राज्य में सत्ता की लड़ाई, मुख्य रूप से तीन बड़े समुदायों से आने वाले बाहुबलियों के बीच ही है और यहां विचारधारा का कोई ज्यादा महत्व नहीं है.
पूर्वोत्तर भारत की राजनीति में विचारधारा का ज्यादा महत्व नहीं है. केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के साथ गठबंधन करने के लिए विधायकों की दल-बदली आम बात है. उदाहरण के लिए 2014 में, कांग्रेस ने अरुणाचल प्रदेश विधानसभा में 60 में से 44 सीटें जीती थीं. लेकिन 2016 तक, इन 44 कांग्रेस विधायकों में से 43 भाजपा में शामिल हो गए थे.
ऐसा ही कुछ मणिपुर में भी हुआ जहां कांग्रेस 2017 में पिछले विधानसभा चुनावों के बाद, 60 सीटों वाली विधानसभा में 28 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. भाजपा 21 सीटों के साथ बहुत पीछे थी. लेकिन चार-चार सीटों वाले एनपीपी और एनपीएफ के समर्थन से, भाजपा सरकार बनाने में कामयाब रही. तब से लेकर अब तक, कांग्रेस से पलायन, जिसमें पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष भी शामिल हैं, ने भाजपा की संख्या में बढ़ोतरी की है.
हालांकि सभी विधायकों का भाजपा के रास्ते जाने के बावजूद, बीरेन सिंह की सरकार का सफर काफी अस्थिर रहा है. दो साल पहले सरकार लगभग गिरती हुई लगी थी, जब एनपीपी के सभी चार विधायकों समेत नौ विधायकों द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद वह अल्पमत में आ गई थी.
इसकी शुरुआत तब हुई जब सिंह ने, अपने डिप्टी, एनपीपी के जॉयकुमार सिंह और अन्य एनपीपी मंत्रियों को उनके विभागों से हटा दिया था. इसके तुरंत बाद गृह मंत्री अमित शाह, असम के सीएम हेमंत बिस्वा शर्मा, मेघालय के सीएम और एनपीपी प्रमुख कोनराड संगमा के साथ-साथ, मणिपुर के आपस में भिड़ रहे नेताओं के साथ गहन बातचीत हुई, और सरकार किसी तरह बच गई. इससे एक साल पहले जून 2019 में सिंह और भी बड़े विद्रोह से बच गए थे, जब राज्य के 21 भाजपा विधायकों में से 17 ने मणिपुर भाजपा नेतृत्व में बदलाव की मांग की थी. यह मुद्दा महीनों तक चला किंतु अमित शाह और नरेंद्र मोदी के समर्थन की बदौलत, सिंह किसी तरह बच गए थे.
इसलिए इन चुनावों में भाजपा एक बंटा हुआ पक्ष है. उम्मीदवारों की घोषणा के बाद, टिकट के इच्छुक निराश लोगों ने पार्टी छोड़ दी और उनके साथ इन नेताओं के हजारों समर्थकों का पलायन भी हुआ. कहीं-कहीं सिंह और मोदी के पुतले जलाए गए, और इस्तीफा देने वालों ने कुछ पार्टी कार्यालयों को तहस-नहस कर दिया. इन असंतुष्ट, अस्वीकृत भाजपा उम्मीदवारों ने अब मणिपुर में पार्टी के किसी न किसी प्रतिद्वंदी का हाथ थाम लिया है. जिसमें इसकी सहयोगी एनपीपी और हाल ही में पलायन के बाद राज्य में लगभग रातों-रात उभरी, बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) शामिल हैं. यह एक ऐसी पार्टी है जिसने मणिपुर में पिछला विधानसभा चुनाव भी नहीं लड़ा था और लगभग एक महीने पहले तक उसकी नामलेवा उपस्थिति तक नहीं थी. अब वह 38 सीटों पर चार मौजूदा और कई पूर्व विधायकों समेत अपने उम्मीदवार उतार रही है. दिलचस्प बात यह है कि सिंह को अपने कई हाई-प्रोफाइल उम्मीदवारों के विरोध के बावजूद, जेडीयू ने मुख्यमंत्री के खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा किया है.
कम से कम पांच पार्टियों, भाजपा, कांग्रेस, एनपीपी, एनपीएफ और जेडीयू की मौजूदगी को देखते हुए, जिन सभी से कई सीटें जीतने की उम्मीद की जा सकती है - किसी भी एक पार्टी के अपने दम पर बहुमत ला पाने की संभावना कम दिखाई देती है. त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में कई जोड़-तोड़ और समीकरण संभव हो जाते हैं. उदाहरण के लिए, संगमा के नेतृत्व वाली मेघालय की एनपीपी सरकार को वर्तमान में भाजपा और कांग्रेस, दोनों के विधायकों का समर्थन होने का अनूठा गौरव प्राप्त है. यह संभव है कि मणिपुर में एनपीपी कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के पुराने सहयोगी जॉयकुमार सिंह के नेतृत्व में गठबंधन करने के लिए तैयार हों.
इसी तरह स्थानीय मामलो पर नजर बनाए रखने वाले जेडीयू को, मणिपुर में भाजपा की ‘बी-टीम’ के रूप में देख रहे हैं. जिसका मुख्य उद्देश्य उन लोगों को जगह देना है जो किसी कारणवश भाजपा के टिकट पर खड़े नहीं हो सकते, लेकिन भाजपा सरकार का समर्थन कर सकते हैं.
पूर्वोत्तर भारत के राजनेताओं का केंद्र में सत्ताधारी पार्टी का समर्थन करने की प्रवृति (क्योंकि सरकारी फंड वहीं से आते हैं) का मतलब है कि भाजपा को फायदा होगा, भले ही वे दूसरे स्थान पर रहें. वैसा ही जैसा पिछली बार भी हुआ था. उग्रवादी समूह, जिनमें से कई भारत के गृह मंत्रालय के साथ लंबे समय से जुड़े हुए हैं, भी ऐसा ही करते दिखते हैं. इसलिए त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में लामबंदी इस बात पर निर्भर करेगी कि मुख्यमंत्री कौन होगा.
मणिपुर में व्यक्तित्व और अहंकार का बहुत महत्व है. मौजूदा मुख्यमंत्री बीरेन सिंह, एनपीपी जैसे अपने सहयोगियों और उन्हीं के द्वारा कांग्रेस के दलबदलुओं से भरी गई भाजपा में कई लोगों बीच अलोकप्रिय हैं. वे खुद भी कांग्रेस से आए हैं. त्रिशंकु फैसले के आने के बाद अगर नए सौदे होते हैं, तो संभावित सहयोगियों द्वारा उनके बच जाने के चमत्कारी हुनर को एक नई चुनौती मिलेगी.
बहुमत के अभाव में मणिपुर में एक नए मुख्यमंत्री का उदय हो सकता है.
इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.