सन 2021 इस बात का गवाह है कि सच बोलकर उसकी कीमत चुकाने वाले पत्रकारों की संख्या घटती जा रही है क्योंकि ज्यादातर को दूसरी और तीसरी जमात में शामिल होने का सुविधाजनक रास्ता दिख गया है.
जाता हुआ साल जाने क्यों शायराना सा मालूम देता है. बहुत कोशिश कर के भी पीछे नज़र ही नहीं जाती. गोया लिखी हुई इबारत को जाने कौन माज़ी बना गया. यह साल, बड़े से बड़े काफि़र को नमाज़ी बना गया. जिसे देखो उसको बेगानी शादी में काज़ी बना गया. और जाते-जाते इलाहाबादियों को प्रयागराजी बना गया. मौका है और दस्तूर भी, तो शुरुआत अज़ीम शायर अकबर इलाहाबादी से ही कर लेते हैं.
ले ले के क़लम के लोग भाले निकले / हर सम्त से बीसियों रिसाले निकले
अफ़्सोस कि मुफ़़लिसी ने छापा मारा / आख़िर अहबाब के दिवाले निकले
वाकई, मुफ़लिसी बहुत बुरी चीज़ है. तोप का मुकाबला करने के लिए लोग अखबार तो निकाल लेते हैं लेकिन अगले दिन गाड़ी में तेल नहीं भरवा पाते. नतीजा? अगली रात कई घरों में चूल्हे नहीं जल पाते. अब कायदा तो ये होता कि जाड़े की हर शाम पहले कॉनियेक का इंतज़ाम जुटता, उसके बाद अदब और सियासत पर फ़तवे दिए जाते. अव्वल तो इलाकाई पत्रकारों को दिल्लीवासी पत्रकारों से पत्रकारिता का सबक लेना चाहिए- पहले सामान जुटाओ, फिर अखबार निकालो! पर सबक भी क्या लेंगे बेचारे, जब देश भर के अखबारों और पत्रकारों को इन लोगों ने पहले ही खत्म साबित कर दिया है और पत्रकारिता को जिंदा बचाए रखने का श्रेय चुनिंदा वेबसाइटों की झोली में भर दिया है.
ऐसे विकट नक्षत्र में जब साल भर की अखबारी परिक्रमा लिखने का बोझ मेरे कंधे पर आन पड़ा है तो सोच रहा हूं कि क्या खाकर लिखूं, जबकि कोई अखबार पत्रकारिता को जिंदा रखने में काम ही नहीं आ रहा! साल भर का लेखा-जोखा तो हर पखवाड़े की पक्षकारिता को पढ़ कर ही मिल सकता है. अब अलग से इस बात पर क्या खीझ निकाली जाय कि साल बीतते-बीतते भी हिंदी के अखबार योगीजी का फुल पेज विज्ञापन छापने में लगे हैं. हां, एक अचरज बेशक हुआ यह देखकर बुधवार को कि तमाम बड़े हिंदी अखबारों में हेमंत सोरेन दो पन्ने पर छाए रहे. अब दिल्ली या उत्तर प्रदेश का पाठक खबर के लिए अखबार ले और उसमें झारखंड के मुख्यमंत्री छाये रहें, तो उसके किस काम का? शायरी ऐसे ही मौकों पर काम आती है. मोहसिन भोपाली लिखते हैं:
इबलाग़ के लिए ना तुम अखबार देखना / हो जुस्तजू तो कूचा-ओ-बाज़ार देखना....
तो सूचनाओं के लिए नहीं, आइए चलते हैं आज हिंदी अखबारों के बाज़ार की सैर पर जहां एक से एक खरीदार और बिकवाल बैठे हुए हैं. जहां मुफ़लिसी अकबर इलाहाबादी के ज़माने से ही पैदायशी रोग है जो कलम के भालों को भोथरा कर देती है और कलमवीरों को उनकी किस्मत पर छोड़ देती है. पहले मुफ़लिसों की बात.
बदकिस्मत मुफ़लिस
कुछ महीने पहले अपने पुराने साथी माजिद भाई बड़े खुश नज़र आ रहे थे. उन्हें बरसों बाद बैठने को एक दफ़्तर मिला था. वे दबा के सरकार विरोधी लेख छाप रहे थे. कुछ लेखों को छापने के लिए जब उन्होंने मुझसे मंजूरी मांगी, तब जाकर पता चला कि नोएडा में उन्होंने एक नया अखबार पकड़ लिया है. सियासी जानकारी और अदब के मामले में जिस शख्स को पश्चिमी यूपी का प्रवक्ता होना था, वो चालीस पार में सबएडिटरी कर रहा था, फिर भी गनीमत मानिए. अखबार का नाम था 'स्पेस प्रहरी' और संपादक थे रियाज़ हाशमी, जिनका सहाफ़त में ठीकठाक नाम है.
कोई महीने भर पहले वज्रपात हुआ. एक और साथी सादिक ज़मां ने बताया कि अखबार बंद हो गया है. तब पता चला कि वे भी उसमें लगे हुए थे. माजिद भाई से तो बात ही नहीं हो सकी. खबर आयी कि मालिक तीन महीने अखबार चलाकर बिना तनख्वाह दिए भाग गया. सादिक बहुत परेशान थे. ऐसे मामलों में नोएडा में हम लोगों ने लेबर ऑफिस से कई को हर्जाना दिलवाया है, लेकिन वो पुराने इंडिया की बात थी. 'न्यू इंडिया' में तो श्रम कानून ताखे पर रखे हुए हैं. सो, कोई कुछ नहीं कर पाया. दो दर्जन से ज्यादा कलमवीर एक झटके में हलाक हो गए.
कोई इसी हालात में आज उत्तर प्रदेश के तमाम अखबार और पत्रकार हैं. केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय ने कड़ा रुख अपनाते हुए पांच साल से सालाना विवरण न देने वाले अखबारों और पत्रिकाओं के खिलाफ कार्रवाई का आदेश दिया है. इस आदेश के अनुपालन के लिए संबंधित जिलों के अधिकारियों ने कार्रवाई की शुरुआत कर दी है. बेशक तमाम धंधेबाज़ अखबार भी होंगे इस सूची में, लेकिन इस इकलौते आदेश से कितने पत्रकार सड़क पर आ जाएंगे इसका अंदाजा केवल इस तथ्य से लगाइए कि अकेले सुल्तानपुर जिले में ऐसे पचास से ज्यादा प्रकाशनों का वजूद खतरे में है.
मालिक ठीक रहे, सरकार की भी कृपादृष्टि बनी रहे, तब भी पत्रकार की जान की कोई गारंटी नहीं है. बिहार और राजस्थान की दो खबरें पाठकों को जाननी चाहिए.
बिहार के बेनीपट्टी में एक युवा पत्रकार अविनाश झा को इसलिए जलाकर मार दिया गया क्योंकि वह स्थानीय स्तर पर निजी अस्पतालों के भ्रष्टाचार को उजागर कर रहे थे. बीते 9 नवम्बर को अविनाश का अपहरण हुआ, 12 नवंबर को उसकी अधजली लाश मिली, 13 को अंतिम संस्कार हुआ व 14 को अविनाश के न्याय के लिए परिजनों के समक्ष अविनाश के घर पर एकत्रित जनसमूह के बीच सर्वदलीय संघर्ष समिति का गठन हुआ. उसके बाद से महीना भर बीत चुका है पर अविनाश को इंसाफ़ दिलवाने के लिए संघर्ष जारी है.
पिछली ताज़ा जानकारी स्थानीय पत्रकार विकास की वॉल से देखिए:
दिसंबर के तीसरे हफ्ते में ऐसी ही एक घटना बाड़मेर में हुई. सूचना अधिकार कार्यकर्ता अमराराम जाट ने 'प्रशासन गांव के संग' कार्यक्रम के दौरान 15 दिसंबर को कुपलिया पंचायत के नरेगा कार्यों में वित्तीय गड़बड़ी, घटिया सामग्री, आवास योजनाओं में अनियमितता के अलावा अवैध शराब बिक्री के खिलाफ शिकायत की थी, जिसके बाद पुलिस ने छापा मारा था. इसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी. दबंगों ने अमराराम के हाथ पैर तोड़े और पैरों में लोहे की कीलें ठोंक दीं. उसे अधमारा छोड़ कर वे भाग गए. खबर नीचे है.
शौकिया मुफ़लिस
हिंदी पत्रकारिता के बाज़ार का एक दूसरा मंज़र भी है. यहां नौकरी नहीं जाती. जान भी नहीं जाती. यहां ईमान जाता है. वजह मुफ़लिसी भी हो सकती है और ख्वाहिश भी, हालांकि ख्वाहिशों की बात पत्रकार इतनी आसानी से मानते नहीं हैं क्योंकि उससे कलम के भाले की नोक भोथरी दिख जाने का खतरा होता है. मामला कुल मिलाकर शौकिया ही होता है. समाचार फॉर मीडिया ने ऐसे कुछ मुफ़लिसों की सूची छापी है.
इनकी मुफ़लिसी का आलम देखिए कि इनमें सभी ठीकठाक रसूखदार पत्रकार हैं (केवल जवाहर सरकार को छोड़ कर) और पत्रकारिता छोड़ने की कोई खास वजह इनके पास नहीं होनी चाहिए थी लेकिन इन्होंने सियासत का दामन थाम लिया. यह सूची छोटी है. चुनावी मौसम में नाम गिनवाए जाएं तो बीते छह महीने या एक साल में पत्रकारिता से राजनीति में गए कलमवीर पत्रकारों की जमात बहुत बड़ी दिखने लग जाएगी. इनके पास ऐसा करने का अपना तर्क है. ये लोग देश को बचाना चाहते हैं. इसका साफ़ मतलब है कि देश पत्रकारिता से नहीं बच रहा था. या ये भी हो सकता है कि ये खुद को बचाना चाह रहे हों! चाहे जो हो... शौक बड़ी चीज़ है!
बाज़ार में तीसरी जमात ऐसी है जो ऊपर वालों के जितना साफ़दिमाग नहीं है. ऐसे मुफ़लिसों के साथ धूमिल अच्छे से न्याय करते हैं जब कहते हैं, ''कांख भी ढंकी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे''. अब चाहे जितना जतन कर लीजिए ऐसा संभव नहीं हो पाता, ये सब जानते हैं. कांख दिख ही जाती है. आजकल चूंकि मोदी-योगी विरोध का एक ठीकठाक बाजार है और इसका खास पोषण दिल्ली, राजस्थान, महाराष्ट्र और सबसे ज्यादा छत्तीसगढ़ से होता है तो इस जमात को पहचानने के लिए बहुत मशक्कत नहीं करनी पड़ती. बस, छत्तीसगढ़ या दिल्ली या महाराष्ट्र से जुड़ी किसी बड़ी घटना पर एक से ट्वीट या रीट्वीट करने वाले दिल्लीवासी कलमवीरों को पहचान लीजिए. इनमें से सबके अपने-अपने तर्क हो सकते हैं. हां, इनमें कायदे से मुफ़लिस कोई नहीं है. सब ठीकठाक संपन्न और सक्षम लोग हैं.
ऊपर बतायी गयी दोनों जमात के बीच एक खुला समझौता है कि ये पहली जमात वाले बदकिस्मत पत्रकारों को मुंह उठा के भी नहीं देखेंगे. बहुत हुआ तो अपने पत्रकारिता बचाओ यज्ञ में सहानुभूति का एकाध अक्षत् भले दिवंगत के नाम से छिड़क देंगे. इन पत्रकारों की सबसे बड़ी चिंता पत्रकारिता को बचाना है और इनकी सबसे बड़ी राजनीतिक समझदारी यह है कि पत्रकारिता भाजपा की सत्ता के हटने से ही बच पाएगी.
2021 का नया पत्रकार
सन् 2021 इस बात का गवाह है कि सच बोलकर उसकी कीमत चुकाने वाले पत्रकारों की संख्या घटती जा रही है क्योंकि ज्यादातर को दूसरी और तीसरी जमात में शामिल होने का सुविधाजनक रास्ता दिख गया है. आज की तारीख में हिंदी पट्टी में बड़ी संख्या उन पत्रकारों की है जो किसी न किसी राजनीतिक दल के लिए काम कर रहे हैं, किसी नेता या प्रत्याशी का सोशल हैंडल चला रहे हैं, किसी पार्टी के लिए सर्वे कर रहे हैं या सीधे तौर पर राजनीतिक कार्यकर्ता बन चुके हैं. बनारस में ऐसे पत्रकारों के लिए एक नया नाम ईजाद हुआ है ''योगी सेवक पत्रकार''. नीचे दी गयी तस्वीर प्रधानमंत्री मोदी के बनारस दौरे के बीच एक मित्र ने भेजी है.
ये ''योगी सेवक पत्रकार'' नाम की जो उपलब्धि है, बाजार की दायीं पटरी पर वैध और सम्मानजनक मानी जाती है. बाजार की बायीं पटरी पर कोई किसी का सेवक होना घोषित तौर पर स्वीकार नहीं कर सकता, भले उससे सप्लाई की पाइपलाइन खुली रहे. यह बुनियादी फर्क है दोनों पटरियों की पत्रकारिता के बीच, जो इस साल थोड़ा और साफ हुआ है. जाहिर है जब पत्रकार योगी सेवक होंगे और योगी सेवक पत्रकार होंगे, तो अखबार भी मालिक की ही सेवा करेंगे, पाठकों की नहीं.
बनारस से ही आयी एक और तस्वीर ऐतिहासिक है जहां ट्रेन के भीतर अखबारों को कुछ इस करीने से मोड़कर सीटों पर टांगा गया है कि अखबार खबर नहीं, विज्ञापन दिखाए.
बहरहाल, मुफ़लिसी में सबका दिवाला नहीं निकलता ये सच है. अविनाश झा और अमराराम जैसे लोग इसका उदाहरण हैं. इनके जैसे पत्रकार अपनी जान देने पर क्यों अड़े हैं? क्या इसलिए कि भारत में पत्रकारिता मर जाए? तमाम दिल्लीवासी पत्रकारों को दिल्ली से बाहर भी देखना चाहिए. उन्हें पत्रकारिता के जिंदा रहने की कीमत दिखायी देगी.
बनारस का 'अचूक संघर्ष'
कोरोना काल में दैनिक भास्कर की पत्रकारिता पर इसी स्तंभ में पहले बात की जा चुकी है. अगर साल भर की परिक्रमा कर के किसी एक परिघटना को गिनवाने के लिए मुझे चुनना हो तो मैं इसके लिए फिर से बनारस का ही रुख करूंगा. वहां से एक अखबार निकल रहा है जिसका नाम है 'अचूक संघर्ष'. हर दूसरे दिन इसके पहले पन्ने की हेडलाइन को फेसबुक पर लहराते देखा जा सकता है. कुछ लोग इधर बीच अंग्रेजी के 'दि टेलीग्राफ' से भी इसकी तुलना करने लगे हैं. तुलना गैर-वाजिब नहीं है. कुछ उदाहरण देखिए:
केवल खबरों की तीखी हेडलाइन लगाना एक बात है, लेकिन इस अखबार की खूबी यह है कि पहले पन्ने पर इसमें कभी-कभार लीड के बतौर गंभीर लेख छाप दिए जाते हैं. यह नया प्रयोग है और बाकायदे वैचारिक है, हवाई नहीं. समाचार की जगह विचार को रख देना अगर पत्रकारिता-धर्म के लिए आज ज़रूरी है तो यही सही. उदाहरण देखें:
आप सवाल पूछ सकते हैं कि बाकी छोटे-बड़े अखबार इतना भी साहस क्यों नहीं कर पा रहे हैं. सवाल जायज है. इसका जवाब भी 'अचूक संघर्ष' अपने पहले पन्ने पर दे चुका है:
हेडलाइन देखिए- जिसके "मुंह में लॉलीपॉप" हो उसके मुंह से आवाज कैसे फूटेगी?
''अचूक संघर्ष'' 2021 में हिंदी पत्रकारिता की विकट और मौलिक उपलब्धि है. यह कितने दिन टिकेगा इसी स्वरूप में, यह बाद की बात है. फिलहाल इसने बाकी हिंदी अखबारों को आईना तो दिखा ही दिया है कि संकट के दौर में कैसे काम किया जाना चाहिए. कुल मिलाकर यही है बीते साल की परिक्रमा का सार- जो बोलेगा वो बचेगा, जो बोलने से बचेगा वो बिकेगा.
एक और कलंक
चलते-चलते हिंदी पत्रकारिता के स्थायी कलंक दैनिक जागरण से एक लीक हुआ संवाद देखिए और सोचिए कि अखबार के कार्यकारी संपादक की बेटी की शादी को मय फोटो दो कॉलम की राष्ट्रीय खबर क्यों होना चाहिए. तब शायद आपको समझ में आए कि सात दशक में चलते-चलते यह राष्ट्र दक्खिन की दिशा में कहां तक पहुंच चुका है. अगले पखवाड़े तक नव वर्ष की शुभकामनाएं.