उस दौर में जब पत्रकारों को सबसे पुष्ट और स्पष्ट सूचनाएं देनी थी तब कुछ चैनलों ने अपने ही देश के एक नागरिक को लश्कर-ए-तैयबा का कमांडर घोषित कर दिया था.
एक रिपोर्टर के तौर पर मैं पिछले 5 साल से ग्राउंड पर जाता रहा हूं. धरने प्रदर्शन हों या चुनाव, कोई आपदा हो या फिर सांप्रदायिक टकराव या फिर पर्यावरण की बात हो. मैंने इस पूरे साल देश के अलग-अलग हिस्सों से रिपोर्टिंग की. हालांकि, कुछ रिपोर्ट्स ऐसी हैं, जिनके पीछे की कहानियों के बारे में बात करना जरूरी हो जाता है. सबसे पहले बात ऑपरेशन सिंदूर के समय जम्मू कश्मीर से अनुभव की.
अप्रैल महीने में आतंकियों द्वारा पहलगाम में 22 निर्दोष लोगों को गोलियों से भून दिया गया. जिसके जवाब में 6-7 मई की दरम्यानी रात भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ ‘ऑपरेशन सिंदूर’ लॉन्च किया. इसके तहत भारत ने पाकिस्तान स्थित कई आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया.
लेकिन इस बीच भारतीय टीवी मीडिया ने भी जैसे पत्रकारिता पर ही ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कर दी. टीवी पर सूचनाओं के नाम पर फर्जी बातें, आधी अधूरी जानकारी और राष्ट्रवाद की आड़ में कटट्टरवादी प्रवक्ताओं ने ऐसा माहौल बनाया जैसे भारत और पाकिस्तान के बीच जंग का ऐलान हो चुका है. इस बीच भारत सरकार ने ऐलान किया कि देश के तमाम शहरों में मॉक ड्रिल के जरिए लोगों को सतर्क किया जाएगा. टीवी ने इस सायरन को भी मानो ब्रेकिंग न्यूज़ देने के लिए एक घंटी ही मान लिया. टीवी पर हर दूसरे-तीसरे मिनट इसी सायरन के बहाने ख़बरें बताई जानें लगी.
उस दौर में जब पत्रकारों को सबसे पुष्ट और स्पष्ट सूचनाएं देनी थी तब कुछ चैनलों ने अपने ही देश के एक नागरिक को लश्कर-ए-तैयबा का कमांडर घोषित कर दिया. जबकि इस नागरिक की मौत पाकिस्तान की ओर सो हुई गोलीबारी में हुई थी. सच पता चलने पर भी किसी ने इस शख्स की कहानी लोगों को तक पहुंचाने की जहमत नहीं उठाई. न ही उन चैनलों का कोई माफीनामा या स्पष्टीकरण आया.
इस बीच न्यूज़लॉन्ड्री ने फैसला किया कि एक स्वतंत्र संस्थान के तौर पर हम जम्मू- कश्मीर जाएंगे और वहां से सच्चाई को बिना किसी लाग-लपेट लोगों के सामने रखेंगे.
आठ मई को मुझे अगली सुबह जम्मू-कश्मीर जाने के निर्देश हुए. जाने से पहले शाम को मुझे एक बुलेट प्रूफ जैकेट उपलब्ध करवाई गई. मैंने अपनी जिंदगी में इससे पहले कभी भी बुलेट प्रूफ जैकेट नहीं उठाया था. यह काफी भारी था और इसे लगातार पहने रखना ही काफी थका देने काम वाला था.
अगली सुबह मैं और मेरी साथी निधि सुरेश पंजाब के रास्ते जम्मू पहुंचे. जम्मू जाने वाली सड़कें खाली पड़ी थीं. सड़क से ट्रकों और ट्रैफिक की भीड़ पूरी तरह गायब थी. बस रास्ते में मिल रहे थे तो चेकिंग नाके और मुस्तैद जवान. करीब 10 घंटे की यात्रा के बाद हम जम्मू पहुंचे.
शहर के अंदर घुसते ही लगा कि मानो यहां के रहवासी कहीं पलायन कर गए हों. दुकानें बंद पड़ीं थीं, सड़कें सुनसान और जगह-जगह लगे पुलिस और सुरक्षाबलों के चेक पोस्ट इस सन्नाटे का तनाव और बढ़ा रहे थे.
सालभर पहले ही विधानसभा चुनावो के दौरान मैं जम्मू आया था. लेकिन इस बार यहां का माहौल पूरी तरह अलग था. अब जम्मू की रौनक एक भयावह सन्नाटे में बदल चुकी थी.
इस बीच होटल पहुंचे तो वहां भी अंधेरा छाया था. सिर्फ रिसेप्शन पर एक मंद सी रोशनी थी. हमें भी निर्देश मिला कि कमरे की बत्ती नहीं जगानी है और पर्दे भी बंद रखने हैं. बहुत जरूरत होने पर ही सिर्फ बाथरूम की लाइट ऑन करनी है. देश के तमाम शहरों की तरह जम्मू में भी ब्लैकआउट घोषित था.
शाम को करीब 6:30 बजे हम दिनभर की अपडेट रिकॉर्ड करने लगे. तभी अचानक से सायरन बजा. बिजली की गति से लोग होटल के अंदर जाने लगे. हमें भी अंदर जाने को कहा गया. चंद पलों में होटल का गेट बंद कर दिया गया. इसी बीच आसमान धमाकों से गूंज उठा. किसी ने कहा कि पाकिस्तान की तरफ से ड्रोन हमले हो रहे हैं और भारत जवाबी कार्रवाई में उन्हें हवा में ही मार गिरा रहा है.
एक रिपोर्टर के तौर पर हमारी जिज्ञासा इन धमाकों को सुनकर बढ़ती रही. हम होटल की छत पर पहुंच गए. होटल की छत का वो नजारा मैं कभी नहीं भूल सकता. मैंने देखा कि हर पल दर्जनों ड्रोन्स भारत की तरफ आ रहे थे और भारत की एयर डिफेंस सिस्टम उन्हें हवा में ही तबाह कर रहा था. इसी के चलते हवा में ये धमाके हो रहे थे. हमने अपना कैमरा निकाला और सबकुछ रिकॉर्ड करने लगे. इस बीच होटल के स्टाफ ने हमें नीचे आने की हिदायत दी. ये सिलसिला लगभग रात भर चलता रहा और धमाकों की आवाज से हमें नींद तक न आई.
सुबह हमें पता चला कि होटल से करीब 10 मिनट दूर ही एक रिहायशी इलाके में ड्रोन हमला हुआ है. इस हमले की चपेट में तीन घर आए हैं और कई लोग जख्मी हो गए हैं. हम जल्द ही मौके पर पहुंच गए. स्थानीय मीडिया के कुछ लोग और पुलिस प्रशासन वहां पहले से ही मौजूद था. पुलिस ने जानकारी दी कि यह ड्रोन नहीं गिरा है बल्कि तबाह हुए ड्रोन का एक हिस्सा घर से आ टकराया है. इस टकराव में कुल 5 लोग जख्मी हुए और 8 गाड़ियों को बुरी तरह नुकसान पहुंचा है.
हम घायलों के परिजनों से बातचीत कर ही रहे थे कि तभी एक बार फिर सायरन बजा और पुलिस ने जल्दी-जल्दी वहां से सभी लोगों को हटाया.
हम भी जल्दी से बुलेट प्रूफ जैकेट पहन कर वापस आ गए और लोगों से बात करने लगे. एक तरफ संभावित हमले कि चेतावनी देता सायरन बज रहा था तो दूसरी तरफ घायलें के रोते बिलखते परिजन और तीसरी तरफ हमारा फर्ज था कि हर हाल मे लोगों तक सही जानकारी पहुचांनी है.
अगली रिपोर्ट के लिए हम जम्मू के ही एक दूसरे इलाके में गए. जहां पर बॉर्डर के पास से लाए गए लोगों को सुरक्षित रखा गया था. यह जगह जम्मू शहर से थोड़ी दूर ग्रामीण इलाके में थी. सुरक्षा के लिहाज मैं आपको जगह का नाम नहीं बता सकता. जब वहां पहुंचे तो देखा कि लोग भूख से बिलख रहे हैं. खाने के इंतजाम नाकाफी हो चले हैं. इनमें ज्यादातर लोग प्रवासी मजदूर थे.
इसी बीच एक टीवी चैनल के लोग यहां पहुंच गए. भूख और जंग के बीच पिस रहे लोगों का गुस्सा पर उन पर फूट पड़ा. इनका कहना था कि मीडिया चीजों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखा रहा है, जिसके चलते उनका सफर करना भी मुश्किल हो गया है.
इन प्रवासी मजदूरों से बातचीत में पता चला कि ज्यादातर लोगों को उनकी मजदूरी भी नहीं मिली है और वापस जाने के लिए उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं हैं. वहीं, सरकार की तरफ से भी किसी तरह के इंतजाम हमें नहीं दिखे.
इस दौरान हमने जम्मू से लेकर राजौरी और पूंछ की कई कहानियां आप तक पहुंचाई लेकिन कुछ लोगों की कहानी ऐसी थी जो हमेशा के लिए जहन में बस गई हैं.
उनमें से एक कहानी है 12 वर्षीय भाई बहन जेन अली और उर्वा फातिमा की. 10 मई की शाम को हम एक परिवार से मिलने जम्मू मेडिकल कॉलेज गए. इस परिवार के दो जुड़वां बच्चे सात मई को पाकिस्तान की तरफ से हुई गोलीबारी का शिकार बन गए. पुंछ शहर जम्मू-कश्मीर के पीर-पंजाल क्षेत्र में आता है और लाइन ऑफ़ कंट्रोल के किनारे बसा हुआ है.
7 मई की सुबह जब दिल्ली में भारत सरकार द्वारा मीडिया को बताया जा रहा था कि भारत ने स्ट्राइक के जरिए पाकिस्तान के कई आतंकी ठिकानों को तबाह कर दिया है, लगभग उसी समय हमारे देश का यह शहर पाकिस्तान की गोलीबारी के कारण मातम में डूबा हुआ था.
शहर में पाकिस्तानी हमले से करीब 14 लोगों की मौत हो चुकी थी और कई लोग गंभीर रूप से घायल थे. मरने वाले 14 लोगों में जेन अली और उर्वा फातिमा भी शामिल थे. 7 तारीख की सुबह पाकिस्तान की ओर से एक मिसाइल उनके घर के पास आकर गिरी. दोनों बच्चों की मौके पर ही मौत हो गई. इस हमले में उनके पिता भी घायल हो गए थे. धमाके के बाद निकला स्प्लिंटर उनके लीवर और आंतों में घुस गया. जिसकी वजह से वह अभी भी बोलने की हालत में नहीं थे. बच्चों की मां भी गंभीर रूप से घायल हुई थी.
उर्वा के चाचा सोहेल से हम ये पूरा वाकया समझ ही रहे थे कि इस बीच भारत और पाकिस्तान के बीच सीजफायर की ख़बर आई. निधी ने उनसे पूछा कि सीजफायर पर आपको क्या कहना है? तो उनका जवाब था, “क्या इससे हमारे जेन और उर्वा वापस आ जाएंगे?.”
एक रिपोर्टर के तौर पर हमें अपने भावों पर काबू करने की सलाह होती है. लेकिन यहां का मंजर देख मैं खुद को रोक नहीं पा रहा था. जेन के चाचा की बात रह-रह कर मेरे दिमाग में घूम रही थी. इसी बीच मेरी नजर अस्पताल में चल रहे टीवी पर पड़ी. जहां युद्धोन्माद में डूबे एंकर और तथाकथित विशेषज्ञ सीजफायर की टाइमिंग पर सवाल उठा रहे थे.
10 मई की शाम को सीजफायर का ऐलान होने के बावजूद पाकिस्तान ने इसका उल्लंघन करते हुए ड्रोन हमला जारी रखा. 12 मई को हम जम्मू से निकलकर राजौरी होते हुए पुंछ के लिए रवाना हुए. अगले चार दिनों तक हम राजौरी और पुंछ के लोगों से और पाकिस्तान हमले से क्षतिग्रस्त हुए इलाकों में गए.
इस दौरान हमने पाया कि बॉर्डर के किनारे बसे गांवों में सरकार द्वारा बनाए जा रहे बंकरों का अभाव है. जिससे लोग हमले के दौरान छुप नहीं पाते. वहीं प्राथमिक उपचार के लिए अस्पतालों की हालत भी खस्ता है. जिसकी असलियत हमने अपनी रिपोर्ट में दिखाई.
पुंछ का मंजर भयावह था. सड़कों पर मलबा पड़ा था. हमले से क्षतिग्रस्त मकान, दुकान और गाड़ियां देखकर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता था कि 7 मई की सुबह इस शहर की हालत क्या रही होगी.
जिला अस्पताल के बाहर हमारी मुलाकात मेडिकल स्टोर चलाने वाले जयदीप सिंह से हुई. उसने हमें अस्पताल के बाहर की आंखों देखी बताई. जयदीप ने बताया कि उस दिन सुबह अचानक से अस्पताल के बाहर घायल लाए जाने लगे. कोई घायल को कंधे पर तो कोई गाड़ियों में ला रहा था. एक छोटी सी एंबुलेंस में दो-दो लोगों को लाया गया. उस दिन का मंजर देखकर लगा कि हमारा शहर इस तरह के हमले के लिए तैयार नहीं है. अस्पताल में डॉक्टर, दवाइयां और सुविधाएं सब जैसे नाकाफी थी. वहीं, पाकिस्तान की तरफ से बमबारी अभी भी जारी थी.
इस हमले में पुंछ के 40 वर्षीय अमरीक सिंह की भी मौत हो गई थी. वह गुरुद्वारे की सेवा में लगे थे. उनकी बेटी ने बताया कि 7 तारीख की सुबह उनके पिता गुरुद्वारे से लौटे ही थे. इस बीच सायरन बज गया. वह सभी को लेकर घर के बेसमेंट में जाने लगे. लेकिन बेसमेंट बहुत दिनों से बंद पड़ा था तो वह उसको साफ करने के लिए झाड़ू लेने ऊपर चले गए. तभी एक गोला उनके घर के सामने आकर गिरा और अमरीक सिंह की मौके पर ही मौत हो गई.
अमरीक सिंह के भतीजे जमरोध सिंह ने मीडिया और देश की जनता पर काफी गुस्सा जताया था. उन्होंने कहा था कि रील देखकर जंग नहीं लड़ी जाती, जंग क्या होती है वो हम लोगों से पूछिए.
7 मई के हमले में शहर के एक और निवासी जिया उल उलूम स्कूल के एक शिक्षक मोहम्मद कारी इकबाल की भी मौत हो गई. लेकिन भारतीय मीडिया ने उन्हें पाकिस्तानी आतंकवादी की मौत की खबर चला दी. उन्हें लश्क- ए- तैयबा का कमांडर बताया गया. मीडिया ने कहा कि उनकी मौत भारत की ओर से की गई एयर स्ट्राइक में पाकिस्तान के कोटला में हुई है.
यह ख़बर देखकर पूरे शहर में आक्रोश फैल गया. शहर के जिम्मेदार लोग सबसे पहले पुंछ पुलिस के पास गए. पुलिस ने बयान जारी किया कि मोहम्मद कारी भारतीय नागरिक है और उनके बारे में जो खबरें चलाई जा रही हैं वह गलत और बेबुनियाद हैं. लेकिन मीडिया की लापरवाही ऐसी की पुलिस द्वारा बयान जारी करने के बावजूद भी किसी भी टीवी चैनल ने मोहम्मद कारी के परिवार से माफी नहीं मांगी और ना ही देश से इस बात की माफी मांगी कि युद्ध जैसी स्थिति में बॉर्डर किनारे बसे देश के नागरिकों का हौसला मजबूत करने के बजाय टीवी ने निराश किया.
इस दौरान हमने और मृतकों के परिवारों से भी बात की. और इन्हीं में से एक आफरीन की कहानी भी मैं कभी नहीं भूल सकता. 22 वर्षीय आफरीन अपने माता-पिता के साथ शहर में ही रहती हैं. उनके पिता रेहड़ी लगाते थे. हमले के 2 महीने पहले ही आफरीन की सगाई हुई थी. 6 मई की रात आफरीन के माता-पिता लड़के वालों के घर गए थे और शादी की तारीख तय करने की बात चल रही थी. लेकिन अगली ही सुबह उनके घर के सामने हुए धमाके में उनके पिता अकरम की मौत हो गई और आफरीन भी इसमें बुरी तरह झुलस गई. उनके चेहरे का एक तरफ का हिस्सा जल गया.
जब हम आफरीन से मिले तो वह सदमे में थी. ठीक से बात नहीं कर पा रही थी. उसकी मां ने बताया कि पिता की मौत के बाद से आफरीन ने किसी से बात नहीं की. हमने जब पूछा तो वह रोने लगी. उसने बताया कि जब उनके घर के सामने धमाका हुआ तो उसके पिता घर का गेट बंद कर रहे थे. और वह पिता के ठीक पीछे खड़ी थी. उन्होंने अपने पिता को बचाने की कोशिश की लेकिन धमाका इतना जोर का था कि उसके झटके से पिता का हाथ छूट गया हुआ और और वह घर के पीछे वाली दीवार से जा टकराई.
वह बार-बार बस यही दोहराने लगी कि अगर उसने चंद सेकंड पहले अपने पिता को अंदर खींच लिया होता तो शायद वह बच जाते. पिता उसकी शादी के लिए पैसे जोड़ रहे थे.
पुंछ में ऐसी कई कहानियां मिलीं. फिर चाहे वह अमरजीत सिंह के छोटे बेटे की हो जिन्होंने 10 साल की उम्र में अपने पिता को खो दिया और इस छोटी सी उम्र में भी वह हमसे कह रहे थे कि जो लोग कहते हैं कि जंग होनी चाहिए, वह एक बार यहां आकर देखें कि जंग के क्या नतीजे होते हैं.
इस तरह की कई कहानी हैं, जो इस कवरेज के दौरान मेरे जेहन में बस गईं.
एक रिपोर्टर के तौर पर लोगों की कहानी आप तक पहुंचाना मेरा काम है. लेकिन कई बार इन कहानियों के पीछे की कहानी हम आप तक नहीं पहुंचा पाते हैं. स्टूडियोज़ की चमक दमक से दूर असलियत कुछ ऐसी ही होती है. जहां सब धुंधला ही होता है. और जिंदगी बस संघर्ष में आगे बढ़ती जाती है. और कई बार अनचाहे वाकयात उसे ऐसा मोड़ देते हैं, जहां ना आगे बढ़ना आसान होता है और ना ही ठहरना आसान होता है.
उम्मीद करता हूं कि नया साल आपके लिए ढेर सारी खुशियां लाए. और हम आप तक कहानी लाने का सिलसिला जारी रख सकें.
बीते पच्चीस सालों ने ख़बरें पढ़ने के हमारे तरीके को बदल दिया है, लेकिन इस मूल सत्य को नहीं बदला है कि लोकतंत्र को विज्ञापनदाताओं और सत्ता से मुक्त प्रेस की ज़रूरत है. एनएल-टीएनएम को सब्स्क्राइब करें और उस स्वतंत्रता की रक्षा में मदद करें.
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