कूड़ा बीनने से अमेज़ॉन तक: ट्रांसजेंडर संध्या की कहानी

अन्य बच्चों की तरह ही पले-बढ़े संदीप को 10वीं में अपनी असली पहचान का अहसास हुआ, क्योंकि वे खुद को संध्या के रूप में पहचानने लगे थे.

   

21 वर्षीय संध्या का जन्म बिहार के नालंदा जिले के एक छोटे से गांव में हुआ था. उनकी परवरिश भी वहीं हुई. अन्य बच्चों की तरह ही पले-बढ़े ‘संदीप’ को 10वीं कक्षा में अपनी असली पहचान का अहसास हुआ, क्योंकि वे खुद को संध्या के रूप में पहचानने लगे थे. उनके लंबे बाल और हाथों के बढ़े नाखूनों को देखकर स्कूल में बच्चे और अध्यापक उन्हें अलग-अलग नामों से चिढ़ाते थे.

2001 में संध्या के पिता उन्हें परिवार और पड़ोसियों से दूर, दिल्ली ले आए. लेकिन दिल्ली आने के कुछ ही महीनों बाद संध्या के पिता का देहांत हो गया. संध्या और उनकी मां अब किराए के घर में अकेले रह गए थे. उनकी मां ने आजीविका चलाने के लिए बड़े घरों में काम करना शुरू कर दिया, लेकिन घर का खर्चा केवल मां की कमाई से नहीं चल पा रहा था. ऐसे में संध्या ने भी काम करने का मन बना लिया.

संध्या यूं तो 12वीं पास हैं, लेकिन उन्हें उनकी पहचान के कारण कहीं काम नहीं मिल रहा था. मजबूरन उन्हें कूड़ा बीनने का काम करना पड़ा. जब कूड़ा बीनकर संध्या घर आतीं तो उनके गंदे कपड़े देखकर लोग उन्हें ताने मारते. कुछ दिन संघर्ष करने के बाद संध्या को एक फैक्ट्री में काम मिल गया. शुरुआत में वह आदमियों की तरह तैयार होकर काम पर जाती थीं. एक दिन वह साड़ी पहनकर फैक्ट्री काम करने चली गईं, और फैक्ट्री के मालिक ने संध्या को इन कपड़ों में देखकर उन्हें काम से निकाल दिया.

यहां ये बताना आवश्यक है कि संध्या अकेली ऐसी व्यक्ति नहीं हैं. भारत में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को काम की तलाश में दर-दर भटकना पड़ता है. उन्हें उनकी पहचान के चलते काम नहीं मिल पाता है. संध्या का संघर्ष, ऐसे ही कई ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की कहानी बयान करता है जो केवल अपनी पहचान के कारण अनेकों मुसीबत उठाते हैं.

संध्या की कहानी का पूरा वीडियो देखिए-

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