राजस्थान: बढ़ रहे दलित-आदिवासियों पर अत्याचार के मामले, घट रही सजा की दर!

राजस्थान में बीते 5 सालों में जातीय उत्पीड़न के मामले 22 प्रतिशत की दर से बढ़े. वहीं दर्ज मामलों में प्रभावी जांच और आरोप सिद्ध होने की दर बेहद कम है.

WrittenBy:अरुण कुमार
Date:
दलितों के प्रति रवैये का प्रतीकात्मक चित्रण

इंद्र मेघवाल: 13 अगस्त, 2022

राजस्थान के जालौर जिले के सायला तहसील के सुराणा गांव में कथित तौर पर पानी की मटकी छूने पर हुई पिटाई से नौ वर्षीय छात्र इंद्र मेघवाल की 13 अगस्त 2022 को मौत हो गई थी. घटना के बाद दलित-आदिवासी समाज में व्यापक आक्रोश देखने को मिला था. धरना-प्रदर्शन के बीच देश-विदेश की मीडिया में यह मामला सुर्खियों में रहा. प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने पीड़ित परिवार को आर्थिक मदद देने के साथ ही एसआईटी (स्पेशल इंवेस्टिगेटिव टीम) गठित कर मामले में निष्पक्ष कार्रवाई कर दोषी को सख्त सजा दिलवाने का वादा किया था. 

इंद्र की मौत के तुरंत बाद 14 अगस्त, 2023 को सायला थाना पुलिस ने निजी स्कूल के संचालक आरोपी शिक्षक छैल सिंह को गिरफ्तार कर लिया. घटना को अब सवा साल होने को हैं. करीब एक साल बाद 19 अगस्त, 2023 को आरोपी शिक्षक को जोधपुर हाईकोर्ट ने जमानत पर रिहा कर दिया है.

छैल सिंह के वकील सुरेंद्र दवे और भूरू सिंह ने बताया कि जोधपुर हाईकोर्ट ने मामले में एविडेंस (गवाही) नहीं होने और आरोपी शिक्षक के न्यायिक अभिरक्षा में एक साल तक जेल में रहने की अवधि को देखते हुए जमानत मंजूर की है. फिलहाल यह मामला जालौर की अनुसूचित जाति/जनजाति न्यायालय में विचाराधीन है. 

न्यूज़लॉन्ड्री और द मूकनायक की टीम ने एक बार फिर दिल्ली से जालौर की 586 किलोमीटर की यात्रा कर इस बहुचर्चित मामले की पड़ताल की कोशिश की. दिल्ली से अजमेर होते हुए हम बाड़मेर हाईवे पर स्थित सायला कस्बे पहुंचे. हाईवे से उतर कर गुड़ामलानी की ओर जाने वाले स्टेट हाईवे पर 25 किलोमीटर चलने के बाद सड़क के बाईं ओर सुराणा गांव का बोर्ड नजर आया. आगे कुछ दूरी पर सुराणा अस्थायी पुलिस चौकी और उसके सामने सड़क के दूसरी ओर राजीव गांधी सेवा केंद्र का सरकारी भवन था. अस्थायी पुलिस चौकी का मुख्य गेट बंद था और परिसर में खड़ी एक मोटरसाइकिल के अलावा अन्य कोई पुलिसकर्मी नजर नहीं आया.

आगे बढ़ने पर हमें सड़क के किनारे एक किराना की दुकान नजर आई. यहां इंद्र मेघवाल के पिता देवाराम का नाम लेने पर दुकानदार ने गांव के भीतर जा रही सड़क की ओर इशारा कर दिया. करीब सवा किलोमीटर चलते हुए हमें सड़क से लगते खेतों पर देवाराम का घर नजर आया.

दो कमरों के बने पक्के मकान के दाईं ओर एक लकड़ियों और सूखी घास-फूस से बना शेड था. वहीं मकान की बाईं ओर एक टिनशेड में एक बड़ी मेज पर इंद्र मेघवाल व दलित बहुजन समाज सुधारकों की तस्वीरें करीने से रखी हुई थीं. दीवार पर इंद्र मेघवाल की फोटो लगे बैनर थे.

पीड़ित परिवार की सुरक्षा के लिए तैनात एक पुलिस कांस्टेबल भी मौके पर मौजूद था. दिल्ली से आई मीडिया टीम को देखकर इंद्र के पिता ने एक चारपाई बिछा दी. इस दौरान मौजूद पुलिसकर्मी ने हमारे नाम और मोबाइल नंबर ले लिए, परिवार से मिलने का कारण पूछा और फोन से ही उच्चाधिकारियों को सूचना दे दी.

बातचीत से पता चला कि इंद्र मेघवाल प्रकरण के बाद परिवार ने गांव के बाहर खेतों में नया मकान बनाया है. वहीं, मुख्य सड़क से सटी अपनी जमीन पर गुजरात की दलित महिलाओं द्वारा दी छुआछूत शोषण की प्रतीक मटकी स्थापित करने के लिए जगह निश्चित की है, लेकिन गांव के लोगों के दबाव के चलते मटकी स्थापित नहीं कर पाए हैं.

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गुजरात की दलित महिलाओं द्वारा पीड़ित परिवार को भेंट की गई मटकी.

देवाराम ने बताया, “गांव की करीब 8,000 की आबादी में 1,700 परिवार भोमिया राजपूतों के हैं. आरोपी शिक्षक छैल सिंह भी भोमिया राजपूत समाज से है. भोमिया राजपूत व अन्य लोग चयनित स्थान पर मटकी नहीं लगाने दे रहे हैं. पुलिस व प्रशासन भी कोई मदद नहीं कर रहा है. गांव से चार किलोमीटर दूर खेत पर स्थित पुराने मकान पर मटकी रखी है.

आरोपी शिक्षक छैल सिंह की जमानत को लेकर देवाराम नाराज हैं. उन्होंने कहा, “मैं कोर्ट में जमानत खारिज करने की अर्जी लगाऊंगा. इंद्र को न्याय दिलाने के लिए आखिर तक लड़ाई लड़ूंगा.”

इंद्र की मां पवनी देवी रोजमर्रा के कामों में व्यस्त थीं. जानवरों को चारा डाल रही पवनी देवी को देवाराम ने आवाज देकर बुलाया, वो काम छोड़कर आईं और हमको उस कमरे में ले गईं, जहां इंद्र की किताबें व अन्य सामान पड़े थे. पवनी अभी तक उस हादसे से उबर नहीं पाई हैं. उन्होंने अलमारी में रखी इंद्र मेघवाल की तस्वीर को उठाया और सहलाने लगीं. घूंघट के भीतर ही वो रोए जा रही थीं. 

पवनी ने कहा, “इंद्र की बहुत याद आती है. वह हर रोज स्कूल जाता था. वापस लौटकर घर के कामों में मदद करता था. उसकी किताबें, तस्वीरें, कपड़े देखती हूं तो बहुत दुख होता है. रात भर नींद नहीं आती है. बहुत रोना आता है.”

पवनी ने आगे कहा, “20 साल से हम गांव में रह रहे हैं. पहले जातीय भेदभाव के कारण गांव में किराना का सामान नहीं देते थे, अब पुलिस सुरक्षा है. इस कारण राशन दे देते हैं. अकेले गांव में जाना आसान नहीं है. मेघवाल समुदाय के घरों के अलावा अन्य किसी भी समुदाय के घरों में नहीं जा सकते हैं. हम परेशान हैं, मेरे बेटे को न्याय मिलना चाहिए.”

इसके बाद हम गांव के दूसरे छोर पर स्थित पुराने मकान पर गए. मुख्य भवन के आगे एक टिनशेड में एक मेज पर इंद्र मेघवाल की तस्वीर लगी थी. उसी के पास में ही दलित उत्पीड़न की प्रतीक मटकी रखी नजर आई.

इंद्र के चाचा किशोर कुमार ने बताया, “इंद्र की मौत के बाद शव को इसी पुराने घर में लाया गया था. इसी घर में मौत के बाद होने वाले सारे क्रिया-कर्म किए गए थे, इसलिए गांव वालों का दबाव है कि यह मटकी भी इसी जगह रखी जाए, जबकि यह मटकी हम अपने नए मकान में सड़क के पास अपनी जमीन पर रखना चाहते हैं ताकि लोग इसको देख सकें. इसमें प्रशासन भी गांव के प्रभावशाली लोगों का ही साथ दे रहा है.”

गांव की सरपंच लक्ष्मा कंवर उनके इस आरोप को खारिज करती हैं. वे कहती हैं, “पीड़ित परिवार अपनी जमीन पर मटकी जहां चाहे लगा सकते हैं. ऐसा कोई दबाव किसी की ओर से नहीं है.”

इंद्र के चाचा किशोर पुलिसिया जांच से संतुष्ट नहीं हैं. कहते हैं कि इस मामले में भोमिया समाज के कई लोगों को गवाह बनाया गया है. वे यह आशंका भी जताते हैं कि ये लोग कोर्ट के सामने आरोपी के पक्ष में ही बयान देंगे. साथ ही आरोप लगाते हैं कि चार्जशीट में झूठे बयान दर्ज किए गए हैं. हालांकि, वे न्यायालय पर जरूर भरोसा जताते हैं.

देवाराम और किशोर कुमार के परिवार पुलिस सुरक्षा में हैं. दोनों के घरों पर एक-एक पुलिसकर्मी की तैनाती की गई है. कथित तौर पर दोनों ही परिवारों को धमकियां मिल रही हैं. 

इस बाबत जालौर के डीएसपी रतन देवासी ने हमें बताया कि मटकी लगाने या धमकियों की कोई भी शिकायत लिखित या मौखिक रूप से देवाराम के परिवार ने नहीं दी है. 

स्टे ने कर दी केस की सुनवाई धीमी

सुराणा से लौटते हुए हमने जालौर जिला मुख्यालय स्थित रामदेव कॉलोनी में इंद्र मेघवाल केस की पैरवी कर रहे वकील एडवोकेट प्रवीण कुमार भादरू से बातचीत की. भादरू ने इंद्र के चाचा किशोर की बात दोहराई. उन्होंने कहा, “पुलिस ने पूरी चार्जशीट में कहीं भी मटकी छूने पर इंद्र की पिटाई का तथ्य शामिल नहीं किया है. जांच में दो थ्योरी पेश की हैं, जिसमें एक में आरोपी शिक्षक द्वारा थप्पड़ मारने और दूसरी में इंद्र मेघवाल व सहपाठियों के बीच हुई मारपीट से चोट लगने का कारण चश्मदीद के बयानों में बताया गया है.”

भादरू ने आगे कहा, “प्रकरण जालौर एससी/एसटी कोर्ट में विचाराधीन है. केस की सुनवाई जल्दी हो इसके लिए जज पीयूष चौधरी ने एक आदेश जारी कर गत 20 फरवरी, 2023 से केस की प्रतिदिन सुनवाई के आदेश दिए थे, लेकिन बचाव पक्ष के वकील ने आदेश पर इससे पहले 16 फरवरी, 2023 को ही जोधपुर हाईकोर्ट से स्टे ले लिया.” 

सुराणा गांव में इंद्र मेघवाल प्रकरण के बाद बनाई गई स्थायी चौकी.

स्टे के बाद से मामले की सुनवाई की गति धीमी हो गई. पुलिस ने चार्जशीट में 78 गवाह बनाए हैं, जिनमें से अभी तक सिर्फ आठ गवाहों के बयान कोर्ट के समक्ष हो पाए हैं. पीड़ित पक्ष के बयान अभी तक दर्ज नहीं हुए हैं. बचाव पक्ष के वकील का मानना है कि ट्रायल में लग रहे समय को देखते हुए ही जोधपुर न्यायालय ने आरोपी की जमानत मंजूर की है, जिसको हम जोधपुर न्यायालय में चुनौती देंगे. इधर, आरोपी शिक्षक छैल सिंह अब जेल से बाहर है और फिर से सुराणा स्थित निजी स्कूल आकर पढ़ाने लगा है. हमने आरोपी शिक्षक छैल सिंह से बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने हमसे बात करने से मना कर दिया.

इधर, सुराणा गांव निवासी भौमिया राजपूत आईदान सिंह ने बताया कि मटकी छूने वाली बात झूठी है. स्कूल में दो बच्चों के बीच झगड़ा हुआ था, इसी झगड़े में इंद्र मेघवाल को चोट आई थी, वह बीमार भी था, जिसके बाद इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई. 

स्कूल के पास ही सब्जी की दुकान लगाने वाले शैतान सिंह कहते हैं, “मैंने उस स्कूल में आठ साल पढ़ाई की है. वहां पानी की एक टंकी है, जिससे सभी छात्र व टीचर पानी पीते थे. मटकी छूने से पिटाई की बात को वो भी सिरे से खारिज करते हैं. वहीं, संबंधित स्कूल के शिक्षकों ने इस मामले पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया. 

जितेन्द्र मेघवाल: 15, मार्च, 2022 

जालौर का पड़ोसी जिला है पाली. यहां के बारवा गांव में कथित तौर पर अच्छे कपड़े पहनने और मूंछ रखने के कारण 15 मार्च, 2022 को धारदार हथियार से गोदकर दलित युवक जितेन्द्र मेघवाल की हत्या कर दी गई थी. हत्या का आरोप गांव के ही सूरज सिंह और रमेश सिंह राजपुरोहित पर लगा. कथित तौर पर आरोपियों को जितेन्द्र का रहन-सहन और बराबरी से बात करना पसंद नहीं था. 

हम जब पाली के बारवा गांव पहुंचे तो जितेन्द्र मेघवाल के घर पर ताला लगा मिला. पड़ोसियों ने बताया कि जितेन्द्र का परिवार गांव छोड़कर जा चुका है. अब वो बाली तहसील मुख्यालय की अंबेडकर कॉलोनी में रहते हैं. 

पड़ोसी नारायण लाल सरेल ने बताया कि जितेन्द्र के परिवार ने करीब छह महीने पहले गांव छोड़ दिया. उन्होंने हमें परिवार का पता और जितेन्द्र के भाई का मोबाइल नंबर उपलब्ध कराया.

घटना के बारे में पूछने पर सरेल थोड़ा असहज हो गए. उन्हें डर था कि मीडिया से बात करते हुए उन्हें कोई देख न ले. वे हमें घर के अंदर ले गए और बताया, “जितेन्द्र की हत्या के बाद गांव में चौकी बन जाने से शांति है, लेकिन जातीय भेदभाव कम नहीं हुआ है. गांव में करीब 1500 परिवार हैं. इसमें 1100 के करीब मकान राजपुरोहितों (ब्राह्मण समुदाय) के हैं. मेघवालों के 250 परिवार व शेष अन्य जातियों के मकान हैं. गांव के किसी भी मेघवाल परिवार के पास कृषि योग्य जमीन नहीं है. इस घटना के बाद राजपुरोहितों ने दलितों को अपनी जमीनों पर काम देना बंद कर दिया है.” 

हालांकि गांव की सरपंच के पति चंदन सिंह का दावा है कि घटना के तुरंत बाद जरूर राजपुरोहितों ने अपने खेतों पर मेघवालों को काम देना बंद कर दिया था, लेकिन गांव वालों को समझाने के बाद अब कई राजपुरोहित ब्राह्मण अपने खेतों पर दलितों को काम दे रहे हैं.

सरेल कहते हैं, “एक जमाने से गांव के दलित रोजी-रोटी के लिए राजपुरोहितों पर आश्रित थे, उनके खेतों पर काम करते थे, इसके चलते जातीय भेदभाव झेलते थे. कई बार 15 से 20 दिन खेतों पर काम करने के बाद भी मजदूरी नहीं मिलती थी. अब-जब खेतों पर काम नहीं मिल रहा है तो वे आस-पास के कस्बों में मजदूरी के लिए जाते हैं.”

सरेल के घर से निकलकर हम पास ही स्थित हथाई (चौक) पर आ गए, जहां हमारी मुलाकात दलित समाज के कुछ बुजुर्गों से हुई. जितेन्द्र मेघवाल का जिक्र करने पर सब थोड़ा असहज हो गए. फिर एक ने कहा, “गांव में चौकी बनने से शांति है. वो (राजपुरोहित) अपने हाल में ठीक हैं. हम अपने हाल में व्यस्त है.” बुजुर्गों की झिझक से हमें समझ आया कि वो इस मामले पर बात करने से कतरा रहे थे. 

यहां से हम चंद कदमों की दूरी पर बारवा चौकी है जो जितेंद्र की मौत के बाद बनी है. वहां हमें दो पुलिसकर्मी मिले. लेकिन जितेन्द्र मेघवाल के परिवार को गांव क्यों छोड़ना पड़ा, इस सवाल का जवाब उनके पास भी नहीं था. 

इसी सवाल का जवाब तलाशते हुए हम बाली तहसील की अंबेडकर नगर कॉलोनी पहुंचे. यहां जितेंद्र मेघवाल के भाई ओमप्रकाश मेघवाल अपनी तीन बहनों, मां और बीमार पिता के साथ रहते हैं. 

ओमप्रकाश ने बताया, “गांव में हमारे घर के सामने ही चौक (चौराहा) है, जहां बस व दूसरे साधन आकर रुकते हैं. अक्सर आरोपी वहीं पर अड्डा जमाए नज़र आते थे. इससे हम असहज हो जाते थे. उस मकान में जितेन्द्र से जुड़ी यादें थीं. इससे मां और बहन अक्सर भावुक हो जाती थीं. इसलिए हमने गांव छोड़ने का फैसला लिया. अब हम नए मकान में रहने आ गए हैं.”

सरकार ने नहीं निभाया वादा

ओमप्रकाश ने बताया, “जितेन्द्र की मौत के बाद धरना प्रदर्शन में शामिल समाज के लोगों ने आरोपियों की तत्काल गिरफ्तारी, परिवार के लिए एक सरकारी नौकरी और 50 लाख रुपए की मांग रखी थी, जिसे स्थानीय जिला कलेक्टर व एसपी ने पूरा करने का आश्वासन दिया था.” 

वे आगे कहते हैं, “बारवा गांव स्थित घर पर सांत्वना देने आए कैबिनेट मिनिस्टर गोविंदराम मेघवाल व सामाजिक न्याय अधिकारिता विभाग मंत्री टीकाराम जूली ने भी परिवार को मांगें मानने का आश्वासन दिया था, लेकिन डेढ़ साल से अधिक समय हो गया है. लेकिन गिरफ्तारी छोड़कर हमारी एक भी मांग पूरी नहीं की गई है.”

जितेन्द्र की हत्या में नामजद दोनों अभियुक्त सूरज सिंह राजपुरोहित और रमेश सिंह राजपुरोहित फिलहाल न्यायिक अभिरक्षा के तहत जेल में हैं. 

प्रधान पति चंदन सिंह ने हमें बताया कि जितेन्द्र और आरोपी सूरज सिंह राजपुरोहित के बीच व्यक्तिगत लड़ाई थी. जितेन्द्र की ओर से सूरज पर जातिगत प्रताड़ना का मामला भी दर्ज किया गया था. इसी विवाद के चलते जितेन्द्र की हत्या हुई. लेकिन वह भी हमारे गांव का था. उसकी हत्या गलत हुई. हम इसकी निंदा करते हैं.

चंदन इस प्रकरण में दो जातियों के बीच किसी तरह की दुश्मनी जैसी बात से इनकार करते हैं. वे कहते हैं कि कुछ लोगों ने जानबूझकर इसे मीडिया के सामने दो जातियों के बीच दुश्मनी की तरह पेश किया, जिससे स्थिति बिगड़ी. लेकिन अब धीरे-धीरे हालात सुधर रहे हैं. 

वह आगे कहते हैं कि इस दुखद घटना से दोनों ही परिवारों को नुकसान उठाना पड़ा है, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती. वहीं, आरोपी के परिजनों ने मामले में कोई भी प्रतिक्रिया देने से मना कर दिया.

पीड़ित पक्ष के वकील कानाराम सोलंकी ने बताया कि प्रकरण पाली एससी/एसटी विशेष न्यायालय में विचाराधीन है. पुलिस ने चार्जशीट में 40 लोगों को गवाह बनाया है, जिनमें अब तक दो की गवाही कोर्ट के सामने हो गई है. रमेश सिंह राजपुरोहित द्वारा हाल में जोधपुर हाईकोर्ट में लगाई गई जमानत याचिका खारिज कर दी गई है.

कार्तिक भील हत्याकांड: 19 नवम्बर, 2022

पाली जिले से करीब 120 किलोमीटर दूर राजस्थान का सिरोही जिला है. जिले के शिवगंज तहसील निवासी आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता कार्तिक भील से 19 नवम्बर 2022 को मारपीट हुई थी. कार्तिक एक मामले में अपने एक परिचित आदिवासी परिवार की मदद के लिए गए थे. जिला पुलिस अधीक्षक व अन्य प्रशासनिक अधिकारियों से मिलने के बाद जब वह परिवार के साथ वापस लौट रहे थे तब जावला रोड पर उनके ऊपर यह हमला हुआ. बुरी तरह घायल कार्तिक को पहले स्थानीय अस्पताल फिर गुजरात के मेहसाणा में इलाज के लिए भर्ती कराया गया, जहां इलाज के दौरान एक दिसम्बर, 2022 को उनकी मौत हो गई.

मौत से पहले कार्तिक भील ने घायल अवस्था में ही सोशल मीडिया पर एक वीडियो पोस्ट किया था, जिसमें उन्होंने एक स्थानीय विधायक पर हमला करवाने का आरोप लगाया था. परिजनों ने बताया कि क्षेत्र में दलित और आदिवासियों की मुखर आवाज होने के कारण कार्तिक पर पहले भी कई बार हमले हो चुके थे.

कार्तिक की मौत के बाद से ही उनका परिवार सिरोही जिला मुख्यालय पर कलेक्ट्रेट के बाहर धरने पर बैठा है. परिजनों का आरोप है कि पुलिस स्थानीय विधायक के इशारे पर काम कर रही है. एफआईआर में विधायक को मुख्य साजिशकर्ता के तौर पर शामिल नहीं किया गया है. कार्तिक के परिवार की ओर से एफआईआर नहीं ली गई है. रूपाराम भील (परिचित जिसकी मदद के लिए कार्तिक गया था) की ओर से बलूठ थाने में मामला दर्ज कराया गया था, उसी रिपोर्ट में आईपीसी की 302 (हत्या) की धारा जोड़ दी गई.

कार्तिक भील के बुजुर्ग पिता कपूरा राम भील ने कहा, “कार्तिक से मारपीट के बाद हम बलूठ थाना गए थे, लेकिन पुलिस ने हमारी शिकायत नहीं दर्ज की.“ 

कपूरा राम ने आगे बताया कि कार्तिक जिस रूपाराम भील के साथ पैरवी के लिए गया था. उसी की दी रिपोर्ट में हत्या की धारा जोड़ दी. हमने चार मुख्य नामजद आरोपियों सहित चार अज्ञात नकाबपोश हमलावरों के खिलाफ रिपोर्ट दी थी, पुलिस ने सिर्फ दो युवकों को ही आरोपी बना कर चार्जशीट दाखिल कर दी. ये दोनों आरोपी जेल में हैं. उन्होंने स्थानीय विधायक को आरोपी तक नहीं बनाया. कपूरा राम ने मामले में सीबीआई जांच की मांग की है.

बलूठ थानाध्यक्ष दौलाराम ने बताया कि रूपाराम की रिपोर्ट में ही कार्तिक भील की मौत के बाद हत्या की धाराओं को जोड़ा गया है. उन्होंने इस मामले में न्यायालय में एक चार्जशीट पेश कर दी है. एक अन्य पूरक चार्जशीट पेश होनी बाकी है. इस संबंध में आरोपी राजूराम पुत्र देवाजी माली, प्रवीण पुत्र हीराजी माली, ढेपाराम पुत्र देवाराम माली, भागाराम माली और चार अज्ञात सहित कुल आठ लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था. 

कार्तिक भील की मौत के बाद जिला मुख्यालय स्थित कलेक्टरी परिसर में धरना दे रहे परिवार से मिलने देश और प्रदेश के कई सामाजिक संगठन सिरोही आ चुके हैं. 18 जुलाई, 2023 को भारतीय आदिवासी पार्टी के विधायक राजकुमार रोत के नेतृत्व में सिरोही जिला मुख्यालय पर कार्तिक भील को न्याय दिलाने के लिए एक विशाल धरना प्रदर्शन हुआ. इस दौरान पीड़ित परिवार को एक करोड़ का मुआवजा, सरकारी नौकरी, शिवगंज स्थित विवादित भूमि का पट्टा, मामले के सभी आठ आरोपियों की गिरफ्तारी व मामले की सीबीआई से जांच कराने की मांग रखी थी. जिला कलेक्टर ने सात दिनों के भीतर मांगों को पूरा करने का आश्वासन दिया था, लेकिन अब तक एक भी मांग पूरी नहीं की गई है.

जिला कलेक्टर डॉ. भंवरलाल ने हमें बताया, “शिवगंज स्थित भूमि जिस पर पट्टा मांगा जा रहा है. राजस्व रिकार्ड में आम रास्ता दर्ज है. हमने कार्तिक भील की पत्नी के नाम कस्बे में अन्य जगह भूखंड देने की पेशकश की है. इसके अलावा अन्य मांगों पर शासन स्तर पर विचार किया जा रहा है. आचार संहिता लगने से कार्रवाई में शिथिलता आई है.“

जैन चाहते हैं भील परिवार उनके बीच नहीं रहे

पूरे प्रकरण के केंद्र में शिवगंज कस्बा स्थित एक भूखंड है, जिस पर काबिज भील परिवार को वहां के स्थानीय लोगों से लेकर नगर पालिका प्रशासन हटाना चाहता है. कस्बे के जैन मोहल्ले में उस सवा सौ गज के प्लॉट पर अब एक अव्यवस्थित पक्का मकान तामीर हो चुका है, जिसमें कार्तिक भील अपने दो भाइयों और माता-पिता के साथ अलग-अलग रहते थे.

कार्तिक का परिवार उस भूखंड पर 1980 से काबिज है और मकान बनाकर रह रहा है. परिवार ने वर्ष 2000 में पट्टे के लिए नगर पालिका को आवेदन किया था, नगर पालिका ने 256 वर्ग फीट का पट्टा भी बनाया, लेकिन दस्तावेज पर पालिका अध्यक्ष ने हस्ताक्षर नहीं किए, जिसकी एक कॉपी परिवार के पास सुरक्षित है. इसके बाद उक्त विवादित जमीन पर बने मकान में 1989 में विद्युत कनेक्शन, 1990 में राशन कार्ड, 1995 में मतदाता सूची में नाम और वर्ष 2017 में स्वच्छ भारत मिशन शहरी के तहत शौचालय निर्माण के लिए राशि आवंटित की गई.

कार्तिक के भाई प्रवीण कुमार भील का आरोप है- “हमारा भूखण्ड जिस कॉलोनी में है. उसमें अधिकांश परिवार जैन समुदाय के हैं, स्थानीय विधायक जैन समाज से हैं. इसलिए हमें जानबूझकर पट्टा नहीं दिया जा रहा है जबकि हमारे आस-पास रह रहे जैन परिवारों को आसानी से पट्टे जारी कर दिए गए. यह हमारे साथ जातीय भेदभाव के कारण किया जा रहा है.”

प्रवीण ने आगे बताया कि हम आदिवासी समाज से हैं. मेरा भाई कार्तिक इस भेदभाव के लिए संघर्ष कर रहा था. इसलिए उसकी हत्या की गई. 

इस मामले में हमारी टीम ने स्थानीय विधायक संयम लोढ़ा का पक्ष जानना चाहा, लेकिन कई बार कोशिश के बावजूद उनसे बात नहीं हो सकी.

दलित-आदिवासियों पर अपराध में 22 प्रतिशत की वृद्धि!

इंद्र मेघवाल, जितेंद्र मेघवाल या फिर आदिवासी कार्तिक भील, राजस्थान में दलित-आदिवासियों के खिलाफ हमले की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. राजस्थान पुलिस महकमे से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत वर्ष 2017 से 2023 के बीच कुल 56,879 मामले दर्ज किए गए हैं. जिनमें 2017 में 4,532, 2018 में 5,478, 2019 में 8,472, 2020 में 8,811, 2021 में 9,472, 2022 में 11,054 व 2023 में अब तक 9,060 मामले सामने आए हैं. यानी साल दर साल इस तरह के अपराध बढ़े हैं. 2018 से 2022 तक की अवधि में दलित-आदिवासियों के खिलाफ अपराधों में 22.56% की औसत वृद्धि दर्ज हुई है. 

दलित-आदिवासी मामलों के जानकार भंवर मेघवंशी ने बताया कि राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम के पाली, सिरोही, जालौर, जोधपुर, बाड़मेर आदि जिलों में अभी भी छुआछूत और जातीय भेदभाव चरम पर होता है. इसके चलते यहां पर दलित प्रताड़ना के मामले सबसे ज्यादा रिपोर्ट किए जाते हैं. इसके उलट शेखावटी क्षेत्र के चुरू, झुंझुनूं, सीकर आदि जिलों में छुआछूत या जातीय भेदभाव बहुत कम है. लेकिन यहां जमीनों को लेकर ज्यादा विवाद होते हैं, जिनमें बहुत ही नृशंस तरीके से दलितों की हत्या के मामले सामने आए हैं.

दक्षिणी-पूर्वी आदिवासी बहुल इलाकों में जातीय प्रताड़ना के मामले काफी कम हैं क्योंकि इन इलाकों का सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य राज्य के अन्य क्षेत्रों से पूरी तरह अलग है. इन इलाकों में दलित जनसंख्या भी कम है.  

2011 की जनगणना के अनुसार, राजस्थान में अनुसूचित जातियां- जैसे मेघवाल, वाल्मीकि, जाटव, बैरवा, खटीक, कोली, और सरगारा आदि, कुल आबादी का करीब 17.83 प्रतिशत हैं जबकि राजपूत और ब्राह्मण क्रमशः 9 और 7 प्रतिशत हैं. जातिगत टकराव की स्थितियां भी अलग-अलग होती हैं. पश्चिमी राजस्थान में मुख्य टकराव मेघवालों और राजपूतों तथा प्रमुख ओबीसी के बीच है. पाली, बाड़मेर, जालौर, सिरोही और नागौर, भीलवाड़ा झुंझुनूं में भू संबंधी विवाद मुख्य कारण है. शिक्षा का स्तर सुधारने के साथ ही दलित युवाओं में सामाजिक, राजनीतिक चेतना आई है, जिससे वह अपने अधिकारों की बात करने लगा है. अक्सर यह बात कथित ऊंची जातियों के अहम से टकराव का कारण बन जाती है.  

47 प्रतिशत मामलों में लग जाती है एफआर

राजस्थान पुलिस ने एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989, के तहत वर्ष 2017 से 2023 के बीच कुल दर्ज 56,879 मामलों में से 26,801 मामलों में फाइनल रिपोर्ट (एफआर) लगा दी है. यह करीब 47 प्रतिशत से ज्यादा है. इसी प्रकार 25,762 मामलों में न्यायालय में चार्जशीट दाखिल की गई है जो कि लगभग कुल आंकड़ों का 45.14 प्रतिशत है, जबकि 7.6 प्रतिशत मामले पेंडिंग हैं, जिनकी संख्या 4,316 है. (19 अक्टूबर, 2023 को उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार) 

सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी सत्यवीर सिंह के मुताबिक आजादी से पहले राजस्थान में लंबे समय तक सामंती व्यवस्था रही है, शिक्षा का अभाव रहा. जातीय मुद्दों पर समझ देरी से बनी. इसका प्रभाव पुलिसिंग पर भी पड़ा है. एससी एसटी एक्ट में दर्ज मामलों में बड़े पैमाने पर एफआर लगने का कारण जांच कर रहे पुलिस अधिकारियों का संवेदनशील नहीं होना है. 

दूसरा बड़ा कारण सामाजिक ताना-बाना है, जहां आरोपी पक्ष पीड़ित परिवार पर कई तरीके से समझौता करने का दबाव बनाता है, उसमें पीड़ित के रिश्तेदार से लेकर पड़ोसी व स्थानीय प्रभावशाली लोग शामिल होते हैं. आर्थिक, सामाजिक व पारिवारिक दबाव के चलते कई मामलों में पीड़ित दलित व आदिवासी आरोपी पक्ष से समझौता कर लेते हैं. इसलिए अधिकांश मामलों में एफआर (फाइनल रिपोर्ट) लग जाती है. 

सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी सत्यवीर सिंह

झूठे नहीं होते एससी/एसटी के मामले

दलित सिविल सोसायटी संस्था के सदस्य अधिवक्ता ताराचंद वर्मा के मुताबिक पुलिस महकमा दलित आदिवासियों पर एफआईआर के आंकड़े के साथ फाइनल रिपोर्ट (एफआर) व चार्जशीट का आंकड़ा जारी करता है. बहुत ही चालाकी से एफआर के आंकड़ों को पेश किया जाता है, जिससे यह संदेश जाए कि यह मामले झूठे हैं, जबकि एफआर के आंकड़ों का विश्लेषण कर एफआर पेश करने के कारणों को इंगित किया जाए तो यह धारणा बदलने में मदद मिलेगी कि एससी एसटी एक्ट के तहत दर्ज मामले झूठे नहीं होते हैं. 

हालांकि, एक तथ्य यह भी है कि पुलिस के पास हर दिन कई तरह की शिकायतें और मामले आते हैं. उन मामलों में पुलिस विवेचना यानी जांच करती है. जब किसी मामले में चालान की फाइनल रिपोर्ट में यह साबित हो जाता है कि वह रिपोर्ट झूठी है तो वो खारिज हो जाती है. इसे दस्तावेजी भाषा में अदम वकू (झूठी) या अंग्रेजी में ईआर (ER) लिखा जाता है. इसमें झूठी रिपोर्ट करने वाले को आरोपी मानकर उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 182 (भारतीय दंड संहिता की धारा 182) और 211 के तहत मामला दर्ज होता है. 

उल्लेखनीय है कि एससी/एसटी एक्ट के तहत जिन मामलों में एफआर लगाई गई है. ऐसे मामले झूठे पाए जाने पर एफआईआर करने वाले पर आईपीसी की धारा 182 व 211 के तहत मामला दर्ज नहीं किया जाता. 

अधिवक्ता ताराचंद वर्मा कहते हैं कि इसका बड़ा कारण है कि पुलिस स्वयं एससी/एसटी के तहत दर्ज मामलों में निष्पक्ष जांच की बजाए पीड़ित और आरोपी पक्ष के बीच समझौता कराने में लग जाती है. पीड़ित और गवाहों पर अनैतिक दबाव बनाया जाता है. फिर गवाह और पर्याप्त सबूत नहीं होने पर एफआर लगा दी जाती है. इसी के चलते पुलिस वाले आईपीसी की धारा 182 व 211 में झूठी रिपोर्ट दर्ज कराने के खिलाफ मुकदमा नहीं लिखते.

बहुत कम मामलों में मिल पाती है सजा

राजस्थान में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कुल 36 विशिष्ठ न्यायालय हैं. इनमें 9 न्यायालयों बारां, सवाई माधोपुर, जोधपुर, जयपुर, सीकर, राजसमंद, चित्तौड़गढ़ चुरू एवं जालौर में नियमित सरकारी अधिवक्ता हैं जबकि शेष 27 न्यायालय में विधि एवं विधिक कार्य विभाग की ओर से लोक अभियोजक (सरकारी वकील) को मनोनीत किया जाता है. 

वर्तमान में एससी/एसटी कोर्ट में 20,492 प्रकरण विचाराधीन हैं या कोर्ट में लंबित हैं. इनमें जून 2023 तक अनुसूचित जाति के 16,020 व अनुसूचित जनजाति के 4,472 प्रकरण हैं. सभी न्यायालयों का दोषसिद्धि प्रतिशत 2020 में 27.49, 2021 में 22.26 एवं 2022 में 22.38 प्रतिशत रहा है.

जयपुर स्थित दलित अधिकार केन्द्र के निदेशक सतीश कुमार ने बताया कि राजस्थान में दो तरीके के लोक अभियोजक (सरकारी वकील) हैं. एक जो अभियोजन विभाग के हैं, सरकारी हैं, अनुभवी और प्रशिक्षित हैं. दूसरे विधि एवं विधिक कार्य विभाग द्वारा राजनीतिक पार्टियों की अनुशंसा से नियुक्त किए जाते हैं. ये अधिवक्ता न तो प्रशिक्षित होते हैं न ही उनकी कोई जवाबदेही होती है. इसके चलते प्रताड़ना के मामलों में प्रभावी पैरवी नहीं हो पाती और आरोपी न्यायालय से बरी हो जाते हैं. इसी के चलते दोष सिद्धि का प्रतिशत कम रहता है. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से यह 22 से 24 प्रतिशत है, लेकिन वास्तव में आंकड़ा इससे भी काफी कम है.

सरकार गंभीर नहीं, लेकिन दलितों को अब अपमान बर्दाश्त नहीं!

एससी-एसटी एक्ट के प्रभावी पालन को लेकर सरकार और पुलिस का रवैया उदासीन नजर आता है. ऐसा इसलिए क्योंकि एक्ट में निहित अत्याचार के निवारण के लिए सुझाए गए उपायों को लागू नहीं किया जा रहा है. आलम यह है कि एक्ट के तहत गठित उच्च शक्ति राज्य स्तरीय सतर्कता एवं मॉनिटरिंग समिति, जिसके अध्यक्ष मुख्यमंत्री अशोक गहलोत स्वयं हैं, उसकी बैठक 13 साल बाद हुई, जबकि साल में दो बार बैठक होना अनिवार्य है. 

इसके लिए जयपुर हाईकोर्ट ने साल 2015 में एक आदेश भी दिया था, जिसका पालन नहीं किया गया. इसके अलावा जिला व ब्लॉक स्तर पर भी समितियां निष्क्रिय हैं. इसी प्रकार जिला स्तर पर जागरूकता केंद्र खोले जाने थे, लेकिन एक भी जागरूकता केंद्र अब तक शुरू नहीं किया गया है. 

राजस्थान में आजादी के बाद धीमी आर्थिक वृद्धि और इसी कारण से शिक्षा और सामाजिक परिवर्तन में पिछड़ जाने की वजह से दलित आदिवासियों पर अत्याचार के मामले सामने आते रहते हैं. इसका एक और पहलू यह भी है कि जाति-आधारित अपराधों या भेदभाव के मामले में लोग अब खुलकर बोलने और पुलिस से संपर्क करने में झिझक नहीं कर रहे हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी

सामाजिक कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी का मानना है कि बढ़ती जागरूकता और सोशल मीडिया के आगमन से युवाओं को कानूनी मदद के जरिए इन अत्याचारों का मुकाबला करने में मदद मिल रही हैं. 

जालौर जिले के दलित सामाजिक कार्यकर्ता भगवाना राम ने बताया कि राजस्थान में अधिकांश नौकरियां पर्यटन व खनन उद्योग पर आधारित हैं और पारंपरिक व्यवसाय में अभी भी सामाजिक समीकरण हावी हैं. राज्य में महानगरीय क्षेत्रों की कमी के साथ-साथ आवाजाही की उच्च लागत आर्थिक गतिशीलता में बाधा डालती है और लोग शायद ही कभी अपनी पारंपरिक अलग-अलग घेराबंदी वाली रिहायश से बाहर निकलते हैं. इसके चलते सवर्ण समुदाय अपनी प्रकृति में अपेक्षाकृत अधिक जातिवादी है, लेकिन दलित युवा अब ज्यादा मुखर और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रहा है. 

उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि मेरे गांव में आठ हजार परिवार हैं, जिनमें 600 परिवार दलित मेघवाल समाज के हैं. दलित समाज से आने वाले अधिकांश लोग सवर्ण समाज के खेतों पर काम करते थे जो अब नहीं करते. वे रोजगार की तलाश में पास के जिलों में जाते हैं.

सोशल मीडिया से बढ़ी एकजुटता

जालौर जिले के स्थानीय दलित पत्रकार दिलीप सोलंकी ने बताया कि सोशल मीडिया से उत्पीड़न के मामलों को लोगों की निगाह में लाने में मदद मिलती है. ऐसे वीडियो जल्दी वायरल हो जाते हैं और फिर पुलिस और प्रशासन को इन मामलों को गंभीरता से लेना पड़ता है. आजकल, पुलिस तक मामले को पहुंचाने के लिए किसी भी अपराध का सिर्फ एक वीडियो ही चाहिए और फिर मामला दर्ज कर लिया जाता है. अब एफआईआर दर्ज करवाने के लिए लोगों की भीड़ जुटाने की जरूरत नहीं पड़ती है.

भीम आर्मी प्रदेश प्रभारी अनिल धेनवाल ने बताया कि आज हमारे पास फोन हैं. हम वीडियो को एसपी और डीएम को भेजते हैं. कम से कम उन्हें घटना का पता चल जाता है. मेरे पिता या दादा में तो अधिकारियों तक जाने का आत्मविश्वास भी नहीं होता था. एसपी तथा डीएम तक पहुंच से हमें बहुत हौसला मिलता है.

वहीं, भंवर मेघवंशी का कहना है कि सोशल मीडिया से जातीय भेदभाव से लड़ने की ताकत जरूर मिली है लेकिन कई बार यह हेट स्पीच को बढ़ाने में मददगार साबित होता है. इससे कई बार जाति और धर्म विशेष में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है.

बढ़ते आंकड़ों पर राजस्थान पुलिस का नजरिया

प्रदेश के डीजीपी (एसआरबी व साइबर क्राइम) क्राइम रवि प्रकाश मेहरदा कहते हैं कि पहले दलित लोग अपनी शिकायतें दर्ज भी नहीं कराते थे. एफआईआर के बारे में राज्य की नई नीति के साथ ही अब हम उन्हें आगे आता हुआ देख रहे हैं. इससे दूसरे राज्यों की तुलना में राजस्थान में एससी/एसटी के मामले बढ़े हुए नजर आते हैं. 

एडीजीपी सिविल राइट्स स्मिता श्रीवास्तव कहती हैं, “2019 के बाद से हमने अपने सिपाहियों को एक अनिवार्य कोर्स और परीक्षा की ट्रेनिंग भी देनी शुरू कर दी है ताकि पुलिस विभाग में हमारे पास जांच अधिकारियों की संख्या बढ़ जाए. सबूत पेश करने के नए तरीकों के लिए मामले सुलझाने की नई तकनीक की भी जरूरत है, जिस पर काम किया जा रहा है. पुलिसकर्मियों को सेंसेटाइज भी किया जा रहा है.”

नोट: यह रिपोर्ट 'एनएल-टीएनएम इलेक्शन फंड' के हिस्से के रूप में प्रकाशित की गई है. फंड में योगदान देने के लिए यहां क्लिक करें. न्यूज़लॉन्ड्री और मूकनायक एक साझेदार के रूप में आप तक यह रिपोर्ट लाएं हैं. मूकनायक को समर्थन देने के लिए यहां क्लिक करें.

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