जितेंद्र मेघवाल की हत्या ने ग्रामीण राजस्थान में जातिगत बंटवारे पर फिर से रोशनी डाल दी, जहां भेदभाव आम जिंदगी का एक हिस्सा बन गया है.
तंत्र ही एक अड़चन है
19 मार्च 2021 को सिराणा गांव की डायला मेघवाल और उनकी गर्भवती बेटी पर राजपूतों के एक समूह ने हमला किया था. डायला का परिवार यह मानता है कि यह हमला उस जमीन पर कब्जे की एक मुहिम का हिस्सा था, जिस पर पड़ोसी राजपूतों ने कथित तौर पर झूठे दस्तावेजों के जरिए अपना दावा किया है.
डायला के बेटे अशोक कानून की पढ़ाई कर रहे हैं. हमले के समय वह घटनास्थल से थोड़ी दूरी पर थे और उन्होंने अपने मोबाइल फोन पर इसका वीडियो बनाया. बाद में डायला और अशोक पुलिस के पास गए जहां उन्होंने आठ लोगों के खिलाफ अतिक्रमण, जानबूझकर चोट पहुंचाने, हमला करने और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज कराई. सभी आरोपी राजपूत थे.
मामला अभी भी चल रहा है और मुख्य आरोपी अभी तक गिरफ्तार नहीं हुआ है. वे छह लोग जिन्हें पुलिस ने गिरफ्तार किया उनमें से चार को अप्रैल 2021 में जमानत मिल गई थी. इस बीच अशोक के फोन से लिए गए फुटेज की अभी भी जांच चल रही है क्योंकि पुलिस को अभी तक फोन की फॉरेंसिक रिपोर्ट नहीं मिली है.
अशोक कहते हैं कि इस मामले में जितनी भी कार्यवाही हुई वह पहले जांच अधिकारी, जो खुद भी दलित थे, के अंतर्गत ही हुई. जांच के बीच में ही एक नए जांच अधिकारी को इस मामले में नियुक्त किया गया, जो कि संयोग से ब्राह्मण हैं.
अशोक कहते हैं, "मैं यह नहीं कह रहा कि अफसरों की कोई जाति है, लेकिन जहां पहले जांच अधिकारी ने वीडियो की बिना पर आरोपी को गिरफ्तार किया, वहीं दूसरे जांच अधिकारी ने छह महीने से मामले को लटका रखा है."
वकील किशन मेघवाल कहते हैं, "एससी/एसटी कानून के अंतर्गत जांच की जहां बात आती है, वहां उनके (अफसरों के) जाति को लेकर अपने पूर्वाग्रह कई बार भूमिका अदा करते हैं, जिसमें घटना में इस्तेमाल किए गए हथियारों को जब्त करना, और (सवर्ण) आरोपी को फायदा पहुंचाने वाले चश्मदीद गवाहों को चुनना व छांटना शामिल है."
कुछ लोगों का कहना है कि पाली जिले में एक दलित की शिकायत पर पुलिस को सक्रिय करना ही अपने आप में एक चुनौती है.
मार्च 2016 में खिरनी गांव के एक मेघवाल लड़के पर राजपुरोहितओं के द्वारा हमला कथित तौर पर इसलिए किया गया क्योंकि वह मोटरसाइकिल पर एक होली उत्सव से आगे निकल गया था. पेशे से ड्राइवर गोमा राम कहते हैं, "मैंने उस दिन पुलिस को कम से कम सात बार फोन किया, लेकिन उधर से कोई जवाब नहीं आया."
अन्यायपूर्ण खेल
अंजलि* जानती हैं कि न्यायपालिका से न्याय की उम्मीद करना भी मशक्कत का काम हो सकता है. अंजली, जो दलित हैं, पाली की सोजत तहसील में एक सरकारी आवासीय विद्यालय की इंचार्ज थीं. 2016 में, आठवीं कक्षा की पांच दलित लड़कियों ने अंजलि को बताया कि एक परीक्षा के दौरान, एक पुरुष परीक्षक ने "उनकी जांघों पर चुटकी काटी थी और हस्ताक्षर लेने के बहाने अपने गुप्तांग को उनके कंधों पर रगड़ा था." यह परीक्षक एक अगड़ी जाति से आता था.
21 मार्च 2016 को, अंजलि के पुलिस के पास जाने से कुछ दिन पहले, एक भीड़ स्कूल प्रांगण के बाहर इकट्ठा हुई और अंजलि के ऊपर "लड़कियां सप्लाई" करने के आरोप लगाए गए. अंजलि के द्वारा एसडीएम से सुरक्षा दिए जाने के बाद पांचों लड़कियों ने पुलिस में शिकायत की जिसके बाद एक एफआईआर दर्ज की गई.
जब मामला अदालत में पहुंचा तो परिस्थिति और हताशाजनक होती गई.
एससी/एसटी कानून कहता है कि पीड़ित अपना सरकारी वकील खुद चुन सकते हैं, लेकिन जब अंजलि ने वकील बदलने के लिए कहा तो प्रशासन ने इससे इंकार कर दिया. अंजलि कहती हैं, "सरकारी वकील इस मामले में कोई खास रुचि नहीं दिखा रहे थे. उन्होंने फाइल तक नहीं देखी थी लेकिन तब भी प्रशासन ने यह निर्णय लिया कि उन्हें बदलने का कोई कारण नहीं है."
बाद में चार छात्राएं मुकर गईं और आरोपी को जमानत मिल गई. अंजलि अब भी एक छात्रा के साथ इस मामले को देख रही हैं. उन्होंने जोधपुर उच्च न्यायालय में एक अपील दाखिल की है. अंजलि ने इस मामले में अपने खर्चे से एक निजी वकील की सेवाएं भी ली हैं.
अंजलि कहती हैं, "एक तरफ तो राज्य और केंद्र सरकारें बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की बात करती हैं, और तब भी इस घटना के बाद उस गांव की सभी छात्राओं ने इस घटना के बाद स्कूल छोड़ दिया."
अधिवक्ता किशन मेघवाल इशारा करते हैं कि जातिवाद न्यायपालिका के अंदर सूक्ष्म रूप से काम करता है. "जहां तक न्यायपालिका की बात है, जातिवाद के अलावा वंशवाद भी एक भूमिका अदा करता है, और इसलिए न्यायाधीशों के बीच अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ी जातियों से आने वाले लोग कम ही दिखाई पड़ते हैं. इनमें से अधिकतर ब्राम्हण या वैश्य समाजों से ही आते हैं."
यथार्थ बनाम सपने
पहले से ही बिगड़ी हुई परिस्थिति को सुरेश नोरवा के द्वारा स्थापित की गई भगवा स्वयंसेवक संघ जैसी राजनीति संबंधी संस्थाएं और बिगाड़ देती है. अपनी फेसबुक टाइमलाइन पर सुरेश, अंतरराष्ट्रीय हिंदू परिषद के प्रमुख और विश्व हिंदू परिषद के पूर्व अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया के साथ खड़े दिखाई देते हैं.
मेघवाल की हत्या के दो हफ्ते बाद, सुरेश ने भीम आर्मी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद पर मेघवाल के लिए न्याय की मांग करने को लेकर हमला किया. फेसबुक पर एक लाइव प्रसारण के दौरान सुरेश नोरवा ने कहा, "ऐसे असामाजिक तत्वों को एक वाजिब जवाब दिए जाने की ज़रूरत है. इसलिए अगर आपके ऊपर एससी/एसटी कानून के अंतर्गत मामले दर्ज हैं, तो प्रशासन से बात करिए. नहीं तो यह मैंने पहले भी कहा है कि 10 मिनट के लिए पुलिस को हटा लीजिए और देखिए हम क्या कर सकते हैं."
सुरेश के द्वारा इस धमकी में निहित हिंसा, उस अगड़ी जाति के प्रभुत्व को दर्शाती है जो पारंपरिक रूप से दबे हुए समाजों के दैनिक जीवन का हिस्सा है. पत्रकार देवेंद्र प्रताप सिंह शेखावत कहते हैं, "प्रभुत्व वाली जाति के जातिगत समीकरण, राजस्थान में जातिगत अत्याचार में एक बड़ी भूमिका अदा करते हैं. भारत के अन्य भागों में, आरोपी आमतौर पर अगड़ी जातियों से होते हैं. हालांकि यह बात राजस्थान में भी लागू होती है, लेकिन यहां हर जाति की दलितों के लिए अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं."
पाली जिले की घेरनी गांव की रहने वाली भावना स्कूल में जातिगत विभाजन लागू किए जाने को याद करती हैं. वे बताती हैं, "हमें राजपुरोहित छात्राओं को "रानी सा" बोलना पड़ता था और उनसे एक सामाजिक दूरी बनाकर रखनी होती थी."
गुड़ा एन्दला गांव के नरेश*, जो मेघवाल समाज से आते हैं, कहते हैं कि दलितों के द्वारा, राजपुरोहित और मीणा समाज के घरों वाली गलियों में घुसने पर अपनी गाड़ी से उतर जाना अपेक्षित होता है. मीणा समाज अनुसूचित जनजाति में गिना जाता है, लेकिन वह इस इलाके में राजनीतिक और सामाजिक प्रभुत्व रखता है. नरेश कहते हैं, "यह मायने नहीं रखता कि कोई पीछे बैठा है या नहीं, अगर अकेला व्यक्ति भी मोटरसाइकिल चला रहा है तो भी हमें सम्मान के तौर पर उतरना पड़ता है."
नरेश याद करके एक घटना बताते हैं जब एक राजपुरोहित पंडित ने और उनके बेटे को मंदिर के अंदर बैठने के लिए लताड़ लगाई थी. एससी एसटी कानून के अनुच्छेद 3 के अंतर्गत, जो कहता है कि- अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के किसी भी व्यक्ति को किसी भी सार्वजनिक स्थल में आने से रोकना या अड़चन पैदा करना, एक कानूनन जुर्म है जिसके लिए छह महीने से लेकर पांच साल तक की सजा का प्रावधान जुर्माने के साथ है, लेकिन नरेश ने कभी शिकायत करने के बारे में सोचा भी नहीं.
उन्होंने कहा, "हमारी चलती नहीं है."
वहीं बरवा गांव में, जितेंद्र मेघवाल की मौत और उसके बाद पुलिस की जांच के परिणाम स्वरूप कई प्रदर्शन हुए जिनको प्रशासन ने धारा 144 का उपयोग कर नियंत्रित किया. अप्रैल आने तक परिस्थिति तनावपूर्ण थी लेकिन विस्फोटक नहीं बनी थी. भरवा के राजपुरोहित समाज में मेघवाल की हत्या में किसी जातिगत कारण को मानने से इंकार किया, जबकि दलित समाज इस बात पर कायम रहा कि मेघवाल जाति आधारित हिंसक अपराध के पीड़ित थे.
हालांकि उनकी असमय मृत्यु और उस पर आई प्रतिक्रियाएं यह दिखाती हैं कि कैसे राजस्थान के समाज के कुछ धड़े, बदलाव नहीं चाहते हैं लेकिन मेघवाल का जीवन, उनका हंसमुख स्वभाव, उनकी उम्मीद है और सपने - इस बात की याद भी दिलाते हैं कि प्रभुत्व रखने वाली जातियों के प्रयासों के बावजूद, पुरानी व्यवस्थाएं बदल रही हैं.
मेघवाल की बहन दिव्या सरेल ने न्यूजलॉन्ड्री को बताया, "मेरे भाई का सपना था कि मैं पढ़ूंगी और एक टीचर बनूंगी. वह मुझे कहते थे, 'तुम्हें पढ़ना चाहिए और एक अच्छी नौकरी लेनी चाहिए. मेरे सपने भी ऐसे ही पूरे होंगे.'"
*यह नाम आग्रह अनुसार बदल दिए गए हैं.
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