बिहार चुनाव नतीजों में एनडीए को पूर्ण बहुमत, आरजेडी बनी सबसे बड़ी पार्टी

नीतीश विरोधी और खुद को पीएम मोदी का हनुमान बताने वाले चिराग पासवान की पार्टी लोजपा को महज एक सीट ही मिल पाई है.

WrittenBy:बसंत कुमार
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पुष्यमित्र आगे कहते हैं, "मुख्यमंत्री तो नीतीश कुमार ही बनेंगे लेकिन जदयू की स्थिति एनडीए में इतनी कमज़ोर हो गई कि अब उनके पास भाजपा के बताए रास्ते पर चलने के अलावा कोई रास्ता नहीं हैं. नीतीश कुमार का भविष्य बेहद खराब होने वाला है क्योंकि अब भाजपा जो चाहेगी नीतीश कुमार वहीं करेंगे."

तेजस्वी जीते, महागठबंधन हारा!

पिछले कई चुनावों में यह देखने को मिला कि सत्ता पक्ष ही चुनाव के मुद्दे तय कर रहा था लेकिन इस चुनाव में तेजस्वी यादव ने इस ट्रेंड को बदल दिया. तेजस्वी ने रोजगार को मुद्दा बनाया और उसी के इर्द-गिर्द चुनाव घूमता रहा. तमाम एग्जिट पोल में तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री बनते दिख रहे थे लेकिन नतीजा उनके पक्ष में नहीं आया, इसके बावजूद तमाम जानकर इस चुनाव का हीरो उन्हें ही मान रहे हैं. लालू प्रसाद यादव की अनुपस्थिति में सारा दारोमदार तेजस्वी के ही कंधों पर था. एक तरफ जहां एनडीए के पास प्रधानमंत्री मोदी समेत कई केंद्रीय मंत्री प्रचार के लिए थे वहीं राजद के पास सिर्फ तेजस्वी थे. तेजस्वी भागते-भागते रैली में पहुंचते नज़र आए. जिसका असर यह हुआ कि बिहार में राजद सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है.

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चुनावी नतीजों की बात करें तो 75 सीटों के साथ राजद बिहार की सबसे बड़ी पार्टी बनी है. हालांकि 2015 की तुलना में राजद को पांच सीटों का नुकसान हुआ है लेकिन तब लालू प्रसाद यादव जेल से बाहर थे. नीतीश कुमार भी राजद के ही साथ थे. ऐसे में आज लालू और नीतीश की अनुपस्थिति में राजद ने सबसे बड़ी पार्टी का तमगा अपने पास बचा लिया इसका श्रेय तेजस्वी को ही जाता है. इसके साथ ही तेजस्वी ने लालू प्रसाद की छाया से निकलकर अपनी खुद की उपस्थिति भी दर्ज करा दी है.

पुष्यमित्र इस चुनाव में तेजस्वी को विजेता के रूप में देखते हैं. वे कहते हैं, "तेजस्वी इस चुनाव में अपने दम पर और अपने तरीके से स्थापित हुए हैं. महागठबंधन की जो हार रही है उसका सबसे बड़ा फैक्टर कांग्रेस है. उन्हें 70 सीटें मिली लेकिन जीत सिर्फ 19 सीटों पर हुई है. कांग्रेस तो कमजोर है ही उसे राजद और लेफ्ट का सहयोग भी नहीं मिला. लेकिन रणनीति के तौर पर ऐसा होना चाहिए था कि उनको इतनी सीटें नहीं देकर उसमें से कुछ सीटें लेफ्ट और राजद को दी जानी चाहिए थीं. कुछ सीटों पर जीतनराम मांझी और मुकेश साहनी जैसे दलित और अतिपिछड़े नेता को उतारा जाता तो उन्हें ज़्यादा फायदा मिलता."

कांग्रेस की स्थिति इतनी ख़राब हुई. इसको लेकर लेखक-पत्रकार प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि, "महागठबंधन की सरकार में रोड़ा कांग्रेस बनी है. सीट बंटवारे के दौरान सबसे ज़्यादा उछल-कूद कांग्रेस के लोग ही कर रहे थे. राजद और लेफ्ट ने जहां 50 प्रतिशत सीटें जीती हैं वहीं कांग्रेस सिर्फ 19 सीटें जीत पाई है. मुझे लगता है कि कांग्रेस कहीं और से नियंत्रित हो रही थी."

बिहार में लेफ्ट अभी ज़िंदा है

एक तरफ जहां दावा किया जा रहा था कि लेफ्ट अब सिर्फ दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में बचा हुआ है वहीं इस चुनाव में लेफ्ट के दलों के प्रदर्शन ने साबित कर दिया कि लेफ्ट अभी बिहार में जिंदा है. महागठबंधन के सदस्य लेफ्ट के तीन दलों, सीपीआई (एमएल), सीपीआई और सीपीएम को 29 सीटें मिली थीं जिसमें उन्होंने 16 पर जीत दर्ज की है. राजनीति पर नज़र रखने वालों की माने तो लेफ्ट तो यहां था लेकिन इस चुनाव में उसे जबरदस्त ताकत मिली है. इस चुनाव में सीपीआई (एमएल) को 19 सीटें मिली थीं जिसमें से 12 पर जीत दर्ज की है. वहीं सीपीआई को छह सीटें मिली थीं जिसमें से उन्होंने दो पर जीत दर्ज की है, और सीपीएम को चार मिली थीं जिसमें दो सीटों पर जीत दर्ज की है.

पुष्यमित्र लेफ्ट पार्टियों की जीत पर कहते हैं, "लेफ्ट ने काफी बेहतरीन प्रदर्शन किया है. लेफ्ट ने ना सिर्फ अपना प्रदर्शन सुधारा है बल्कि महागठबंधन के प्रदर्शन को भी उसने ताकत दी है. लोगों को लग रहा था कि लेफ्ट ख़त्म हो गया है, लेकिन उसने साबित किया कि बिहार में अभी लेफ्ट की ताकत है. दरअसल लेफ्ट की दक्षिण बिहार के गरीब लोगों के बीच अच्छी पकड़ है. उनके ही मुद्दे पर वे लगातार काम करते हैं. लेकिन होता क्या था कि ये लोग हमेशा मुख्यधारा की राजनीति से अलग रहते थे. इसीलिए इनके वोटर इन्हें वोट देने की बजाय किसी और को वोट कर देते थे. इस बार इनके वोटरों ने इन्हें वोट किया है. महागठबंधन को सबसे ज़्यादा बढ़त उन इलाकों में मिली जहां लेफ्ट मज़बूत थी."

ओवैसी, जिनके जुनून को मिला इनाम

ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने बिहार चुनाव में पांच सीटों पर जीत दर्ज की है. इसे एमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी के जुनून का परिणाम माना जा रहा है. साल 2015 में पहली बार एमआईएम बिहार के मुस्लिम बाहुल्य इलाके से चुनावी मैदान में उतरी थी. तब उसे सफलता नहीं मिली. साल 2019 उपचुनाव में एक सीट पर एमआईएम को जीत मिली.

इस चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाले गठबंधन के सदस्य के तौर पर ओवैसी 20 सीटों पर चुनाव लड़ रहे थे. महागठबंधन ने उनपर बीजेपी की बी-टीम होने का आरोप लगाया था. लेकिन चुनाव परिणाम में उन्हें सीमांचल की पांच सीटों पर जीत मिली है.

बिहार में एनडीए की जीत और महागठबंधन की हार को लेकर प्रेम कुमार मणि कहते हैं, "उनकी जीत गरिमाहीन है, महागठबंधन की हार गरिमापूर्ण है."

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