बांग्लादेश की बिगड़ती जलवायु से भारत को खतरा क्यों है? 

बांग्लादेश में विस्थापितों को बसाने के लिये पर्याप्त उपयुक्त जमीन नहीं है. कृषि और रोजगार चौपट होने से यह शरणार्थी भारत का रुख कर रहे हैं.

WrittenBy:हृदयेश जोशी
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बांग्लादेश की राजधानी ढाका से करीब 70 किलोमीटर दूर शरियतपुर जिले में पद्मा नदी का बहाव और विस्तार इतना विशाल हो जाता है कि वह समंदर में होने जैसा एहसास कराती है. मॉनसून में पद्मा अपने तट के आसपास सबकुछ डुबो देती है और इस कारण होने वाला भू-कटाव (इरोज़न) कई लोगों के लिए बार-बार विस्थापन की वजह बनता है. 

शरियतपुर के नरिया उप-जिले में कुंदेर चौर द्वीप इसकी एक मिसाल है, जहां 7,000 से अधिक ऐसे शरणार्थी हैं जो पिछले दो दशकों में बार-बार बेघर हुए हैं. यह द्वीप नदी द्वारा धीरे-धीरे यहां लाई गई मिट्टी से बना है (नदी भूकटाव करती है तो मिट्टी के जमाव से भू-निर्माण भी) और यहां रहने वाले लोग पिछले 15 सालों में यहां आकर बसे हैं.

बार-बार विस्थापन की मार

करीब दो घंटे तक नाव की सवारी कर जब में मैं कुंदेर चौर पहुंचा, तो यहां बने घरों को देखकर लोगों की बेबसी का एहसास हुआ. सारे घर ज़मीन से कुछ फुट ऊपर उठाकर बनाए गए हैं ताकि बाढ़ का पानी निकल सके. फिर भी कुछ लोगों को मॉनसून में ऊपरी मंजिलों पर जाना पड़ता है.

यहां मेरी पहली मुलाकात 23 साल की शर्मिन अख़्तर से हुई. इस छोटी सी उम्र में शर्मिन अब तक आठ बार विस्थापित हो चुकी हैं.

वह कहती हैं, “बार-बार नदी के कारण भू-कटाव से हमारे गांव बह जाते हैं. अभी हम यहां बसे हैं लेकिन इस इधर भी कई दिक्कतें हैं. जाने कब यहां से भी फिर उजड़ना होगा.”

शर्मिन के पति यहां से दूर शहर में मज़दूरी करते हैं, जबकि शर्मिन के साथ रह रहे दो बच्चों का भविष्य अनिश्चित है. शर्मिन की तरह दीपा भी अपना घर उजड़ने के बाद यहां आईं. जब भी वह आसमान में उमड़ रहे बादलों को देखती हैं, उनका दिल घबराता है.

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शरियतपुर जिले के कुंदेर चौर में रह रहीं 23 साल की शर्मिन अख्तर अब तक आठ बार विस्थापित हो चुकी हैं. उनके दो बच्चों का भविष्य अनिश्चित है. 

वह कहती हैं, “बरसात का मौसम आ गया है. 10-15 दिन बाद पद्मा का पानी यहां भर जाएगा और जलस्तर कमर तक हो जाएगा. तब घर से निकलना मुश्किल हो जाएगा. यहां हमारे पास वॉशरूम भी नहीं है, हम अस्थायी शौचालय का उपयोग करते हैं. यहां नल में अभी जो पानी आ रहा है, वह भी कुछ दिनों में बंद हो जाएगा. फिर हमें दूर से पानी लाना पड़ता है, जिससे हम खाना बना पाते हैं.”

ढाका के जिन पत्रकारों के साथ मैं यहां पहुंचा हूं, वे अलग-अलग लोगों का कष्ट जान रहे हैं. अज़ीज़उर्रहमान जिदनी मुझे 30 साल के शिन्टू से मिलवाते हैं, जिनके पास रहने को घर ही नहीं है.

जिदनी कहते हैं, “इनका घर पिछले साल नदी में बह गया. अभी इनके पास घर नहीं है. ये कभी इसके घर में रहते हैं तो कभी उसके घर में. इनके पांच बच्चे हैं, लेकिन वह स्कूल नहीं जा रहे क्योंकि यहां स्कूल नहीं है. स्वास्थ्य सुविधाओं और साफ सफाई का भी यहां यही हाल है.”

क्लाइमेट प्रभाव से बढ़ती विस्थापितों की संख्या

कुंदेर चौर अकेली जगह नहीं है जहां जलवायु शरणार्थी बसे हैं. बांग्लादेश के कई इलाकों में आज ऐसे विस्थापितों की भीड़ है और इनकी संख्या जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण लगातार बढ़ रही है.

क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क (दक्षिण एशिया) की प्रोग्राम कॉर्डिनेटर रुशाती दास कहती हैं कि क्लाइमेट चेंज से इन लोगों की समस्या बढ़ रही है क्योंकि पहले मॉनसून तीन चार महीनों में धीरे-धीरे बरसता था. अब तो सारा पानी 15 या 20 दिनों में ही आ जाता है. जिससे पद्मा नदी में पानी बहुत बढ़ जाता है और भू-कटाव होता है, जिससे यह लोग प्रभावित होते हैं.

वह आगे बताती हैं, “आप देख सकते हैं कि यहां कैसे लोगों ने घर जमीन से एक-दो फुट ऊपर उठा कर बनाए हैं. अगर चरम मौसमी घटना के कारण भारी बरसात हुई तो फिर यहां बाढ़ आना तय है. इन्हें फिर अपना घर छोड़ना पड़ेगा. फिर यहां से हटकर वहां जाना होगा जहां शायद न खेती करने की जमीन हो, न कोई रोज़गार ही मिले.”

कुंदेर चौर में रह रहे लोगों के पास भले ही स्कूल और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं न हों, लेकिन इन टापुओं पर रहने के लिए भी आर्थिक भरपाई करनी पड़ती है.

पद्मा नदी का प्रवाह बार-बार इन लोगों की जमीन बहा ले जाता है. जानकार कहते हैं कि जलवायु शरणार्थियों के बढ़ने का प्रभाव भारत को भी झेलना पड़ेगा.

ढाका स्थित सेंटर फॉर पार्टिसिपेटरी रिसर्च एंड डेवलपमेंट के चीफ एक्ज़क्यूटिव मोहम्मद शम्सुद्दोहा कहते हैं, “यह (कुंदेर चौर) इन विस्थापितों का अस्थाई बसेरा है, लेकिन यह लोग इस जमीन के मालिक नहीं हैं. यह जमीन कुछ अमीर लोगों की है, जो हर परिवार से सालाना लगभग 10 हजार टका किराया लेते हैं. यहां कृषि या रोजगार नहीं है. परिवार के पुरुष कहीं और जाकर रहते हैं, जहां वह मजदूरी या छोटा-मोटा व्यापार करते हैं.”

पैंतीस साल के जुल्हास और उनके साथियों ने अलग ही रोजगार चुना है. वह पद्मा के तट पर नाव से पहुंचने वाले लोगों को अपनी मोटरसाइकिल पर गांव तक लाते हैं और इस तरह हर रोज 200 से 300 टका कमाते हैं, लेकिन यह कमाई जीवन चलाने के लिए काफी नहीं है.

शम्सुद्दोहा कहते हैं, “दुख की बात यह है कि यहां कोई सरकारी प्राइमरी स्कूल तक नहीं है. एक या दो प्राइवेट स्कूल हैं, जिसके लिए एक परिवार को 100 से 500 टका तक फीस देनी पड़ती है. यहां कोई स्वास्थ्य सुविधा भी नहीं है और बीमार होने पर लोगों को पास में दूसरे गांव या थाना क्षेत्र में जाना पड़ता है.”

बढ़ते शरणार्थी पर बसाने के लिए जगह नहीं  

आज बांग्लादेश के कई हिस्से पानी में डूब रहे हैं। समुद्र जलस्तर के उठने और नदियों द्वारा होने वाले भू-कटाव के कारण यहां विस्थापितों की संख्या लगातार बढ़ रही है. चक्रवाती तूफानों की मार समस्या को और बढ़ाती है, जिस कारण से बांग्लादेश को दुनिया के सबसे अधिक संकटग्रस्त देशों में रखा गया है. यहां की राजधानी ढाका और बड़े शहरों में एक चिटगांव धंस रहे हैं.

जर्मनवॉच ने 2021 में ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स में इस देश को दुनिया के सबसे अधिक संकटग्रस्त देशों की सूची में सातवें स्थान पर रखा था. विश्व बैंक के मुताबिक, 2022 में बांग्लादेश में 71 लाख जलवायु शरणार्थी थे और 2050 तक इनकी संख्या 1.33 करोड़ तक हो सकती है. 

बांग्लादेश में एक बड़ी समस्या जलवायु प्रभावों के कारण उजड़ रहे लोगों को बसाने के लिए उपयुक्त जमीन न होने की है. 

जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ और ढाका स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज एंड डेवलपमेंट में डिप्टी डायरेक्टर मिज़ान आर ख़ान कहते हैं, “हमारे देश में जलवायु शरणार्थियों की संख्या लगातार बढ़ रही है लेकिन उन्हें बसाने के लिए उपयुक्त जगह का अभाव है. इसके अलावा हमारे पास 10 लाख रोहिंग्या शरणार्थियों का बोझ भी है, जो संसाधनों पर एक अतिरिक्त दबाव है.”

बांग्लादेश के संकट से भारत पर प्रभाव

अगर जलवायु संकट बढ़ा तो इसका असर पूरे दक्षिण एशिया पर होगा. सबसे बड़ा देश होने के कारण विस्थापितों का रुख भारत की ओर होना तय है. एशियन डेवलपमैंट बैंक के मुताबिक, पड़ोसी देशों में क्लाइमेट चेंज के प्रभावों के कारण भारत में कानूनी और गैर-कानूनी दोनों प्रकार से पलायन बढ़ेगा. यह पलायन स्थाई और अस्थाई दोनों तरह का हो सकता है. बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थी या विस्थापित सबसे पहले पश्चिम बंगाल, असम और त्रिपुरा में आ रहे हैं.

शम्सुद्दोहा कहते हैं, ‘कुछ लोग पैसा लेकर दक्षिणी सीमा से भारत में पलायन करा रहे हैं.’

उनके मुताबिक, “(बार बार उजड़ रहे लोग) अस्थाई रोजगार पाने के लिए बांग्लादेश से भारत जाते हैं, और इसके लिए उनसे 3,000 से 4,000 टका तक लिया जाता है. यह लोग वहां से (अपने परिवार के लिए) पैसा भेजते हैं या पैसा कमा कर लौटते हैं.”

भारत में बांग्लादेशी शरणार्थियों का मुद्दा पहले ही राजनीतिक रूप से काफी गर्म है. असम और पश्चिम बंगाल में इसके कारण टकराव और हिंसा की घटनाएं होती रही हैं. जलवायु संकट सीमा पार करने वाले विस्थापितों की संख्या बढ़ाएगा. शम्सुद्दोहा मानते हैं कि लोगों का इस तरह सीमा पार जाना दोनों देशों के बीच ‘तनाव बढ़ा सकता है’ क्योंकि यह ‘आंतरिक सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा’ है.

बांग्लादेश से ही नहीं, नेपाल, श्रीलंका और मालदीव जैसे देशों में भी क्लाइमेट प्रभावों से उजड़ने और रोजगार खोने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है. क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया और एक्शन एड की रिपोर्ट कहती है कि 2050 तक पूरे दक्षिण एशिया में जलवायु विस्थापितों की संख्या 6.2 करोड़ होगी. इनमें से बहुत सारे लोग भारत में पलायन करेंगे. ऐसे में दक्षिण एशिया में बढ़ते जलवायु प्रभावों के कारण भारत में उथल-पुथल की स्थिति पैदा हो सकती है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक करीब 50 लाख लोग देश के भीतर क्लाइमेट चेंज प्रभावों के कारण पहले ही विस्थापित हो चुके हैं. 

रोजगार कौशल से मिलेगा हल 

विशेषज्ञ मानते हैं कि शिक्षा और तकनीकी कौशल जलवायु विस्थापन से पैदा होने वाली समस्या का हल हो सकता है.

बांग्लादेश सरकार गरीब और वंचित तबके के लोगों को तकनीकी प्रशिक्षण दे रही है ताकि वह दूसरे देशों में काम के लिए जा सकें.

मिज़ान ख़ान कहते हैं, “कई देश ऐसे हैं जहां जनसंख्या बहुत कम है और कुशल कामगारों की जरूरत है. यह मांग आने वाले दिनों में बढ़ेगी. मिसाल के तौर पर यूरोप में कुशल वर्कफोर्स चाहिए जिसकी भरपाई बांग्लादेश और साउथ एशिया के अन्य मुल्क कर सकते हैं.” 

सामाजिक क्षेत्र में काम कर रही शरियतपुर डेवलपमेंट सोसायटी ने 2016 में कौशल विकास के लिए एक प्रशिक्षण संस्थान स्थापित किया. बांग्लादेश सरकार की मदद से सोसायटी स्थानीय लड़के-लड़कियों को यहां मोबाइल फोन, रेफ्रिजेरेशन, प्लमिंग और एयर कंडीशन से जुड़े काम सिखा रही है. 

सोसायटी के संस्थापक सदस्य और सेंटर के सचिव मुजीब-उर्रहमान कहते हैं, “हर साल 400 से 500 कुशल लड़के-लड़कियां यहां से निकलते हैं. इनकी संख्या आने वाले दिनों में बढ़ेगी. अब हम लड़कियों को नर्सिंग की ट्रेनिंग दे रहे हैं.”

मुजीब बताते हैं कि यहां से निकलने वाले छात्र ढाका जाकर काम करते हैं. इसके अलावा मिडिल ईस्ट के देशों, मलेशिया और यूरोप में काम के लिए जा रहे हैं. मिज़ान के मुताबिक यह जलवायु विस्थापन से निपटने का प्रभावी तरीका होगा जब कुशल कामगार उन जगहों पर पहुंचें जहां वर्कफोर्स की कमी है. 

मुजीब कहते हैं, “गरीब अकुशल शरणार्थियों को कोई नहीं लेना चाहेगा लेकिन कुशल कामगारों की मांग दुनिया के हर देश में रहेगी.”

साभार- कार्बन कॉपी

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