डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी: “उपकार के गीत में नेहरूजी की तस्वीर थी, आज मैं मोदी की तस्वीर दिखाऊं तो लोग शायद स्क्रीन फाड़ दें”

भारतीय सिनेमा के 100 सालों से ज्यादा लंबे सफर में राष्ट्रवाद की अलग-अलग अभिव्यक्तियां देखने को मिली. आज भारतीय सिनेमा में राष्ट्रवाद कहां खड़ा है.

डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी: “उपकार के गीत में नेहरूजी की तस्वीर थी, आज मैं मोदी की तस्वीर दिखाऊं तो लोग शायद स्क्रीन फाड़ दें”
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1943 में आई फिल्म ‘क़िस्मत’ का गीत“ आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है,” उस दौर के राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति है, जब देश में अंग्रेजों का राज हुआ करता था. इस अभिव्यक्ति को लेकर कवि प्रदीप को अंग्रेजी हुकूमत की नाराज़गी को भी झेलना पड़ा था. इसके बाद आज़ादी का दौर आया, जब हमने “साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना” सरीखे गीत सुने. 1957 की फिल्म ‘नया दौर’ का यह गीत, समय के साथ बदले राष्ट्रवाद की एक नई अभिव्यक्ति था.

समय बीतने के साथ भारतीय सिनेमा में राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति भी बदलती रही. द मीडिया रम्बल के इस सत्र में ‘बॉलीवुड के राष्ट्रवाद’ पर विस्तार से बातचीत हुई. बॉलीवुड के अनुभवी निर्देशक, पटकथा लेखक डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी के साथ न्यूज़लॉन्ड्री के कार्यकारी संपादक अतुल चौरसिया ने की बातचीत.

बॉलीवुड में डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी का अपना सफर राष्ट्रवाद की दक्षिणपंथी भावना से ओत प्रोत दिखाई देता है. डॉ. द्विवेदी को उनके बहुचर्चित धारावाहिक ‘चाणक्य’ ने पहचान दी. उन्होंने इस धारावाहिक का केवल निर्देशन ही नहीं किया, बल्कि उसे लिखने के साथ-साथ खुद चाणक्य की भूमिका भी निभाई. इसके बाद देश के विभाजन पर आधारित उनकी 2003 में आई फिल्म ‘पिंजर’ ने उनके सिनेमा के सफर में एक और मील का पत्थर जोड़ दिया. हाल ही में आई फिल्म सम्राट पृथ्वीराज का निर्देशन भी उन्होंने किया है.

अतुल ने प्रश्न किया, “पौराणिक कथाओं और इतिहास से जुड़े विषयों पर फ़िल्में बनाने का अपना खतरा है. इसका दर्शक वर्ग बहुत सीमित है और लोगों की अधिक रूचि नहीं होती, फिर भी आप बार-बार ऐसे विषयों पर काम कर रहे हैं, इस चुनौतीपूर्ण क़दम की क्या वजह है?”

डॉ. द्विवेदी कहते हैं, “मेरा मानना है कि यह मेरी प्रवृत्ति है. ऐसा नहीं है कि मैंने इससे अलग होने की कोशिश नहीं की. उसका एक कारण है हिंदी सिनेमा, मुंबई में इस तरह के विषयों की स्वीकार्यता नहीं है. शायद यही वजह थी, जब मैं चाणक्य दूरदर्शन के पास ले गया तो दूरदर्शन ने उसे अस्वीकार कर दिया था. जिसके बाद मैंने लंबा संघर्ष किया. एक वजह यह भी है कि मुझे अतीत का सृजन करने में ज़्यादा आनंद आता है. नंबर बहुत महत्वपूर्ण नहीं हैं कि आपने कितनी फ़िल्में बनाईं, यह ज़रूरी है कि आपने क्या जोड़ा.”

इसके अलावा राष्ट्रवाद की अवधारणा से लेकर बॉलीवुड के राष्ट्रवाद पर डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने प्रमुखता से अपने विचार रखे. साथ ही होनी हालिया फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज’ से जुड़े सवालों के भी उन्होंने विस्तारपूर्वक जवाब दिए. देखिए पूरा इंटरव्यू:

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