आर्थिक सर्वेक्षण और बजट के बाद के दिनों में गरीबों का भारत बमुश्किल दिखता है.
राहुल गांधी ने जो कहा उस पर बहस होगी, और विडंबना यह है कि भले ही उन्होंने जो कहा वह मुश्किल से दिखाया गया हो, भाजपा के मंत्रियों और प्रवक्ताओं द्वारा उनके भाषण के जवाबों को विस्तार से कवर किया जाएगा. लेकिन उम्मीद के मुताबिक राहुल के भाषण के बाद जिन आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला शुरू हुआ उससे हटकर क्या मीडिया कभी-कभी उस दूसरे भारत की ओर देख सकता है? शंकर और श्रीनाथ जैसे लोगों से बात करने से शायद कोई शानदार सुर्खियां न मिलें. लेकिन उनसे बात करने का मतलब है उनके अस्तित्व को स्वीकार करना, यह स्वीकार करना कि वे भी इस देश का उतना ही हिस्सा हैं जितने वह विशेषज्ञ जिन्हें हम पढ़ते-सुनते हैं.
पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव के सुजाता राव ने 2 फरवरी को इंडियन एक्सप्रेस में छपे अपने लेख में एक ऐसी टिप्पणी की है जिसे पूरे मीडिया को फॉलोअप करना चाहिए. वह लिखती हैं, “असमानताएं बढ़ी हैं. छोटी सी अवधि में लोगों ने चिकित्सकीय उपचार पर अनुमानित 70,000 करोड़ रुपए खर्च किए हैं, जो सरकार को देने चाहिए थे.” वह जिस अवधि की बात कर रही हैं वह कोविड महामारी है. ऑक्सफैम की रिपोर्ट जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है इसी बात की ओर इशारा करते हुए कहती है कि भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं वस्तुतः एक लग्जरी हैं, जो केवल उन्हें मिलती हैं जो इनके पैसे दे सकते हैं.
अब जबकि पिछले दो वर्षों में स्वास्थ्य सेवाओं पर रिपोर्टिंग सबसे महत्वपूर्ण हो गई है, फिर भी आपको ऐसी रिपोर्ट्स खोजने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी. ज्यादातर ऐसी रिपोर्ट्स केवल स्वतंत्र डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर ही मिल सकती हैं.
उदाहरण के लिए, परी वेबसाइट पर पार्थ एमएन की इस रिपोर्ट को लें जो उत्तर प्रदेश के मुसहर समुदाय के बारे में है. यह समुदाय अनुसूचित जातियों में भी निचले पायदान पर है. यह रिपोर्ट न केवल बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के बारे में बताती है, बल्कि उस गहरे पूर्वाग्रह को भी उजागर करती है जिसके कारण एक गर्भवती मुसहर महिला को अस्पताल में भर्ती नहीं मिलती और उसे बाहर फुटपाथ पर ही अपने बच्चे को जन्म देने के लिए मजबूर किया जाता है.
एक अन्य महिला ने उन्हें बताया कि कैसे उनमें से कई लोगों ने पिछले साल महामारी की दूसरी लहर के दौरान बीमार होने पर अस्पताल जाने के बजाय घर पर ही रहना पसंद किया. "जब आप पहले से ही वायरस से डर रहे हों तो उसपर अपमानित कौन होना चाहता है?" उसने कहा.
पार्थ ने आस-पास के गांवों में मुसलमानों से भी बात की, जो उनके साथ होने वाले भेदभाव की कहानियां बताते हैं और आपातकालीन उपचार के लिए एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल जाने के लिए मजबूर होते हैं. नतीजतन, उनमें से ज्यादातर के ऊपर चिकित्सा व्यय के कारण भारी कर्ज चढ़ चुका है.
पार्थ की रिपोर्ट सुजाता राव की बात को पुष्ट करती है कि महामारी के दौरान लोगों को मजबूरी में चिकित्सा पर भारी खर्च करना पड़ा और उनपर कर्ज चढ़ गया. वह लिखते हैं, “यूपी के नौ जिलों के कई गांवों में, महामारी के पहले तीन महीनों (अप्रैल से जून 2020) में लोगों का कर्ज 83 प्रतिशत बढ़ गया. यह आंकड़े सामाजिक संगठनों के समूह कलेक्ट के एक सर्वेक्षण में एकत्र किए गए थे. जुलाई-सितंबर और अक्टूबर-दिसंबर 2020 की अवधि के दौरान लोगों का कर्ज में क्रमशः 87 और 80 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई."
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो इस प्रकार की बारीक रिपोर्टिंग आज अंग्रेजी के प्रिंट मीडिया से विलुप्त हो रही है. परिणामस्वरूप, वह 'दूसरा भारत' हमारी चेतना से गायब हो रहा है जहां इस देश के अधिकांश नागरिक रहते हैं.
पहले चुनावी कवरेज के दौरान पत्रकारों को ग्रामीण भारत में लोगों की वास्तविक समस्याओं को समझने का मौका मिलता था. आज आप केवल जाति और समुदाय की गणना और विभिन्न राजनीतिक दलों और राजनेताओं की ताकत और कमजोरियों के बारे में अंतहीन रिपोर्टें पढ़ते हैं.
यद्यपि इस तरह की रिपोर्ट्स भी आवश्यक हैं, लेकिन क्या इनको पढ़ने वाले लोगों को उन क्षेत्रों के बारे में कुछ पता चल पाता है? क्या इन जगहों का अपना इतिहास है? वहां आजीविका के क्या स्रोत हैं? क्या पानी उपलब्ध है? सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं का क्या हाल है? क्या लोग वहां तक पहुंच पाते हैं या ज्यादातर लोग निजी डॉक्टरों से इलाज कराते हैं और कर्ज में डूब जाते हैं? और पर्यावरण के मुद्दों का क्या?
चुनावी रिपोर्टिंग में इन मुद्दों को भी उठाया जा सकता है. इससे पाठक भारत के कुछ हिस्सों की वह तस्वीर देख पाते हैं, जिन्हें आमतौर पर अनदेखा किया जाता है. वह हमारी दृष्टि में तभी आते हैं जब वहां कोई बड़ी आपदा आती है और, निस्संदेह, चुनाव के दौरान.
इस तरह की कहानियां नियमित और घिसी-पिटी रिपोर्ट्स की तुलना में कहीं अधिक दिलचस्प होती हैं. फिर भी, मुख्यधारा के मीडिया में ऐसी रिपोर्टिंग मिलना मुश्किल है. दूसरी ओर, न्यूज़लॉन्ड्री, वायर और स्क्रॉल जैसे स्वतंत्र डिजिटल प्लेटफॉर्म कम संसाधनों के साथ भी ऐसा कर रहे हैं.
यद्यपि कुछ लोगों ने राहुल गांधी की सराहना की है की उन्होंने अपने भाषण में इस 'दूसरे भारत' की याद दिलाई, फिर भी जल्द ही इसे भुला दिए जाने की संभावना है. जैसे-जैसे चुनाव का दिन नजदीक आ रहा है, बड़े मीडिया घराने पूरी तरह से विजेताओं और पराजितों के बारे में अटकलें लगा रहे हैं. इन सबके बीच, देश के शंकर और श्रीनाथ अभी भी जी रहे हैं, बमुश्किल.