आपराधिक मानहानि: प्रेस के खिलाफ अक्सर इस्तेमाल होने वाली धारा की समस्याएं व मिसालें

वायर-मेटा गाथा के बाद पुलिस की कार्रवाई और न्यूज़ वेबसाइट की प्रतिक्रिया, दोनों पर सवाल उठते हैं.

WrittenBy:तनिष्का सोढ़ी
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हाल ही में भाजपा नेता अमित मालवीय द्वारा द वायर पर आपराधिक साजिश, धोखाधड़ी और जाली दस्तावेजों के माध्यम से अपनी और अपनी पार्टी की प्रतिष्ठा को खराब करने का आरोप लगाने के बाद, दिल्ली पुलिस ने न्यूज़ पोर्टल के कार्यालय और उसके पांच कर्मचारियों के घरों की तलाशी ली.

मालवीय की शिकायत के बाद, पोर्टल ने आरोप लगाया था कि उसके सलाहकार देवेश कुमार पोर्टल की निरस्त हो चुकी मेटा रिपोर्ट्स में सबूत के तौर पर इस्तेमाल किए गए "दस्तावेजों को बनाने और जालसाजी" के पीछे थे. कुमार से दिल्ली पुलिस ने 5 नवंबर को पूछताछ की.

पुलिस की कार्रवाई और रिपोर्ट में कमियों पर द वायर की प्रतिक्रिया, दोनों पर ही सवाल उठाए गए हैं. क्या पुलिस कार्रवाई केवल मानहानि की एक निजी शिकायत पर आधारित थी? क्या धोखाधड़ी और जालसाजी जैसे संज्ञेय अपराधों के मामले में इस तरह की छापेमारी और जब्ती उचित है? संपादकों को  किन मामलों में जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? क्या नौकरी देने वाले धूर्त कर्मचारियों के कामों के लिए जिम्मेदार हैं? और क्या द वायर वृतांत, मीडिया की स्वतंत्रता को कुचलने के लिए सिर्फ एक और मानहानि की गाथा है?

भारत जैसे देश में जहां मानहानि सिविल और आपराधिक दोनों हो सकती हैं, हम आम तौर पर प्रेस के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने वाले प्रावधान की समस्याओं और मिसालों पर भी एक नज़र डालेंगे.

तकनीकी दिक्कत?

पिछले हफ्ते द वायर द्वारा अपने पाठकों से माफ़ी मांगने के बाद, मालवीय ने एक बयान में कहा था कि वह न केवल एक आपराधिक प्रक्रिया शुरू करेंगे, बल्कि वेबसाइट पर एक सिविल कोर्ट में मुकदमा भी करेंगे. इसके बाद पुलिस को दी अपनी शिकायत में उन्होंने मानहानि, जो एक गैर-संज्ञेय अपराध है, के साथ-साथ धोखाधड़ी और धोखाधड़ी के मकसद से जालसाजी जैसे संज्ञेय अपराधों का भी उल्लेख किया.

वकील रेबेका जॉन ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि पुलिस इस तरह से सभी आपराधिक मानहानि की शिकायतों की जांच नहीं कर सकती है. एमजे अकबर द्वारा प्रिया रमानी के खिलाफ दायर आपराधिक मानहानि मामले में उनका प्रतिनिधित्व करने वाली रेबेका ने कहा, "अगर यह एक निजी शिकायत है, तो पुलिस इसकी जांच नहीं कर सकती ... इस मामले में, वे अन्य धाराओं पर ध्यान देंगे."

एक निजी शिकायत, पुलिस के अलावा किसी अन्य सक्षम प्राधिकारी के सामने कार्रवाई की मांग करते हुए प्रस्तुत की जाती है. लेकिन सीआरपीसी की धारा 155(4) के अनुसार, यदि कोई मामला दो या दो से अधिक अपराधों से संबंधित है, जिनमें से कम से कम एक संज्ञेय है, तो इसे पुलिस द्वारा जांच के लिए एक संज्ञेय मामला माना जाएगा. इसका अर्थ है कि यदि मालवीय के बयान में अन्य संज्ञेय अपराध न होते हुए केवल मानहानि से संबंधित धारा 500 होती, तो यह मजिस्ट्रेट के समक्ष एक निजी शिकायत हो सकती है.

2017 में मद्रास उच्च न्यायालय ने दोहराया था कि आपराधिक मानहानि की शिकायत सीधे पुलिस को नहीं की जा सकती, और पुलिस को ऐसी शिकायत के आधार पर प्राथमिकी दर्ज करने का कोई अधिकार नहीं है.

2016 में उच्चतम न्यायालय ने भी कहा था कि मजिस्ट्रेट पुलिस को एक निजी आपराधिक मानहानि शिकायत की जांच करने के लिए नहीं कह सकता है. अदालत ने कहा था कि शिकायतकर्ता को ही मामले को साबित करना पड़ेगा, और ये भी कहा कि आपराधिक मानहानि के आरोपों में पुलिस की कोई भूमिका नहीं है और वह प्राथमिकी दर्ज नहीं कर सकती है.

रेबेका ने कहा, "हाल के दिनों में आपराधिक मानहानि का इस्तेमाल उत्पीड़न के एक औजार की तरह किया गया है. जब मैं एक युवा वकील के रूप में प्रशिक्षण ले रही थी तो मेरा ऑफिस हमेशा ग्राहकों को आपराधिक मानहानि के मामले दर्ज करने के लिए प्रोत्साहित नहीं करने को कहता था. लेकिन पिछले कुछ सालों में राजनीतिक दलों द्वारा अपने विरोधियों, और पत्रकारों या अड़चन के रूप में देखे जाने वाले किसी भी व्यक्ति के खिलाफ इसका अधिक रचनात्मक उपयोग किया गया है.”

यूके, अमेरिका, श्रीलंका, जमैका और अल सल्वाडोर सहित कई देशों ने इसे अपराध की श्रेणी से मुक्त कर, एक नागरिक अपराध बना दिया है. हालांकि वरिष्ठ वकील नचिकेत जोशी कहती हैं कि भारत में ऐसा होने की संभावना नहीं है क्योंकि इस मुद्दे की जांच सुप्रीम कोर्ट और संसद दोनों ने की है.

2017 में मानहानि को अपराध की संज्ञा से मुक्त करने के लिए लोकसभा में एक निजी सदस्य विधेयक पेश किया गया था, लेकिन इसे मंजूरी नहीं दी गई.

बोलने की आज़ादी पर असंगत रोक?

मई 2016 में एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मानहानि को दी गई संवैधानिक चुनौती को यह मानते हुए खारिज कर दिया कि यह बोलने की आजादी पर एक असंगत रोक नहीं है, क्योंकि प्रतिष्ठा की सुरक्षा एक मौलिक हक के साथ-साथ एक मानव अधिकार भी है.

अदालत ने यह भी कहा कि मानहानि से संबंधित आईपीसी की धाराएं 499 और 500 अस्पष्ट नहीं है, या अनिश्चित शब्दों में नहीं लिखी हैं. लेकिन प्रतिष्ठा के अधिकार की रक्षा गरिमा के अधिकार से नहीं की जा सकती है. 

यौन उत्पीड़न और आपराधिक मानहानि के मामलों के लिए दिए एक महत्वपूर्ण फैसले में दिल्ली की एक अदालत ने पिछले फरवरी में पूर्व केंद्रीय मंत्री एमजे अकबर द्वारा दायर एक मामले में पत्रकार प्रिया रमानी को बरी कर दिया था. रमानी ने #MeToo आंदोलन के दौरान अकबर का नाम लिया था.

अदालत ने माना कि प्रतिष्ठा के अधिकार की रक्षा, गरिमा के अधिकार पर नहीं की जा सकती है, और "सार्वजनिक हित में सत्य" की रक्षा को स्वीकारा गया है.

अदालत ने कहा कि महिलाओं को मानहानि की आपराधिक शिकायत के बहाने यौन शोषण के खिलाफ आवाज उठाने के लिए दंडित नहीं किया जा सकता. अदालत ने अकबर की "प्रसिद्ध साख" की बात भी किनारे कर दी.

लेकिन जब पत्रकारों के खिलाफ आपराधिक मानहानि के मामलों की बात आती है, तो अदालतों ने अलग-अलग रुख अपनाया है.

निष्पक्ष पत्रकारिता और जनता के अधिकार

जून 2022 में बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने लोकमत मीडिया समूह के अध्यक्ष और प्रधान संपादक विजय दर्डा के खिलाफ आपराधिक मानहानि की कार्यवाही को रद्द कर दिया.

अखबार ने कथित संपत्ति विवाद को लेकर शिकायतकर्ता और उसके परिवार के खिलाफ दर्ज हुई प्राथमिकी को रिपोर्ट किया था. अदालत ने माना कि निष्पक्ष रिपोर्टिंग पर मानहानि के आरोप नहीं लग सकते, साथ में यह भी कहा कि सच्ची व विश्वसनीय पत्रकारिता पर मानहानि का मामला एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए अस्वस्थ है.

अदालत ने कहा कि प्रकाशक या संपादक से समाचार प्रकाशित करने से पहले प्राथमिकी में आरोपों की जांच करने की उम्मीद नहीं की जा सकती, और साथ ही स्पष्ट किया, "अख़बार के संपादक की जिम्मेदारी सही तथ्यों को प्रकाशित करना है और कुछ नहीं." अदालत ने यह भी कहा कि यदि संपादक या प्रकाशक को उत्तरदायी ठहराया जाता है, तो जांच के नतीजे या अंतिम फैसले तक खबर को रिपोर्ट नहीं किया जा सकता, जिससे "जनता का घटनाओं को जानने के अधिकार" का हनन होगा.

इस तरह के मामलों का इस्तेमाल पत्रकारों को परेशान करने के लिए भी किया जाता रहा है.

पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या से एक साल पहले, उनके द्वारा संपादित और प्रकाशित एक अख़बार गौरी लंकेश पत्रिका में 2008 में प्रकाशित एक रिपोर्ट पर, भाजपा सांसद प्रह्लाद जोशी व उनकी पार्टी के सहयोगी उमेश दोशी द्वारा दायर मामलों में गौरी को मानहानि का दोषी ठहराया गया था.

लंकेश को छह महीने जेल की सजा सुनाई गई और साथ ही 10,000 रुपये के जुर्माने का भी सामना करना पड़ा क्योंकि अदालत ने माना कि वे इस रिपोर्ट के पीछे के पर्याप्त सबूत देने में विफल रहीं थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि भाजपा के तीन कार्यकर्ताओं ने एक जौहरी को 1 लाख रुपये का चूना लगाया. बाद में उन्हें जमानत मिल गई थी. न्यूज़लॉन्ड्री के साथ एक इंटरव्यू में लंकेश ने कहा था कि उनके खिलाफ मानहानि के मामले, इस कहानी के बारे होने से ज्यादा उनके राजनीतिक विचारों से नापसंदी की वजह से थे.

पत्रकारों के खिलाफ देश में मानहानि के मामलों की संख्या के बारे में पूछताछ करने के लिए न्यूज़लॉन्ड्री ने भारत में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए समिति, मीडिया में महिलाओं के नेटवर्क, इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन, फ्री स्पीच कलेक्टिव, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स और डिजीपब से संपर्क किया. हालांकि उनमें से किसी के भी पास यह रिकॉर्ड नहीं है.

गीता सेशु, जो मीडिया वॉचडॉग द हूट में संपादक थीं और फ्री स्पीच कलेक्टिव की संस्थापक संपादक हैं, ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि उन्होंने भारत में पत्रकारों के खिलाफ मानहानि के मामलों का एक डेटाबेस बनाने की कोशिश की थी, लेकिन यह एक दुर्गम काम था.

सेशु ने कहा, "यह लगभग असंभव कार्य है, लेकिन इसे करने की जरूरत है. मानहानि को उत्पीड़न के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है और मामलों को सुलझाने में सालों लग जाते हैं. इन मामलों में सुनवाई लंबी होती है और कभी-कभी हल नहीं निकलता है. संपादकों के संगठन बदलने के बाद भी उन्हें पुराने मामलों के लिए अदालत जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है. आपराधिक मानहानि को हटाने की मांग पुरानी है, लेकिन सरकार और अदालतों ने इसे खारिज कर दिया है.”

क्या पत्रकारों के कामों के लिए संपादकों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?

गुजराती अखबार संदेश के वडोदरा संस्करण में प्रकाशित एक मानहानिकारक समाचार से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने 2013 में कहा था कि अखबार में प्रकाशित हर समाचार के लिए संपादक जिम्मेदार है, और स्थानीय संपादक को दोष देकर जिम्मेदारी से बच नहीं सकता है. प्रेस और पुस्तकों के पंजीकरण अधिनियम का हवाला देते हुए अदालत ने कहा कि वह संपादक ही है, जो समाचारों के चयन को नियंत्रित करता है.

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने 31 अक्टूबर को इंडिया टुडे पत्रिका में 2007 में छपी एक रिपोर्ट को लेकर उसके प्रधान संपादक अरुण पुरी के खिलाफ दायर आपराधिक मानहानि के मुकदमे को रद्द कर दिया था. लेकिन अदालत ने खबर को लिखने वाले पत्रकार सौरभ शुक्ला के खिलाफ मामले को ख़ारिज नहीं किया.

इस रिपोर्ट में आरोप लगाया गया था कि यूके में तैनात तीन भारतीय अधिकारियों को "यौन दुराचार, वीजा जारी करने में भ्रष्टाचार और अवैध अप्रवासियों को भारतीय पासपोर्ट की बिक्री के गंभीर आरोपों के बाद तेज़ी से एक के बाद एक वापस बुला लिया गया था."

अदालत ने कहा कि उसे ऐसा कुछ नहीं मिला जिससे प्रधान संपादक के खिलाफ कुछ भी निश्चित तौर पर साबित हो सके, और इसलिए उसे रिपोर्टर के कृत्यों के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता. अदालत ने कहा कि इसके विपरीत यदि आरोप पर्याप्त और तफ्सील होते तो ये फायदा संपादक को नहीं दिया जा सकता था. अदालत ने यह भी कहा कि शिकायत में लगाए गए आरोप पूरी तरह से पुरी के खिलाफ मामला बनाने में विफल रहे हैं. केएम मैथ्यू मामले में निर्धारित सिद्धांतों और धारा 499 के अपवादों, जिन्हें अन्य मामलों में भी प्रमुखता दी गई, पर विचार करने के बाद अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची है.

इस उदाहरण के विपरीत यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि द वायर के मामले में प्रधान संपादक सिद्धार्थ वरदराजन और जाह्नवी सेन ने अब रद्द की जा चुकी मेटा रिपोर्ट्स पर बायलाइन साझा की थीं, जो दर्शाता है कि उन्होंने इन खबरों पर बारीकी से काम किया था.

हालांकि द वायर ने आरोप लगाया है कि उसके सलाहकार और शोधकर्ता देवेश कुमार ने उसे गुमराह किया, और उन पर "वायर और उसके संपादकों और कर्मचारियों के प्रति दुर्भावना" का आरोप लगाते हुए दावा किया कि देवेश ने सारी सामग्री को गढ़ना "कबूल" किया. कुमार, जिन्होंने कुख्यात मेटा रिपोर्ट्स में से एक को लिखा था, ने कोई भी जानकारी या विवरण बताने से इंकार कर दिया और कहा कि वह पुलिस का सहयोग कर रहे हैं. उन्होंने टाइम्स नाउ को बताया, "मेरा बयान वही है जो द वायर का था", उन्होंने कहा कि उनके खिलाफ शिकायत में इस्तेमाल की गई भाषा गलत थी.

द वायर ने कुमार पर अज्ञात व्यक्तियों के इशारे पर काम करने का भी आरोप लगाया है. हालांकि ये साबित होने से बहुत दूर है.

धूर्त कर्मचारियों द्वारा प्रतिशोध के मामले में फर्मों का क्या होता है?

यूके में वहां के सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल फैसला सुनाया कि काम देने वाले या नियोक्ता अपने दुष्ट या धूर्त कर्मचारियों के कामों के लिए उत्तरदायी नहीं हैं. मॉरिसन डेटा लीक मामले में अदालत ने कहा कि फर्म एक असंतुष्ट कर्मचारी के कामों के लिए जिम्मेदार नहीं थी, जिसने लगभग 1,00,000 कर्मचारियों के व्यक्तिगत डेटा का खुलासा किया था.

हालांकि इस मामले की जड़ में डेटा में सेंध लगाना था, लेकिन अदालत ने यह भी माना कि आरोपी निजी प्रतिशोध के लिए काम कर रहा था.

जब कर्मचारियों के लिए नियोक्ताओं की जवाबदेही की बात आती है, तो वरिष्ठ वकील अमीत दत्ता ने कहा कि कोई जादू की छड़ी नहीं होती है. "यह पूरी तरह से नियोक्ता की निजी भागीदारी के स्तर पर निर्भर करता है. मामले पर उन्हें कितनी जानकारी थी? उन्होंने क्या भूमिका निभाई? कितना नियंत्रण किया गया था?”

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