क्या बहुजन के डंडे में हिंदुत्व का झंडा लहराने लगा है

बीते दस सालों के दौरान दलित-बहुजन समाज के भगवाकरण की क्या है हकीकत. 

WrittenBy:अवधेश कुमार
Date:
भीमराव अंबेडकर की तस्वीर.

लंबे समय से इस बात पर बहस चल रही है कि दलितों का भगवाकरण हो गया है. खासतौर पर 2014 के बाद से जब से देश में मोदी सरकार सत्ता में आई है. लेकिन क्या सच में ऐसा है? इसी की पड़ताल के लिए हमने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों का दौरा किया, और जानने की कोशिश की कि आखिर दलितों के घर पर लगने वाले नीले झंडों की जगह क्या वाकई भगवा झंडों ने ले ली है.

दरअसल, कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएं तो आज भी दलित बस्तियों की पहचान दूर से ही हो जाती है. वहां का रहन सहन, तंग गलियां और छतों पर लगने वाले नीले झंडे आज भी दलित मोहल्लों की पहचान हैं. हालांकि कुछ इलाकों में अब इन छतों पर लगने वाले नीले झंडों की जगह भगवा झंडों ने ले ली. 

कुछ लोगों का कहना है कि बीते कुछ सालों में नीले झंडों की जगह भगवा ने ली जरूर थी लेकिन वह जल्दी ही समझ गए कि भगवा सिर्फ दलितों को गुमराह करने के लिए है. इसलिए अब फिर से वहां भगवा उतरकर नीले झंडे लग गए हैं. जबकि कुछ जगहों पर भगवा के साथ साथ नीले झंडे भी लगे हैं.

इस पड़ताल के लिए सबसे पहले हम बिजनौर लोकसभा क्षेत्र गए. यहां 45 फीसदी मुस्लिम और करीब 22 फीसदी दलित आबादी रहती है.

जब हम बिजनौर के जलालपुर काजी गांव पहुंचे तो यहां गांव के बाहर ही रास्ते पर अंबेडकर धर्मशाला है. धर्मशाला की बगल से ही गांव में अंदर जाने के लिए रास्ता जाता है. जैसे ही गांव में एंट्री करने के लिए थोड़ा सा आगे बढ़ेंगे तो एक ऊंचे से बिजली के खंबे पर बाबा साहेब की तस्वीर वाला झंडा लहरा रहा है. दूर से देखने पर ये तो समझ आता है कि यह झंडा नीला है लेकिन यहां कुछ देर निगह टेकने के बाद ही समझ आता है कि इस पर भीमराव अंबेडकर की तस्वीर भी छपी है.

इस गांव की आबादी दो हजार से ज्यादा है, जिनमें 90 फीसदी से ज्यादा दलित रहते हैं. ज्यादातर घरों पर नीले झंडे लगे हैं जबकि कुछ दलितों के घरों पर नीले झंडों के साथ भगवा झंडे भी लहर रहे हैं. यहां हमारी मुलाकात गांव के सबसे बुजुर्ग 75 वर्षीय धरम सिंह मौर्य से हुई. वह हमें गांव के बीचोबीच बने रविदास आश्रम पर बात करने के लिए ले जाते हैं. भगवाकरण के सवाल पर वह कहते हैं कि भगवाकरण एक ढोंग है. आज हमारे गांव में 25 बच्चे सरकारी नौकर हैं जबकि 1985 में सिर्फ दो बच्चे थे. 

वे बताते हैं, “मैं दो बार कांशीराम जी से मिला हूं और कई बार बहन मायावती से मुलाकात हुई है. कांशीराम के जाने के बाद बहन जी ने उनके सिद्धांत थोड़े से बदल दिए हैं. मायावती ने बहुजन हिताय बहुजन सुखाय से जो सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय किया है ये बहुत गलत किया है. लेकिन अब फिर से बदलाव कर रही हैं ये अच्छी बात है.”

75 वर्षीय धरम सिंह मौर्य

वह भगवाकरण के पीछे की एक दिलचस्प बात बताते हुए कहते हैं, “2006 तक बहनजी कांशीराम के सिद्धांतों पर चलीं लेकिन इसके बाद 2007 में जब हमारी सरकार बनी तो उन्होंने बहुजन हिताय बहुजन सुखाय नारे को सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय कर दिया. जिससे दलित काफी गुस्सा हो गए और उन्होंने भी वोट देना कहीं और शुरू कर दिया. बहनजी के इस फैसले से हमारे लोग घबरा गए क्योंकि उनका (सवर्ण) हिताय तो पहले से ही है. यही वजह है कि मायावती से हटकर दलितों ने पिछले कुछ सालों में काफी संख्या में भाजपा को वोट दिया है.”

वह आगे कहते हैं, “पहले अगर बहनजी को कोई थोड़ा सा भी शब्द गलत कह देता था तो हमें गुस्सा आ जाता था, हम पीट देते थे उसे, लड़ाई हो जाती थी लेकिन अब ऐसा नहीं है.” 

वह यहां चंद्रशेखर का जिक्र करते हुए कहते हैं कि अब अगर दलितों पर कोई अत्याचार होता है तो वहां पर चंद्रशेखर आजाद जाते हैं बहन जी नहीं जाती हैं. उनके भजीते भी नहीं जाते हैं. इन सब बातों से लोग बहन जी से खफा हैं. 

वह आगे कहते हैं, “जो लोग बहक गए हैं, वही नीले की जगह भगवा झंडा लगा रहे हैं. लेकिन उनके दिल में हैं अंबेडकर ही. सच्चाई ये है कि अब हम चाहते हैं कि भाजपा की सरकार जानी चाहिए. इस सरकार में बहुत ज्यादा जातिवाद फैला है. दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं.” 

बीते दिनों रामपुर में एक दलित बच्चे को गोली मार दी गई. वहां न मायावती गईं न आकाश आनंद लेकिन चंद्रशेखर आजाद गए थे. माना जा रहा है कि इसलिए लोग मायावती से काफी नाराज हैं. 

रवि कुमार

इसी गांव के युवा रवि कुमार कहते हैं कि भाजपा सरकार ने हमें हिंदू मुस्लिमों में बांट दिया है. जब चुनाव आते हैं तो हमें ये हिंदू बताते हैं और जब चुनाव बीत जाते हैं तो फिर हम पर अत्याचार होते हैं. तब हमारे साथ कोई खड़ा नहीं होता है. अब दलित इस बहकावे में नहीं आएंगे.  

ललित कुमार के घर लगा जय श्री राम लिखा झंडा

इसी गांव में हमारी मुलाकात ललित कुमार से हुई. ललित प्राइवेट नौकरी करते हैं. इनके घर पर भगवा झंडा लगा है. पूछने पर कहते हैं कि देखिए माहौल के हिसाब से बदलना पड़ता है. ये दलितों का गांव है और पिछली बार यहां विधानसभा चुनाव में काफी वोट भाजपा को गया है. हमारे दिल में तो अंबेडकर ही हैं लेकिन हम राम को भी मानते हैं. 

वहीं, इसी गांव के सूरज सिंह कहते हैं, “भगवाकरण की सबसे बड़ी वजह है कि अब आरएसएस वाले गांव-गांव जाने लगे हैं. हमारे गांव में भी आते हैं. पत्रिकाएं देते हैं. लोगों को हिन्दुत्व के बारे में समझाते हैं तो कुछ लोग उनके बहकावे में आ जाते हैं. हालांकि, हमारे गांव में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है लेकिन आरएसएस वाले काफी कोशिश कर रहे हैं. वो पत्रिकाएं देकर जाते हैं गांवों में, जिनमें हिंदुओं से जुड़े लेख होते हैं. यही वजह है कि इनके बहकावे में आकर कुछ लोगों का भगवाकरण हो रहा है.”

इसके बाद हम नगीना लोकसभा क्षेत्र के नया गांव पहुंचे. वहां एक चौपाल लगी थी. जिसमें गांव के लोग ताश खेल रहे थे. उनके इर्द-गिर्द बच्चे झुंड बनाए खड़े थे. पीछे दीवार पर बसपा के प्रचार की पेंटिंग हुई है. जो काफी पुरानी है और धुंधली हो चुकी है. यहां कई बच्चे बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की तस्वीर वाली टी शर्ट पहने हैं और कुछ बच्चे हाथ में चंद्रशेखर आजाद की तस्वीर वाले पार्टी के झंडे लिए खड़े हैं. 

मोनू कुमार

चौपाल में बैठे मोनू कुमार हमसे बातचीत में कहते हैं कि इस गांव की आबादी करीब 1000 है. यह पूरा गांव दलितों का ही है. बाकी जाति के लोग यहां नहीं रहते हैं. 

भगवाकरण के सवाल पर वह कहते हैं, “उन्होंने हमारे बाबा साहेब को भी तो अपना लिया. वो भी तो बाबा साहेब को मानते हैं. दूसरी बात अगर जब कोई हमारे लिए अच्छा करेगा तो हम भी उनके लिए वैसा ही करेंगे.” 

वह आगे कहते हैं, “यहां चुनाव के समय बसपा प्रत्याशी दलितों के वोट लेने के लिए तो आ जाते हैं लेकिन फिर दोबारा इधर नहीं आते हैं. वो हमारे सुख दुख में भी खड़े नहीं होते हैं तो ऐसे उन्हें ही कैसे वोट देते रहेंगे. बिजनौर से मलूक नागर और नगीना से गिरीश चंद्र बसपा से सांसदी का चुनाव जीते थे लेकिन एक बार भी इधर नहीं आए. इसलिए हमारे पूरे गांव ने पिछली बार यहां से विधानसभा में भाजपा प्रत्याशी को वोट दिया था और उसे जिताया था. अब जमाना बदल रहा है. नई जनरेशन और नए लोगों को मौका मिलना चाहिए.”

गिरीराज सिंह

गांव के ही गिरीराज सिंह कहते हैं कि देखो हमारे घरों में भले नीला झंडा न लगा हो लेकिन हमारे सबके घरों में बाबा साहेब की तस्वीर लगी है. दूसरी बात ये परिवर्तन तो होता रहता है. अब काफी सुधार हो रहा है वरना पहले घरों पर भगवा झंडा ज्यादा लगे थे. 

गिरीराज को रोकते हुए पास ही खड़े मानसिंह कहते हैं, “एक समय पर काफी भगवा-भगवा हो गया था, लेकिन अब तब्दीली हो रही है. भगवा झंडे गांव में कम हो गए हैं. लोगों को भगवा का रोग लग गया था वह अब धीरे-धीरे कट रहा है, एकदम से रोग नहीं कटेगा. इधर राम मंदिर का काफी असर था. अब राम मंदिर भी बन गया है, क्योंकि वह भी हमारी इज्जत का सवाल था.”

गिरीराज कहते हैं कि पिछली बार यहां से ज्यादातर वोट भाजपा को गया था. इस बार गांव के लोग चंद्रशेखर को वोट देंगे. हालांकि, सारा वोट चंद्रशेखर को नहीं जाएगा, काफी वोट गांव से भाजपा को भी जाएगा, लेकिन बसपा को वोट नहीं जाएगा. 

नया गांव के प्रधानपति 50 वर्षीय पवन कुमार कहते हैं, “यह तब्दीली 2014 के बाद से देखने को मिली है. इसकी बड़ी वजह यह रही कि एक तो सरकार बदली और फिर लोगों के कुछ निजी काम, स्थानीय संबंधों के चलते भी लोगों का काफी हद तक भगवाकरण हुआ. हमारे क्षेत्र में भगवाकरण का प्रतिशत ज्यादा तो नहीं है लेकिन कुछ हद तक ही सही है तो. इसके बावजूद ऐसा नहीं है कि बाबा साहेब को मानने वाले कम हो गए हों. बाबा साहेब लोगों के दिलों में हैं, भले ही वह दिखावे और आपसी संबंधों के चलते उन्होंने घरों पर भगवा झंडे लगा लिए हों. अब तो भाजपा वाले भी बाबा साहेब को बराबर मान रहे हैं.”

नया गांव के प्रधानपति 50 वर्षीय पवन कुमार

इस तरह हमने कई गांवों का दौरा किया. हमने पाया कि कुछ लोग कैमरे पर बात करने के लिए तैयार नहीं हैं. उनका कहना है कि भाजपा की सरकार है इसीलिए कुछ बोलेंगे तो उन्हें परेशानी हो सकती है. इस दौरान हमें कई लोग खुशी से तो कई लोग मजबूरी में भगवा पार्टी के साथ जाने की बात करते दिखे. 

नगीना लोकसभा क्षेत्र का गांव ऊमरी काफी बड़ा है. यहां की आबादी करीब 6 हजार है. नाम नहीं बताने की शर्त पर गांव के एक व्यक्ति ने कहा, ”हम हमेशा से बसपा को वोट करते आए हैं. लेकिन इस बार चंद्रशेखर को वोट कर रहे हैं. इसकी वजह है कि बसपा के लोग घरों से नहीं निकलते हैं. पिछली बार काफी वोट भाजपा को गया है. इसमें कोई शक नहीं है कि दलितों का भगवाकरण हुआ है. इसकी वजह है दलित उतने संपन्न नहीं है कि लड़ सकें. बसपा वाले आते नहीं हैं, भाजपा वाले आते हैं तो लोग उनसे अपना सामंजस्य बैठाने लगे हैं.”  

बुलंदशहर निवासी दिल्ली के पूर्व बामसेफ प्रभारी और वर्तमान में बसपा के पदाधिकारी सुरेश चंद्रा से हमारी मुलाकात मुरादाबाद में हुई. वह कहते हैं, “मकानों का हाव-भाव और स्वभाव, कच्ची दीवारें, छप्पर, बिना पलस्टर की दीवारें, चबूतरे और आंगन में कोई परिवर्तन नहीं है. लेकिन झंडा बदल गया है. यानी उनकी आर्थिक स्थिति में तो कोई सुधार नहीं हुआ है लेकिन अंधविश्वास और पाखंड के चलते लोगों ने अपने आप को बदल लिया है.”

वह कहते हैं, “बीते कुछ सालों में हिंदुइज्म का कल्चर बहुत तेजी से फैला है. लोगों ने झूठी बातों को ज्यादा मानना शुरू कर दिया. भगवा पार्टी ने इस झूठ को गांव-गांव तक फैलाया जिसका असर हमें भगवाकरण के रूप में देखने को मिल रहा है. अभी भी सिर्फ दलितों में जाटव जाति को छोड़ दिया जाए तो बाकि जितनी भी उप-जातियां हैं, जो दलित ही हैं उनपर इसका असर ज्यादा देखने को मिला है. इसके अलावा इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि जो बाबासाहेब का समाज है, और जो उनके वंशज हैं उन पर भी इसका पूरा प्रभाव हुआ है.” 

वे आगे कहते हैं, “कई जगहों पर ऐसा भी हुआ है कि जहां पर नीले झंडे लगे थे उन लोगों ने जबरदस्ती करके वहां भगवा झंडे लगाए हैं. जबकि कुछ लोगों ने खुद ही माहौल देखकर भगवा झंडा लगा लिए हैं. शहरों में फिर भी ये कम है लेकिन गांवों में ऐसा ज्यादा हुआ है.”

“बामसेफ में पदाधिकारी रहने के दौरान पहले हम लोग गांव-गांव घर-घर में लोगों को बहुजन महापुरुषों के बारे में जाकर समझाते थे. इससे वो लोग काफी प्रभावित होते थे. इससे भाईचारा भी बढ़ता था और वही भाईचारा फिर वोटों में तब्दील होता था. लेकिन अब इस काम में गिरावट आ गई है. हम पहले कैडर देते थे लेकिन अब वह कम हो गए हैं. काशीराम जी के जाने के बाद बामसेफ के कैडरों में काफी कमी आई है. एक जमाना था जब काशीराम जी अपने काफिले के साथ साइकिलों पर नीला झंडा लगाकार गांव-गांव निकलते थे, तब दलित समाज में बहुत बड़ा बदलाव हुआ था. लेकिन उनके जाने के बाद जो लोग महत्वाकांक्षी थे उन्होंने कैडर देने छोड़ दिए और वे राजनीति में आ गए. दूसरी ओर आरएसएस का विस्तार हुआ है. इसलिए लोगों में भगवाकरण ज्यादा हुआ.” उन्होंने कहा.

समाजिक कार्यकर्ता संजीव सागर कहते हैं, “देखिए समाजिक परिवर्तन लाना चाहिए. परिवर्तन सामाजिक होगा तो लंबे समय तक चलेगा और बीते कुछ सालों में जो देश में परिवतर्न हुआ है यह राजनीतिक था. राजनीति में ऊपर नीचे होता रहता है. जब बसपा सत्ता में थी तो सिर्फ नीले झंडे ही नजर आते थे लेकिन जब अन्य पार्टियां आई तो जैसे अभी भाजपा है तो फिर भगवा नजर आ रहा है. इसलिए सामाजिक परिवर्तन आना जरूरी है.”

वे आगे कहते हैं, “जैसे भाजपा की ताकत आरएसएस है, ऐसे ही बसपा की ताकत एक समय पर बामसेफ था. बामसेफ के कमजोर पड़ने से भी काफी नुकसान हुआ है. कैडर लगने कम हो गए हैं. अब लोग सिर्फ राजनीति की तरफ बढ़ रहे हैं इसका भी प्रभाव पड़ा है. आज कल के दलित युवा सबसे ज्यादा गोरक्षा दल, हिंदू युवा वाहिनी जैसे हिंदुत्ववादी संगठनों से जुड़े हुए हैं. कहा जाए तो इन संगठनों को यही लोग चला रहे हैं. बस इन्हें लीड करने वाले अन्य जाति (सवर्ण) के लोग हैं.”

सहारनपुर निवासी महीपाल सिंह भगवाकरण को लेकर अलग ही तर्क देते हैं. वह कहते हैं, "जहां मुस्लिम अबादी ज्यादा है और दलित कम हैं उन गावों और बस्तियों का भगवाकरण ज्यादा हुआ है. वहां पर आपको आसानी से जय श्रीराम के झंडे, भगवा झंडे आदि आसानी से देखने को मिल जाएंगे. ऐसे गांवों में आरएसएस की नजर भी ज्यादा रहती है. वे अनाप शनाप बातें करके लोगों को गुमराह करते हैं. ऐसे गांवों में कुछ लड़ाई झगड़ा या कोई अन्य विवाद हो जाता है तो ये उन गांवों में पहले पहुंचते हैं और दलितों के साथ खड़े हो जाते हैं. उन्हें हिंदू बताते हैं और कहते हैं कि हम आपके साथ हैं. ऐसे में दूसरे समुदाय से लड़ने और अपने को मजबूत दिखाने के लिए दलित बहक जाते हैं. अपने घरों पर झंडे लगाते हैं. साथ ही ऐसे गांवों में धार्मिक कार्यक्रम भी ज्यादा देखने को मिलते हैं."

विनय विरालिया मेरठ जिले के भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चा के महानगर अध्यक्ष हैं. वे कहते हैं, “मैं इस पार्टी में 2018 से लेकर 2021 तक महानगर युवा मोर्चा उपाध्यक्ष रहा हूं. इसके बाद मेरा काम देखकर पार्टी ने मुझे एससी मोर्चा का महानगर अध्यक्ष बना दिया. हम दलितों को जोड़ने कि लिए समय समय पर विशेष मीटिंग अभियान चलाते हैं. कुछ दिन पहले ही हमने दलितों को जोड़ने के लिए एक बड़ा सम्मेलन किया था. हमने इसमें मुख्य अतिथि के रूप में यूपी के स्वतंत्र प्रभार मंत्री असीम अरुण को भी बुलाया था. इस कार्यक्रम का नाम था "समरसता सम्मेलन". इस कार्यक्रम में 2 हजार से ज्यादा दलित जुटे थे.”

वह आगे बताते हैं, “इसके अलावा जैसे अभी लोकसभा का चुनाव चल रहा है तो हमने इस लोकसभा की सभी दलित बस्तियों को चिन्हित किया हुआ है. हम यहां जाकर लोगों और इन बस्तियों के प्रमुखों से मिलते हैं. इन बस्तियों में हमें कहीं 10-20 तो कहीं 50 आदमी मिले. ये सब काम तो हमने चुनाव में किया और भाजपा को वोट करने के लिए अपील की. चुनाव नहीं होने पर भी हम उन्हें जोड़ने के लिए ऐसी जगहों पर फोकस करते हैं, जहां दलितों की आबादी ज्यादा है, फिर वहां दलित सम्मेलन कर उन लोगों से मिलते हैं. जब से मैं एससी युवा मोर्चा का अध्यक्ष बना हूं तब से करीब 20 सम्मेलन तो मैं करा चुका हूं." 

वे एक उदाहरण देते हुए कहते हैं,  “छह महीने पहले ही हमने यहां के एक गांव महमदपुर कंकरखेड़ा में प्रदेश अध्यक्ष चौधरी भूपेंद्र सिंह को बुलवाया था. तब भूपेंद्र सिंह ने कहा था कि गांव में दो जगहों पर चाय रखवा देना तो मैंने दो की बजाय 5 परिवारों में चाय रखवा दी. जब वो आए तो गांव में पहले हम सब ने मिलकर अंबेडकर प्रतिमा पर माल्यार्पण किया उसके बाद फिर सम्मेलन किया. उसी दिन 140 लोग बसपा छोड़कर भाजपा पार्टी में शामिल हो गए. ये दलितों की ऐसी बस्तियां थी कि जहां पर पहले भाजपा के लिए कोई वोट भी नहीं मांग सकता था. इसके बाद से कभी 2 लोग, 4 लोग तो कभी 10 लोग जुड़ते ही रहते हैं.”

विनय आगे बताते हैं, “जहां कभी बसपा के झंडे लगे होते थे वहां अब ज्यादातर जगहों पर भाजपा के झंडे लगे हैं. हमारे यहां चौक और जसपुर मौहल्ला है. ये दलितों के ऐसे मोहल्ले थे कि कभी भाजपा वाले झंडे भी नहीं लगा सकते थे लेकिन अब यहां पर 500-500 लोगों की भाजपा के समर्थन में बैठके हुई हैं. 2022 में यहां पर भाजपा को भर-भर कर वोट डाले गए. यहां पर अब नीले कम भगवा झंडे ज्यादा दिखाई देते हैं.”

कुल मिलाकर हमने अपनी पड़ताल में पाया कि दलितों का कुछ हद तक भगवाकरण तो हुआ है लेकिन वह कैमरे पर यह बात स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं. ज्यादातर दलितों का मानना है कि भाजपा को वोट करना भगवाकरण नहीं है क्योंकि उनके दिल में अभी भी अंबेडकर है. जबकि कुछ दलितों का मानना है कि समय के साथ बदलना पड़ता है. हमें ऐसे बहुत कम परिवार मिले जो भगवाकरण की बात को स्वीकार करते हैं. 

भाजपा के प्रति दलितों का झुकाव बताते आंकड़े 

सीएसडीएस की रिपोर्ट के मुताबिक, 2014 के आम चुनाव में देशभर में 68 फीसदी जाटवों ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को वोट किया था. वहीं, 30 प्रतिशत गैर जाटवों ने बसपा को वोट किया था. इसके अलावा 18 प्रतिशत जाटवों ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को वोट किया था जबकि 45 प्रतिशत गैर जाटवों ने भाजपा को वोट किया था.   

उत्तर प्रदेश में 2017 के हुए विधानसभा चुनावों में 87 फीसदी जाटवों ने बसपा को वोट किया था. वहीं, 44 फीसदी गैर जाटवों ने वोट किया था. जबकि भाजपा को 8 फीसदी जाटवों ने और 32 फीसदी गैर जाटव मतदाताओं ने भाजपा को वोट किया था. 

2019 में बसपा और सपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था. इस दौरान 75 फीसदी जाटवों ने इस गठबंधन को वोट किया था. जबकि 42 प्रतिशत गैर जाटव मतदाताओं ने इन्हें वोट किया था. वहीं, भाजपा को 17 फीसदी जाटवों ने तो 48 फीसदी गैर जाटव मतदाताओं ने भाजपा को वोट किया था.

बात करें 2022 के विधानसभा चुनाव की तो यहां 65 फीसदी जाटवों ने बसपा को वोट किया था. यानी जो बसपा का कोर वोटर माना जाता है उसमें भी 35 फीसदी में अन्य पार्टियों ने सेंध मार ली, खासतौर पर भाजपा ने. इस चुनाव में 27 फीसदी गैर जाटवों ने बसपा को वोट किया था. जबकि भाजपा को 21 फीसदी जाटवों ने तो 41 फीसदी गैर जाटवों ने भाजपा को वोट किया था.

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