर हिन्दुओं की गोलबंदी उसने शुरू कर दी. शाहबानो प्रकरण के कुछ ही दिनों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में घोर हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा ने सांप्रदायिकता को देश की एकता और अखंडता के नारे से जोड़ दिया और साथ ही कश्मीर से सम्‍बंधित अनुच्‍छेद 370, तीन तलाक और कॉमन सिविल कोड के मुद्दे को भी जोरशोर से उछालने लगी.

बीजेपी ने इन मसलों के अलावा देश की विभिन्न समस्याओं को इस रूप में पेश करना शुरू जिससे लोगों में यह संदेश जाए कि भारतीय समाज की ज्‍यादातर समस्याओं के लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं. हकीकत में मुसलमानों की भी समस्याएं वही थीं जो सामान्य हिन्दुओं की थीं, लेकिन बीजेपी ने हर समस्या के लिए मुसलमानों को ही जवाबदेह ठहराया.

इसी बीच 1989 में सत्ता परिवर्तन हुआ और वीपी सिंह के नेतृत्व में नेशनल फ्रंट की सरकार बनी जिसमें बीजेपी बाहर से समर्थन कर रही थी. वीपी सिंह ने उस मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू करने का फैसला किया जो वर्षों से ठंडे बस्ते में दबाकर रख दिया गया था. मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होने से बीजेपी बौखला गयी क्योंकि आरएसएस भले ही हिन्दुओं की बात करे, उसकी विचारधारा के मूल में सवर्ण हिन्दू ही है. मंडल की काट में राम मंदिर का मुद्दा उछाला गया, पूरी गोबरपट्टी में मंदिर के पक्ष में गोलबंदी शुरू हुई जो हिन्दुत्व के पक्ष में कम, मुसलमानों के विरोध में ज्‍यादा थी. उस समय बिहार और उत्तर प्रदेश में लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेता सत्‍ता में थे जिन्‍होंने हिन्दू सांप्रदायिकता के खिलाफ मजबूत पहलकदमी की थी.

मंडल की राजनीति ने मंदिर की राजनीति को सामाजिक रूप से चुनौती तो दी, लेकिन दीर्घकालीन प्रभाव नहीं छोड़ पायी. इसका मुख्य कारण यह था कि मंडल के पक्षकारों की संख्या भले ही ज्यादा रही हो, लेकिन सरकार चलाने के लिए जो भी संस्थान चाहिए- जैसे नौकरशाही, न्यायपालिका, मीडिया, एकेडमिक व थिंक टैंक- उनमें इनकी पहुंच नहीं थी या कह लीजिए वहां सवर्णों का कब्जा था, जो मंडल आयोग की अनुशंसा लागू होने के कारण बुरी तरह दलित-पिछड़े नेतृत्व से खफ़ा था. कुल मिलाकर शासन करने में मददगार जितने भी अवयव थे, वे इन पार्टियों के खिलाफ़ थे.

दूसरी बात, गोबरपट्टी के मुसलमान सामाजिक न्याय की इन्‍हीं ताकतों के साथ खुद को जोड़कर रखे हुए थे. सभी संस्थानों के विरोध के परिणामस्वरूप हिन्दुत्व की ताकतें मजबूत होती चली गयीं. इसके अलावा सामाजिक न्याय की ताकतों द्वारा भविष्य की चुनौतियों को ठीक से नहीं समझ पाने के कारण पिछड़े समुदाय की ही विभिन्न जातियों को बीजेपी ने कई टुकड़ों में विभाजित कर उन्हें सामाजिक न्याय की धारा से अलग कर दिया.

बीजेपी लगातार हर बात के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराती रही थी, इसलिए उनके खिलाफ गोलबंदी पूरी हो चुकी थी और मुसलमानों को शत्रु मानने का चक्र पूरा हो गया था. सामाजिक न्याय की ताकतों के पास आगे का कोई विज़न भी नहीं था, इसलिए ज्यों-ज्यों वे सामाजिक रूप से कमजोर होती गयीं, उन्‍होंने डर के चलते मुसलमानों की उचित समस्याओं पर भी अपनी आवाज़ उठानी बंद कर दी. उन्हें डर लगने लगा कि कहीं उनकी पार्टी को हिन्दू विरोधी न मान लिया जाय!

आजादी के बाद के भारतीय इतिहास को देखने से पता चलता है कि मुसलमानों का कोई नेता मुसलमान नहीं हुआ. मोहम्‍मद अली जिन्‍ना अकेले मुसलमानों के पहले और अंतिम मुस्लिम नेता हुए. यहां तक कि सैयद शहाबुद्दीन की भी आम मुसलमानों के बीच वैसी व्‍यापक स्‍वीकार्यता नहीं बन पायी. मुसलमानों ने हमेशा ही हिन्दू नेताओं पर विश्वास किया. जब से नरेन्द्र मोदी सत्ता पर काबिज हुए और जिस आक्रामक तरीके से हिन्दुत्व के एजेंडे को उन्‍होंने आगे बढ़ाया, मुसलमानों में असुरक्षा की भावना बढ़ती चली गयी. चाहे वह तीन तलाक का मसला हो, राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला रहा हो या फिर एनआरसी का मामला, हिन्दू नेतृत्व ने मुसलमानों के सवालों पर पूरी तरह चुप्पी साध ली.

एनआरसी के खिलाफ जब शाहीन बाग में प्रदर्शन चल रहा था तो किसी भी हिन्दू नेता ने उसके समर्थन में उतरना मुनासिब नहीं समझा जबकि एनआरसी का मामला मुसलमानों में भय उत्पन्न कर रहा था. इसी तरह उत्तर प्रदेश में आज़म खान के साथ जिस रूप में राज्य सरकार पेश आयी और उनकी पार्टी असमंजस की स्थिति में रही, इसने युवा मुसलमानों के मन में वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ शक़ को बढ़ाने का काम किया.

इसके उलट, ओवैसी ने जिस रूप में मुस्लिम समुदाय के पक्ष में तक़रीर की, उससे मुसलमान अवाम को लगा कि शायद वे उन्‍हें अपना वोट देकर बराबरी का अधिकार हासिल कर सकते हैं. दूसरी बात, असदुद्दीन ओवैसी जिस मजबूती के साथ संसद से लेकर सड़क तक अपनी बात रखते हैं, वह अब पूरे समुदाय को आकर्षित करने लगा है.

अगर आप संसद में ओवैसी के भाषण सुनें तो संवैधानिक पैमाने पर इतना खरा भाषण आपको किसी का नहीं लगेगा. पिछले कई वर्षों से उन्होंने भाषण कला में खुद को मांज लिया है. संसद में दो सदस्य की हैसियत से उन्‍हें यदा-कदा दो-तीन मिनट का समय मिलता है, लेकिन जिस वक्तृत्‍व कला का वे परिचय देते हैं, वह मुसलमानों में ही नहीं बल्कि गैर-मुसलमानों के बहुत से पढ़े-लिखे लोगों में भी आस जगाता है.

चूंकि हिन्दू नेतृत्व मुसलमानों की सुरक्षा करने में लगातार असफल हो रहा है इसलिए ओवैसी में भारतीय मुसलमान अपना भविष्य देखने लगा है. शायद ओवैसी भारत में एक अलग तरह की राजनीतिक शब्दावली और बिसात बिछाने की ओर अग्रसर हैं. हो सकता है कि इससे ही बेहतर भारत बने.

(साभार - जनपथ)

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