गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ को कैसे पढ़ें

यह सच है कि गीतांजलि श्री आसान लेखिका नहीं हैं. उनको पढ़ने के लिए अपने-आप को बहुत सारे स्तरों पर खुला छोड़ना पड़ता है ताकि आप भाषा के नए स्तरों से गुजर सकें, उनको महसूस कर सकें.

WrittenBy:प्रियदर्शन
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हालांकि इस भरोसे को भी मारा जाना है - एक ऐसे बेतुकेपन के साथ जिसकी विडंबना भाषा भी वहन नहीं कर सकती. इसलिए वह भी यहां बेतुकी हो उठती है जैसे हास-परिहास उसकी क्रूरता को ढंक डालेंगे, उसे कुछ सहनीय बना देंगे.

इस कथा तक ऐसे सपाट ढंग से पहुंच जाती तो 'रेत समाधि' वह विलक्षण उपन्यास नहीं होता जो वह‌ है. लेखिका अपनी कथा प्रविधि में तरह तरह से स्मृति का, परंपरा का और रचनात्मकता का इस्तेमाल कर रही है.

उपन्यास में मंटो भी चले जाते हैं, कृष्णा सोबती भी, कृष्ण बलदेव वैद भी, मोहन राकेश भी, राही मासूम रजा, शानी और जोगिंदर पॉल भी, निर्मल वर्मा भी, इंतजार हुसैन भी, यहां तक कि राजी सेठ और मैत्रेयी पुष्पा भी. उपन्यास में कृष्णा सोबती के ‘जिंदगीनामा’ के पन्ने फड़फड़ करते मिलते हैं. पॉल जकारिया की मार्मिक कथाएं भी मिलती हैं. बल्कि अपनी परंपरा की यात्रा में उपन्यास इतना यथार्थ हो जाता है कि गीतांजलि श्री के इतिहासकार पति सुधीर चंद्र बाकायदा अपने नाम के साथ एक पंक्ति में मौजूद हैं.

इसी तरह भूपेन खक्खर जैसे चित्रकार की कला भी इस स्मृति में शामिल है. कथा बढ़ती जाती है, अधूरा चित्र पूरा होता जाता है या उसके पूरे होने की स्मृति जागती जाती है. और इन सबके बीच लेखिका की बेलौस टिप्पणियां आती रहती हैं- ‘कट्टरतंत्र और शासनतंत्र को समाधियां रास नहीं आतीं, न कहानियां, न भूपेन खक्खर. उन्हें बंद करना रास आता है. फाइल, डब्बा, बक्सा.‘ तो ऐसी है 'रेत समाधि'. बहुत सारे अवयवों से बनी हुई. कहीं-कहीं बहुत सारे बेतुकेपन से भी गुजरती हुई. आखिर वह भी जीवन और अनुभव का हिस्सा है. उपन्यास में कुछ अमूर्तन भी है. लेकिन रचना की दुनिया में अमूर्तन क्या कोई अस्पृश्य तत्व है?

दुनिया में ऐसे उपन्यासों की बहुतायत है जो बहुत ढीले-ढाले, झीने कथा-सूत्र, और अपने अर्थ खुद बनाती-खोजती भाषा के बीच रचे गए हैं. 2010 में साहित्य के नोबेल से विभूषित मारियो वर्गास लोसा का उपन्यास 'स्टोरीटेलर' पढ़ते हुए अमूर्तन के लंबे अध्यायों से गुजरना पड़ता है और उसके बाद जीवट और प्रतिरोध की एक कथा हाथ लगती है.

गैब्रियल गार्सिया मारकेज अपनी अतिशय लोकप्रियता के बावजूद आसान लेखक नहीं हैं. उनको पढ़ते हुए भाषा भी समझ नहीं पड़ती है, एकाग्रता भी बनाए रखनी पड़ती है और उस जादू के घटने का इंतजार भी करना पड़ता है जो मारकेज पैदा करते हैं.

'रेत समाधि' को भी धीरज से पढ़ें. गजल और गीत पढ़ने वाले आसान आलोचक, मुक्तिबोध और शमशेर के आगे हाथ खड़े कर देते हैं. इससे मुक्तिबोध-शमशेर का कुछ नहीं बिगड़ता, हमारी रचना की समझ- और अंततः इस जीवन की परतों की समझ- भले कुछ अधूरी रह जाती हो. गीतांजलि श्री की ‘हंसी’ से बनी ‘अनहंसी’ न समझ में आ रही हो तो अरुंधति रॉय के ‘द ग्रेटर कॉमन गुड’ में बड़े बांधों के विरुद्ध लेखिका की एक टिप्पणी देखें- They are uncool. कूल से अनकूल बनाने पर किसने सवाल उठाया था?

गीतांजलि श्री अब तक अपने एकांत में संतुष्ट रहती आई लेखक हैं. बुकर ने जिस चौंधिया देने वाली रोशनी के सामने उनको ला खड़ा किया है, उम्मीद करनी चाहिए कि उससे वे देर-सवेर- बल्कि जल्दी ही- निकल आएंगी. शायद इस शोहरत के घेरे से बाहर आकर उनकी किताबें भी अपने पाठकों को आमंत्रित करेंगी कि वे कुछ सब्र के साथ उनको पढ़ें.

बेशक, फिर कहने की जरूरत है कि गीतांजलि श्री को जबरन पढ़ना जरूरी नहीं है. जो उन्हें पढ़ कर समझ न सकें, वे कोई कमतर पाठक हों, ऐसा भी नहीं है. हमें बहुत सारी किताबें जंचती-रुचती हैं जो दूसरों को रास नहीं आतीं- और दूसरों को भी बहुत सारी वे किताबें पसंद आती हैं जिन्हें हम समझ नहीं पाते. यह साहित्य का जनतंत्र है जिसका शासक अपरिहार्यतः पाठक है.

वैसे भी दुनिया में महानतम साहित्य की भरमार है जिसे पढ़ने के लिए एक नहीं, कई जीवन चाहिए. लेकिन साहित्य का यह जनतंत्र बनाए रखने के लिए भी जरूरी है कि ‘रेत समाधि’ अगर आपकी मुट्ठी में न आए तो आप उसे बिल्कुल रेत-रेत करने पर तुल न जाएं. इसे हिंदी के विरुद्ध साजिश न बता डालें. बुकर साजिश नहीं है, किताबें साजिश नहीं होतीं. ‘रेत समाधि’ हिंदी उपन्यासों की समृद्ध परंपरा की एक और चमकती हुई कड़ी है- इसे मानने से इनकार न करें.

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