अरुंधति राय के उपन्यास 'गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स' का एक प्रसंग है. राहेल पांव से धूल उड़ा रही है. अमू टोकती है- स्टॉप इट (stop it)! किताब में अगला वाक्य है- शी स्टॉपिटेड (she stopitted). अंग्रेजी के किसी विद्वान ने अरुंधति राय को व्याकरण पढ़ाने की कोशिश नहीं की कि she stopped it होना चाहिए. किसी को यह चिंता नहीं हुई कि इससे अंग्रेजी का व्याकरण बिगड़ रहा है. इसी उपन्यास में कैपिटल और स्मॉल लेटर्स की जो मनमानी है, उससे कोई परेशान नहीं दिखा.
सलमान रुश्दी के उपन्यास 'मिडनाइट्स चिल्ड्रन' में 'चटनीफिकेशन' शब्द आता है. वे यह बताने के लिए कि ट्रेन चर्चगेट की तरफ जा रही है, लिखते हैं- The train was yellow browning towards Churchgate station. कोई नहीं पूछता है कि यह भारतीय मूल का लेखक अंग्रेजी को खराब करने में क्यों लगा है. वैसे इस पूरे उपन्यास में भाषा को लेकर बीहड़ प्रयोग हैं.
अमिताभ घोष के उपन्यास 'सी आफ पॉपीज' में ऐसे कई वाक्य हैं जहां भाषा बुरी तरह गड्डमड्ड दिखाई पड़ती है. कोई उन्हें अंग्रेजी सिखाने की कोशिश नहीं कर रहा.
लेकिन गीतांजलि श्री को हर कोई हिंदी सिखाना चाहता है. जो लोग एक पृष्ठ साफ-सुथरी हिंदी नहीं लिख सकते, उन्हें भी चिंता है कि हिंदी कहां जा रही है. जो लोग बरसों से अखबारों और टीवी चैनलों में बहुत बेजान, यांत्रिक, संवेदनविहीन और स्मृतिशिथिल हिंदी देख, पढ़, सुन और लिख रहे हैं, जो रोज इस हिंदी का तमाशा बनता देख रहे हैं, वे भी गीतांजलि श्री की भाषा से दुखी हैं.
यह सच है कि गीतांजलि श्री आसान लेखिका नहीं हैं. उनको पढ़ने के लिए अपने-आप को बहुत सारे स्तरों पर खुला छोड़ना पड़ता है ताकि आप भाषा के नए स्तरों से गुजर सकें, उनको महसूस कर सकें. लेकिन जरूरी नहीं है कि आप गीतांजलि श्री को पढ़ें. आपके पास पढ़ने के लिए बहुत सारे 'आसान' लेखक हैं. निश्चय ही उनमें कई बहुत अच्छे भी हैं जिनको पढ़ना सुखद होता है.
लेकिन गीतांजलि श्री को कुछ मेहनत करके पढ़ लेंगे तो शायद संवेदनात्मक लेखन की एक नई जमीन से परिचित होंगे. यह मैं इस बुकर आक्रांत समय में नहीं बोल रहा हूं, बरसों से उनको पढ़ने और उन पर विचार करने के अपने अनुभव से बोल रहा हूं. यह बात कई बार दोहरा चुका कि साल 1997 से 2015 के बीच उनके दो उपन्यासों और दो कहानी संग्रहों पर टिप्पणी लिख चुका हूं. तब भी गीतांजलि श्री मुश्किल लेखिका ही जान पड़ती थीं जिनकी तारीफ इस वैधानिक चेतावनी के साथ करनी पड़ती थी कि इन्हें कुछ सावधानी और सब्र से पढ़ें.
'रेत समाधि' पर आते हैं. इसकी भाषा से ही शुरुआत करते हैं. दरअसल हम भूलने लगे हैं कि भाषा जो है, वह कोई गढ़ी हुई अंतिम चीज नहीं है, उसको गढ़ने का काम हमेशा चलता रहता है. बल्कि शब्दों के भी जड़ और स्थिर अर्थ नहीं होते, उनके भाव होते हैं, उनकी छवियां होती हैं जो हमारे भीतर की स्मृति से मिलकर एक अर्थ ग्रहण करती हैं. जब हम इस स्मृति से काम लेना बंद कर देते हैं, जब हम अपने अनुभवों पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, जब शब्दों को उनके दिए अर्थों की परिधि के भीतर बरतना अपरिहार्य मान लेते हैं, तब हम अनजाने ही अपने भीतर एक यांत्रिक संसार बना लेते हैं जो बाद में हमारी भाषा में भी झलकता है.
हालांकि यह एक आसान प्रक्रिया होती है और इस लिहाज से पठनीय जान पड़ती है कि इसके लिए अनुभव के बने बनाए संसार को बहुत तोड़ना-फोड़ना नहीं पड़ता. लेकिन कोई लेखक इस बने बनाए अनुभव संसार को अगर अपने लिए अपर्याप्त पाता है तो उसे अधिकार है कि वह शब्दों के दिए हुए अर्थों के बाहर जा कर उनमें नए सिरे से प्राण डाले, उनको हिलने डुलने, सांस लेने लायक बनाए.
गीतांजलि श्री यह काम करती हैं और कुछ इस बारीकी से करती हैं कि ध्यान से पढ़ने वाला हैरान रह जाए. जो लोग उनके उपन्यासों के कुछ बिखरे हुए या अनगढ़ वाक्य चुन-चुन कर यह साबित करना चाहते हैं कि उनको लिखना नहीं आता, वह चाहें तो इसी उपन्यास के भीतर ऐसे चुटीले, सटीक और मार्मिक वाक्य खोज सकते हैं जो हमारे भीतर उतर आते हैं, हमें एक महीन समझ दे जाते हैं.
ठीक से पढ़ेंगे तो पाएंगे कि गीतांजलि श्री मृत शब्दों को फिर से जिला रही हैं, जरूरत पड़ने पर उनमें फेरबदल कर रही हैं और कई नए शब्द भी गढ़ ले रही हैं. वे शब्द नहीं, भाव लिख रही हैं जो शब्दों या वाक्यों में ढल रहे हैं- अगर वे भाव अधूरे हैं, गड्डमड्ड हैं तो शब्द और वाक्य भी वैसे ही अधूरे और गड्डमड्ड हैं. दरअसल इसे लेखक नहीं, किरदारों की भाषा के तौर पर पढ़िए, तब आप आएंगे कि जटिल और अबूझ लगते शब्दों के भीतर मानी कुलबुला और झांक रहे हैं.
दरअसल आप शब्दों से चिपके रहेंगे तो किसी भी कृति को पढ़ नहीं पाएंगे. निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ की प्रारंभिक डेढ़ दर्जन पंक्तियों के अर्थ निकालना और समझना मुश्किल है. वहां भाषा के नियम बेमानी हैं. बस एक उदात्त लय है जो सबकुछ को बांधे रखती है. आपको उसे महसूस करना पड़ता है. लेकिन यहां तक आने के लिए शब्दों की देह से चिपके रहने का मोह छोड़ना होगा.
एक और प्रसंग याद आता है. जब इस्मत चुगतई की कहानी ‘लिहाफ’ पर मुकदमा चल रहा था तो उसके कातिब से पूछा गया कि क्या उसे वह कहानी अश्लील नहीं लगी. कातिब ने कहा कि उसने कहानी पढ़ी ही नहीं, वह तो बस शब्द पढ़ता और लिखता रहा. कहने का मतलब यह कि कई बार रचनाओं को समझने के लिए भाषा की प्रारंभिक शर्तों के पार जाना पड़ता है.
दूसरी बात यह कि उपन्यास में कोई इकहरी कहानी न खोजें. जिन उपन्यासों को बुकर मिल जाते हैं, ऐसा नहीं कि वे किसी तिलिस्मी धागे से बुने जाते हैं या किसी विराट अनदेखे सत्य को उद्घाटित कर डालते हैं. वे भी हमारे आपके जीवन की कथाएं ही होते हैं- बस इस अंतर के साथ कि उन्हें पढ़ते हुए हम अपने जीवन को, उसके कोलाहल और मौन को, उसकी व्यर्थता और विराटता को कुछ और समझ सकते हैं.
'रेत समाधि' प्रथमत: एक पारिवारिक उपन्यास ही है. उपन्यास में ही लेखिका कहती है कि एक परिवार के भीतर वह सब कुछ होता है जो सारी दुनिया में होता है. और जो परिवार में नहीं होता, वह दुनिया में नहीं होता. उनके मुताबिक यह बात महाभारत के बारे में कही जाती है, लेकिन परिवार के महाभारत के बारे में भी सच है. यही नहीं, इसके बाद पारिवारिक प्रतिस्पर्धा को लेकर अगले दो पन्नों में वह जो लिखती हैं वह बहुत दिलचस्प और 'विटी' गद्य का नमूना है. काश, कोई इसे भी उद्धृत करता.
उपन्यास जहां से शुरू होता है वहां अपने पति की मृत्यु के बाद लगभग अवसाद में चली गई उपन्यास की बुजु़र्ग नायिका अपने बिस्तर पर दीवार की ओर पीठ किए बैठी है- कुछ इस तरह कि जैसे वह दीवार में समा जाएगी, खुद दीवार हो जाएगी. एक मिनट इस दृश्य पर रह कर याद करें कि हमने क्या अपने पुराने घरों में ऐसी वृद्धाओं को नहीं देखा है जो जीवन से उचट कर, कुछ घर-परिवार वालों की उपेक्षा और उदासीनता की वजह से भी, लगभग दीवार से लगी एक पीठ रह गई हैं?
इस दृश्य को गीतांजलि श्री ने लगभग आधुनिक कला की संवेदनशीलता के साथ रचा है. इस कथा में अंतर बस इतना है कि हर कोई इस वृद्धा को उनकी इस जड़ता से वापस खींच कर जीवन में लाना चाहता है. यहां पारिवारिकता का जो निजी आख्यान खुलता है, वह अपने वर्णन में इतना जीवंत, विश्वसनीय, ध्वन्यात्मक और चाक्षुष है कि आप याद करते रहते हैं कि लगाव और तनाव के ऐसे साझा दृश्य आपने किस पिछली किताब में पढ़े थे.
बेशक, इस अनुभव तक पहुंचने के लिए आपको भाषा के अपने पूर्वग्रहों के पार जाना होगा और याद करना होगा कि अंततः वे भाव हैं जिनसे भाषा बनती है, भाषा से भाव नहीं बनते. उपन्यास के भीतर भाई-बहन का, भाभी-ननद का, मां बेटे का, दादी पोते का, नौकर-मालिक का, तरह तरह की शिकायतों और मेहरबानियों का, चुप्पी और वाचालता का, ढिठाई और उदारता का, नरमी और गरमी का, गुस्से और झुंझलाहट का, हंसी और उदासी का, स्मृति और भुलक्कड़पन का, यथार्थ और कल्पना का, जीवन और कथा का, संभव और असंभव का ऐसा आपसी द्वंद्व इतने रूपों में खिलता कम से कम मेरी तरह के पाठक ने नहीं देखा है.
संभव और असंभव के बीच की इसी छलांग में वृद्धा नायिका न सिर्फ उठ खड़ी होती है बल्कि बेटी के घर आकर सीमा पार जाने को उद्धत हो जाती है. अपने अवसाद के क्षणों में न जाने अतीत के किस कुंए में वह डुबकी लगाकर निकली है कि उसे अपना पिछला सारा कुछ याद आ गया है. इस स्मृति कक्ष में उसकी सहेली रोजी भी है- वह एक उभयलिंगी किरदार है जिसकी मौजूदगी का राज बाद में खुलता है.
दरअसल यह उपन्यास कम से कम तीन हिस्सों में बंटा है- बेटे के यहां मां, बेटी के यहां मां और सरहद पार मां. पहले दो हिस्सों में जो परिवार का महाभारत है, वह वाकई तीसरे हिस्से में राजनीति के कुरुक्षेत्र में चला आता है. दिल्ली से लाहौर पहुंची बुढ़िया के भीतर जैसे कोई पुरानी आत्मा जाग जाती है. वह अपने छूटे हुए शहर के गली-कूचे, घर-मकान, आकार-प्रकार, रस-गंध- सबकुछ पहचान रही है.
उसे वे दंगाग्रस्त दिन याद आ रहे हैं जब सरहदें बंटी थीं और लुटी पिटी औरतें भागती हुई और ज्यादा लुटने-पिटने को मजबूर थीं. वह पुराने लोगों को खोजती हुई वीजा पासपोर्ट के नियमों को धत्ता बता रही है. वह खैबर के इलाके में चली आई है. उसे कैद कर लिया गया है. लेकिन करिश्मा यह है कि वही एक आजाद लग रही है, बाकी सब जैसे उसकी कैद में हैं. कलाश्निकोव पकड़े हाथ अचानक पा रहे हैं कि बुढ़िया के इशारे पर वह पौधे और मिट्टी ला रहे हैं, बागीचा बना रहे हैं. आतंकवादी और सैनिक बुढ़िया के इशारे पर फुल रोपने में मदद कर रहे हैं.
यह एक नायाब दृश्य है- सरहदों का बेमानीपन बताने वाला और इंसानियत की असीमता में भरोसा जगाने वाला. निस्संदेह यह बहुत सारे लोगों को यूटोपिया लग सकता है, लेकिन ऐसा मानवीय यूटोपिया किसी अन्य यूटोपिया से तो बेहतर है. इसे पढ़ते हुए कुंवर नारायण की वह कहानी याद आती है जिसमें सीमा गायब हो जाती है और सब सीमा को खोजने में लगे हैं- बस बच्चे निश्चिंत होकर खेल रहे हैं.
तो उपन्यास का यह हिस्सा एक यूटोपियाई भरोसा जगाता है.