क्या बसपा की हार के लिए सिर्फ मुस्लिम वोटर्स जिम्मेदार हैं?

बहुजन समाज पार्टी की हार पर क्या कहते हैं राजनीतिक जानकार और पार्टी के नेता.

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मायावती अभी भी एक जिले में जाकर दो-तीन जिलों के उम्मीदवारों को मंच पर बुलाकर उनके पक्ष में प्रचार करती हैं. जबकि उनके विरोधी चाहें वह योगी आदित्यनाथ, अखिलेश यादव या प्रियंका गांधी उन्होंने मायावती के मुकाबले कई गुना अधिक रैलियां कीं और अपनी पार्टी के पक्ष में वोट मांगे. बीते चुनाव में योगी आदित्यनाथ ने करीब 203 चुनावी रैलियां और रोड शो किए, अखिलेश यादव ने 131, प्रियंका गांधी ने 209 और मायावती ने कुल 18 रैलियां की हैं. यानी चुनाव में उनकी सक्रियता काफी कम थी.

पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय राजनीति को बदल दिया है. भाजपा हर दिन लोगों से अलग-अलग तरीकों से संपर्क करती है. फिर चाहें वह किसानों के साथ चर्चा हो, छात्रों के साथ चर्चा हो, सफाईकर्मियों के साथ हो. वह जनता से डायरेक्ट संपर्क में रहती है. लेकिन बसपा चुनाव से कुछ समय पहले उठती है और चुनाव जीतने का दम भरती है. ऐसे अब चुनाव नहीं जीता जा सकता है.”

संजय कुमार कहते हैं, “अगर मायावती को लगता है कि वह अन्य पार्टियों की तरह प्रचार न करके भी चुनाव जीत सकती है तो इस बार के चुनाव परिणामों ने उन्हें इसका जवाब दे दिया है.”

वह आगे कहते हैं, “अब चुनाव पहले जैसे नहीं रहे हैं. जब आपके विरोधी रणनीति बदलते हैं तो आपको भी रणनीति बदलने की जरूरत होती है. अगर आप नहीं बदलेगें तो यह हश्र होगा जो अभी हुआ है.”

चेहरे पर वोट

भारतीय राजनीति में जनता अब चेहरे को देखकर वोट करती है. जैसे लोकसभा के चुनाव में पीएम मोदी को देखकर लोग वोट करते हैं, वैसे ही राज्य के चुनाव में भी चेहरा देखर वोट किया जाता है. इन चुनावों में दो चेहरे जो जनता को साफ दिख रहे थे वह थे योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव. इसलिए असली लड़ाई इन दोनों पार्टियों के बीच हुई और वोटों का बंटवारा भी इसका कारण है.

संजय कुमार समझाते हैं, “बसपा, जेडीयू जैसी जो पार्टियां हैं उनमें भविष्य को लेकर चिंताए हैं, क्योंकि यह पार्टियां एक नेता के चेहरे पर चल रही हैं. ऐसा ही कुछ सपा और राजद के साथ भी है लेकिन अब उन पार्टियों ने उस दौर को पार पा लिया है. अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव ने उस कमी को भर दिया है. लेकिन बसपा जैसी पार्टियों को यह नुकसान हो रहा है और आने वाले समय में भी होगा. क्योंकि जब यह लगने लगेगा कि उसके नेता की राजनीति दखल कम हो रही है तो उसका कोर वोटर दूर चला जाता है.”

मायावती को लेकर इन चुनावों में कई अफवाहें भी फैलाई गईं. जैसे की उनको चुनाव के बाद राष्ट्रपति बना दिया जाएगा, इसलिए बसपा उतनी ताकत से चुनाव नहीं लड़ रही है. हालांकि अब इस बात का खुद मायावती ने हाल ही में दिए अपने एक बयान में खंडन किया है.

आशीष रंजन चेहरा देखकर वोट करने की बात पर कहते हैं, “अब जनता वोट सरकार को देखकर करती है न की स्थानीय प्रतिनिधि. इस बदलाव के कारण ही लोग मोदी सरकार, केजरीवाल सरकार, योगी सरकार, अखिलेश सरकार को लेकर वोट करते हैं. इस बदलाव के कारण ही स्थानीय मुद्दे और पार्टी के खिलाफ नाराजगी को नजरअंदाज कर देते है.”

जातिगत वोट

बसपा के कमजोर होने का फायदा भाजपा को मिल रहा है. बसपा के कमजोर होने के कारण ओबीसी की अन्य जातियों का वोट भी भाजपा की तरफ जा रहा है. भाजपा के पास पहले से ही उच्च जातियों का समर्थन है, ऐसे में दलित और ओबीसी वोट मिलने के कारण ही पार्टी जीत हासिल कर रही है. पार्टी के लिए लोकसभा चुनावों में भी यह वोट बैंक काफी अहम रोल निभा रहा है.

संजय कुमार कहते हैं कि भाजपा जब-जब जीतती है तब यह छवि बनाई जाती है कि उसे सभी जातियों और धर्मों के वोट मिले हैं. वहीं अगर राज्य की पार्टी चुनाव जीतती है तो उन्हें सिर्फ कुछ जाति या धर्म का वोट मिलने की बात कही जाती है. वैसे यूपी चुनाव में यह नहीं कहा जा सकता कि लोगों ने जाति से ऊपर उठकर वोट किया. क्योंकि अगर आप इस बार का भाजपा का वोट प्रतिशत देखें तो उसे उच्च जाति का अधिक वोट मिला, लेकिन यादव वोट उसके साथ नहीं आए. उसी तरह सपा को यादव और मुस्लिम वोट एक तरफा मिले, लेकिन उच्च जातियों का वोट उतना नहीं मिला.

बसपा की हार में एक महत्वपूर्ण बात यह भी रही कि पार्टी के 55 उम्मीदवारों की जमानत उन सीटों पर जब्त हो गई जो आरक्षित सीटें हैं. प्रदेश में कुल 86 सीटें ऐसी है जो आरक्षित हैं. जिनपर सिर्फ दलित समाज के उम्मीदवार ही चुनाव लड़ सकते हैं और यही समाज बसपा का कोर वोटर रहा है. बता दें कि जमानत जब्त न हो उसके लिए किसी उम्मीदवार को 16.7 प्रतिशत वोट जरूरी होता है

उम्मीदवारों का चयन

बसपा की हार का एक कारण पार्टी द्वारा चुने गए उम्मीदवार भी हैं. पार्टी ने सभी वर्गों, जाति और धर्मों को खुश करने के लिए उम्मीदवार उतारे लेकिन वह उम्मीदवार जीत हासिल नहीं कर सके. आगरा, अमरोहा, अंबेडकरनगर, आजमगढ़, लालगंज यह कुछ ऐसे जिले हैं जहां बसपा अच्छा प्रदर्शन करती रही है. आजमगढ़ और आगरा को छोड़कर बाकी जगहों से पार्टी के सांसद भी हैं, लेकिन फिर भी इन जिलों में पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली.

खुद मायावती भी अंबेडकरनगर से चुनाव लड़ती रही हैं, लेकिन वहां पार्टी का प्रदर्शन निराशाजनक रहा. राजनीतिक विश्लेषकों समेत पार्टी के नेता भी हार में उम्मीदवारों के चयन पर भी सवाल खड़ा करते हैं. बसपा के सीनियर नेता कहते हैं, “पार्टी ने कई जिलों में ऐसे उम्मीदवारों को उतारा जो हाल ही में पार्टी में शामिल हुए थे. इसके चलते जो कई बार के विधायक हैं, पूर्व मंत्री रहे उन्हें किनारे कर दिया गया. जिसके कारण भी लोग पार्टी का साथ छोड़ रहे हैं.”

***

दलितों में चेतना और राजनीतिक एकता बढ़ाने के लिए कांशीराम द्वारा बसपा की शुरूआत की गई. 1984 में बनी बसपा का वोट बैंक 1990 से बढ़ाना शुरू हुआ. जिसके बाद 1993 से बसपा ने विधानसभा चुनावों में सीट जीतकर शुरूआत की. 2002 में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने वाली बसपा का वोट प्रतिशत 23 फीसदी हो गया. साल 2007 में बसपा को सबसे ज्यादा 40.4 फीसदी वोट मिला और उसने पहली बार राज्य में अपने दम पर सरकार बनाई. 2007 में जहां बसपा सरकार में थी, वह अब एक सीट पर सिमट गई. पार्टी के 2017 विधानसभा चुनावों में 19 विधायक थे लेकिन 2022 के चुनाव आते आते वह सिर्फ तीन रह गए.

बसपा जिस सोशल इंजीनियरिंग के सहारे सत्ता में रही वह सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला 2012 के बाद पटरी से उतर गया. जिसके बाद से अभी तक पार्टी अपने मूल वोटर तक नहीं पहुंच पाई.

पार्टी की लगातार हार पर सीनियर नेता कहते हैं, “असलियत यह है कि बहनजी के खिलाफ पार्टी में कोई कुछ बोल नहीं पाता है. अगर उन्हें वह पंसद नहीं आया जो आप बोल रहे है तो आप मुसीबत में फंस जाएंगे. उनके आसपास ऐसे लोग हैं जो उनकी बातों को ही सिर्फ सही मानते हैं. इसलिए जो लोग पार्टी में हैं वह क्यों अपने लिए परेशानी खड़ी करेंगे.”

वह आगे कहते हैं कि पार्टी के साथ जो वोट बैंक रहा है वह अब छिटक रहा है और इसकी शुरूआत अभी से नहीं बल्कि साल 2014 के बाद से हो गई थी, जो धीरे-धीरे और बढ़ रह

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