सीटें चंद, दावेदार अनेक: मणिपुर में बीजेपी झेल रही है जरूरत से ज्यादा उम्मीदवारों की समस्या

भाजपा में हो रही मौजूदा उथल-पुथल को देखते हुए अगर भाजपा इस ज्वार को रोकने में असमर्थ रहती है, तो इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि जीत कांग्रेस के पाले में भी जा सकती है.

WrittenBy:प्रदीप फंजौबम
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भाड़े की राजनीति का जन्म

असंतोष की दूसरी परतें कुछ पुरानी हैं. यह असंतोष उन हालातों से जुड़ा है, जिनमें 2017 में भाजपा की सरकार बनी थी.

जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, तत्कालीन राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला ने इसमें एक बड़ी भूमिका निभाई थी. उन्होंने बहुमत से 10 सदस्यों की दूरी पर खड़ी भाजपा को बहुमत सिद्ध करने का पहला मौका देकर देकर त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति को हल करने की परंपरा को तोड़ दिया. जबकि उन्होंने बहुमत से सिर्फ 3 विधायकों के समर्थन से दूर कांग्रेस के दावे को खारिज कर दिया था. जबकि पुरानी परंपरा के हिसाब से कांग्रेस सदन में मौके की पहली हकदार थी.

ऐसे हालातों में, चुनाव से पहले हुए गठबंधन में बहुमत प्राप्त करने वाली पार्टियों के लिए यह परंपरा है कि उन्हें पहले मौका दिया जाए, फिर सबसे बड़ी पार्टी को, और फिर अगली सबसे बड़ी पार्टी को. यह इस विश्वास के साथ किया जाता है कि राजनीतिक वफादारी की सौदेबाजी को यथासंभव रोकने के अलावा यह सिलसिला सबसे स्थिर सरकार प्रदान करेगा. यह भी एक सामान्य समझदारी की बात है, क्योंकि बहुमत के निशान तक पहुंचने के लिए जितने अधिक दलों की आवश्यकता होती है, राजनैतिक गठन उतना ही अस्थिर होता है, और खरीद-फरोख्त की संभावना भी उतनी ही अधिक होती है.

भाजपा ने अन्य सभी गैर-कांग्रेसी विधायकों का समर्थन करने में कामयाबी हासिल कर ली और विडंबना यह है कि कांग्रेस के एक विधायक के समर्थन का बहुमत के आंकड़े तक पहुंचाने में योगदान रहा लेकिन इसके लिए एक बहुत बड़ी कीमत चुकाई गई. साफ तौर पर इन सभी दलों ने सौदेबाजी की और कैबिनेट में जगह पाने की खातिर यथासंभव जोर आजमाइश की.

वह कांग्रेस विधायक जो शुरू से ही भाजपा में शामिल हुए थें, उन्हें फ्लोर क्रॉस करने के लिए अयोग्य नहीं ठहराया गया और बजाय इसके उन्हें कैबिनेट की सीट से नवाजा गया. नेशनल पीपुल्स पार्टी, जिसने चार सीटें जीती थीं, अपने सभी चार विधायकों के लिए कैबिनेट सीट दिलाने में सफल रही. नगा पीपुल्स फ्रंट, ने भी चार सीटें जीतीं और उसको दो मंत्री पद दिए गए. लोक जनशक्ति पार्टी से सिर्फ एक ही विधायक थे, और उन्हें भी कैबिनेट की सीट मिली.

इससे भाजपा के लिए मुख्यमंत्री सहित सिर्फ चार कैबिनेट सीटें ही बची रह गई थी, क्योंकि 10वीं अनुसूची के तहत मणिपुर जैसे छोटे राज्यों के लिए 12 सीलिंग की कैबिनेट ही निर्धारित है.

भाजपा के लिए यह खुशकिस्मती की बात थी कि उसके कई विधायक युवा थे और चुनावों में पहली बार अपनी किस्मत आजमा रहे थे और सिर्फ जीतने वाली टीम का हिस्सा बनकर ही खुश थे. हालांकि, ऐसे हालातों में पहले ही भविष्यवाणी कर दी गई थी कि जीत के शुरुआती उत्साह के बाद, कई नई परेशानियां जन्म लेंगी. उस वक्त यहां ऐसे विधायक थे जो भाजपा के टिकट पर जीते थे और एक सामान्य विधायक के पद से ज्यादा कुछ भी नहीं चाहते थें, जबकि अन्य दलों के सदस्य उनकी पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री थे.

इस असंतोष ने आगे तक भाजपा सरकार के लिए कई परेशानियां खड़ी की. जून, 2020 में तो इसने सरकार को लगभग गिरा ही दिया. पार्टी को केवल 10वीं अनुसूची के विधानसभा अध्यक्ष के बेहद कम फासले के पक्षपातपूर्ण आवेदन और इसके अयोग्यता प्रावधानों द्वारा बचाया जा सका था.

अधर में रह गए भाजपा विधायकों को शामिल और खुश करने के लिए कैबिनेट रैंक के 12 संसदीय सचिव पद भी बनाने पड़े. लेकिन इस कार्रवाई ने विपक्ष की तरफ से "लाभ के पद" के मामले में अयोग्यता चुनौतियों को भी निमंत्रण दिया, जिसका लगभग पूरे पांच सालों के कार्यकाल तक कोई निष्कर्ष नहीं निकला. क्योंकि एक बार फिर से राज्यपाल हेपतुल्ला इस मामले पर अपनी राय देने के बजाय मामले की फाइल पर बैठी रहीं.

नजमा हेपतुल्ला की विरासत

राज्यपाल हेपतुल्ला के फैसले का एक और दीर्घकालिक परिणाम है. उन्होंने जाहिर तौर पर मणिपुर के राजनीतिक क्षेत्र में नए-नए आने वाले युवाओं के लिए एक गलत मिसाल पेश की है. इस कारण नए आने वाले इन युवाओं को त्रिशंकु विधानसभा की उम्मीद में एक छोटी पार्टी से सिर्फ एक सीट जीतना ही एक बेहतर विकल्प दिखाई दे रहा है.

यदि एक नए राजनेता को स्थापित पार्टियों में से एक से अपनी सीट जीतनी होगी, तो उनकी कैबिनेट सीट हासिल करने की संभावना कम होगी क्योंकि उनके आगे कतार में कई दलों के दिग्गज होंगे. हालांकि, जैसा कि 2017 ने प्रदर्शित किया है, त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में, छोटे दल जो अपने दम पर बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं, वे अभी भी किंग-मेकर्स की भूमिका निभा सकते हैं और उस गठबंधन में शामिल हो सकते हैं जहां उन्हें अपेक्षाकृत मनचाही कीमत मिले.

छोटे दलों के प्रसार ने अपेक्षित रूप से एक दुष्चक्र का निर्माण किया है. ये पार्टियां त्रिशंकु स्थिति का फायदा उठाने के लिए मैदान में आती हैं और बदले में उनके प्रसार ने त्रिशंकु स्थिति की संभावना को भी बढ़ा दिया है. ऐसा होने पर यह एक अत्यंत खंडित राजनीतिक क्षेत्र जिसमें राजनीतिक वफादारी एक चुनाव के अंत में बिक्री भर के लिए होती है. यह पहले से ही लगभग संस्थागत हो चुका है और शायद इससे छुटकारा पाने में दशकों लग जाएंगे.

इस तरह, आगामी मणिपुर विधानसभा चुनाव में भाड़े की राजनीति के जो बीज राज्यपाल हेपतुल्ला द्वारा बोए गए थे, उनके पूरी तरह से खिलने की संभावना है. कई छोटे दल भाजपा के उम्मीदवारों के भंडार से प्रवासियों की फसल काट रहे हैं. इन प्रवासियों के बिना भी उनमें से कई, नए आने वाले और जीतने योग्य उम्मीदवारों को आकर्षित कर रहे थे.

हालांकि किसी भी चुनाव के परिणामों की पूरी तरह से भविष्यवाणी करना संभव नहीं है, ऐसे में मणिपुर के बारे में बहुत व्यापक मानकों का उपयोग करते हुए कहा जा सकता है कि भाजपा को राज्य और केंद्र दोनों जगहों पर शासन करने वाली पार्टी के रूप में एक लाभदायी स्थिति के साथ शुरुआत करनी चाहिए. लेकिन अभी तक कोई भी कांग्रेस को खारिज नहीं कर पाया है. पार्टी के अपने दिग्गज हैं, साथ ही एक मजबूत समर्थन आधार भी है जिस पर वह निर्भर रह सकती है. चुनाव की पूर्व संध्या पर, पार्टी संयम और आत्मविश्वास का एक दुर्लभ प्रदर्शन करते हुए, अपने उम्मीदवारों की सूची के साथ पहली बार सामने आई थी. इसने अब तक भाजपा से वापस पार्टी में लौट कर आने वाले पुराने सदस्यों को भी प्रवेश से वंचित किया हुआ है.

भाजपा में हो रही मौजूदा उथल-पुथल को देखते हुए और अगर भाजपा इस ज्वार को रोकने में असमर्थ रहती है, तो इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि जीत कांग्रेस के पाले में भी जा सकती है.

इसके अलावा, कांग्रेस ने वाम दलों के साथ एक चुनाव पूर्व गठबंधन भी बनाया है. मणिपुर में वाम मोर्चे का आधार हिजाम इराबोट की विरासत पर बनाया गया है, जो आजादी से पहले के युग के एक व्यापक रूप से सम्मानित कम्युनिस्ट नेता थे.

हालिया सालों में, वामपंथी पार्टियां सीटें नहीं जीत पाई हैं, लेकिन उनके वोट बैंक सम्मानजनक बने हुए हैं और सही तरह से लामबंदी देखने को मिली तो उनका आगे भी विस्तार हो सकता है.

लेकिन अगर न तो भाजपा और न ही कांग्रेस कोई भी एक दल बहुमत हासिल करने में सक्षम नहीं होता है, तो पक्के तौर पर सबसे संभावित परिदृश्य 2017 की तरह फिर से राजनीतिक नीलामी का ही होगा.

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