जब भी किसी ने थोड़ी पत्रकारिता करने का थोड़ा-मोड़ा साहस दिखाया, उन पर सरकार ने अपने गुर्गे भेजकर छापा डलवा के संदेश साफ कर दिया.
हर तरह की दुर्दशा से गुजर रहे (आर्थिक, लोकतांत्रिक, संवैधानिक, न्यायिक, कूटनीतिक, रणनीतिक) देश को देखने, पढ़ने, सवाल करने जब कम हो जाएंगे, तो बहुत से लोगों को ये उम्मीद है कि लोग जिस सच को अपनी हड्डियों तक महसूस कर रहे हैं, वह झूठा और नकली लगने लगेगा. परसेप्शन (अवधारणा) आजकल प्रचलन में ज्यादा है, सरकार, सत्ता, राजनीति, चुनावी रणनीतियों के चलते. मुख्यधारा का मीडिया इस अवधारणा- निर्माण की कठपुतली बनकर खुश है. उन्हें अभी भी लग रहा है कि लोग उनको पढ़ और सुन रहे हैं, अपना वक्त उनपर खर्च कर रहे हैं, उन्हें संजीदगी और सम्मान के साथ ले रहे हैं. जो अवमूल्यन और क्षरण लोकतंत्र के बाकी स्तंभों का हाल में हुआ है, मीडिया उनमें सबसे भुरभुरा साबित हो रहा है. इतिहास का पहला मसविदा, जल्दबाजी में लिखा गया साहित्य कभी कहा जाता रहा होगा, पर पत्रकारिता का पहला काम सवाल करने का साहस दिखलाना था. पर ऐसा होता हुआ दिखा नहीं.
मुख्यधारा का मीडिया इस जुर्म में शरीक है. सोशल मीडिया भी. सरकारी मीडिया. प्रायोजित मीडिया. हांका लगाता हुआ. सच से अपने दर्शकों, पाठकों, श्रोताओं की निगाहें हटाने की कोशिश करता हुआ. जहां शोर, सनसनी, चौंध तो बहुत है, पर रौशनी तेजी से गायब होती जा रही है. मीडिया का भारत अलग है. शहर से गांव लौटता, अस्पताल में बिस्तर और इलाज के लिए तरसता, बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई से जूझता भारत अलग. महामारी के वक्त सूचना तंत्र की भूमिका वैसे ही हो जाती है, जैसे किसी जंग या किसी दूसरे विश्व संकट के दौर में. हर ऐसे हालात में हमारे असली रंग सामने आ जाते हैं. हालांकि महामारियों की मुश्किलें युद्ध से कहीं ज्यादा है. युद्ध के मोर्चे कहीं ज्यादा परिभाषित होते हैं, उनके लिये तैयारियां रहती हैं. महामारी का मोर्चा हर मनुष्य है. इसलिए सूचना तंत्र की भूमिका और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है. क्या हम ऐसा कर सके?
मसलन एक नीम हकीम बहुत सारे मीडिया समूहों के प्रमुख विज्ञापनदाताओं में से एक है. वह जब देखो तब अपनी ऊट-पटांग बातों को लेकर प्राइमटाइम और बाकी जगह अपना अधकचरा ज्ञान भी बखेरता रहा है. कोरोना फैला तो ये नीम हकीम पता नहीं कौन से चूरण की गोली लेकर आ गया, और नरेन्द्र मोदी सरकार के दो शीर्ष मंत्रियों के साथ उस गोली के साथ फोटो भी खिंचवा लिए. अब इस गोली की वैज्ञानिक जांच-परख न तो पुष्टि हुई, बल्कि मेडिकल संस्थाओं ने उस पर सवाल जरूर खड़े किए. पत्रकारिता को क्या करना चाहिए था? और मीडिया इंडस्ट्री ने क्या किया. किसी और समय या लोकतांत्रिक देश में महामारी के वक्त इस तरह की घटना के पीछे लिप्त लोगों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चला दिया जाता. पर भाई का जलवा पूरी तरह गालिब रहा.
उपलब्ध डेटा के मुताबिक दुनिया भर में 26 करोड़ लोग संक्रमित हुए. दुनिया भर में अब तक 51.7 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई. 23.50 करोड़ लोग कोरोना से बच कर बाहर निकल गए. भारत में ये आंकड़ा 3.48 करोड़ लोगों को संक्रमित होने का है. मौत का आंकड़ा 4.8 लाख है. पौने चार करोड़ लोग कितने होते हैं, इसका क्या अंदाजा है? पौने पांच लाख कितने? कितने चेहरे, कितने नाम, कितने वोटर कार्ड, कितने परिवार, कितने फुटबॉल मैदान चाहिए होंगे इतने सारे लोगों को खड़ा करने के लिए, कितने बैंक अकाउंट, कितने आधार कार्ड, कितनी नौकरियां, कितनी जिम्मेदारियां. हम कैसे देखते हैं.
आप सोच पा रहे हैं इस संख्या को? महसूस कर पा रहे हैं? मैं नहीं लगा पाता. वह असंख्य के करीब लगता है. आपमें से कितने लोगों को लगता है, कि ये संख्या सच्ची और ईमानदार है? मुझे अंदाजा नहीं है पहले दी गई संख्या के वास्तविक आकार प्रकार का. दूसरा मैं जानता हूं, आप भी- बहुत सारा झूठ बोला गया, बहुत सारे आंकड़े छुपाए गए हैं इसलिए जीवन- मौत से जूझ रही एक आबादी के साथ न सच बोला गया, न ईमानदारी बरती गई. चूरण की गोली जरूर बेच ली गई.
महामारी के दौरान पूरी दुनिया के सूचना तंत्र को देखना भी उस पैटर्न को देखना समझना है, जिस तरह से हम और हमारी सरकारें बदल रही हैं. खास तौर पर दक्षिणपंथी सरकारें. सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि इसी तरह के रवैये अमेरिका, ब्रिटेन, ब्राजील में भी देखे गए. जहां लिबरल मॉडरेट सरकार में थे, उनका रवैया बिल्कुल उलट था. जैसे हमारे यहां लोग कोरोनिल और गोबर से कोरोना का इलाज करने की बात कर रहे थे, वैसे ही अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ब्लीच खाने की वकालत कर रहे थे. उसके उलट कनाडा और न्यूजीलैंड जैसे देशों में लोगों के प्रति सरकार के रवैये कहीं ज्यादा सहानुभूतिपूर्ण थे.
चाहे लॉकडाउन लगवाना हो, या फिर उससे प्रभावित लोगों को मदद पहुंचाना. उन देशों में कोरोना का असर भी सीमित रहा. अमेरिका और इंग्लैंड में महामारी के कारण प्रभावित लोगों को मदद देने तक खासी देर हुई. अमेरिका में वैज्ञानिकों की राय आती तो रही, पर सरकारें बार-बार उन पर सवाल खड़ा करती रहीं. ट्रम्प के हारने के पीछे एक महत्वपूर्ण वजह कोरोना की बदइंतजामी, उसके बारे में दुष्प्रचार, और भ्रम फैलाने वाली बातें हैं.
कोरोना के सामने जो सबसे ज्यादा बेबस और अप्रभावी साबित हुए, वह हैं हमारे ज्योतिषी और हमारे ईश्वर. पर अगर अपने मीडिया को देखें तो दोनों की महिमा पहले से कम नहीं हुई हैं. ऐसा भी नहीं हुआ कि हमारा साझा यकीन विज्ञान पर बढ़ा हो. जबकि ये एक ऐसा समय था, जब पूरे देश और दुनिया को एक साथ होकर इससे लड़ना चाहिए था. ये काम मीडिया का होना चाहिए था, पर उसे चीयरलीडर होने से फुरसत नहीं थी.
सूचना पहुंचाने, सवाल करने, और इस समय को ठीक से दर्ज करने की जो कोशिशें हुईं वह ज्यादातर नौजवानों ने मोबाइल पत्रकारिता के ज़रिये कीं. चुनौतियों के इस दौर की सबसे आश्वस्त करने वाली बात यही है, कि छोटे और ज्यादातर डिजिटल संस्थानों के जरिए और कई तो खुद ही अपने प्रकाशक बन कर खबरें और मुद्दों को लोगों तक पहुंचाते रहे. भले ही ये बहुत टिकाऊ तरीका नहीं हो, पर इसके जरिए पत्रकारिता मीडिया इंडस्ट्री के कारण नहीं, बल्कि बावजूद जिंदा रह गई है. उनमें से बहुत से हैं जो चंदा मांगकर अपना काम चला रहे हैं. कुछ ने अपना सब्सक्रिप्शन मॉडल बनाया है. पत्रकारिता को बचाने का तरीका अब शायद यही है, जब तक विज्ञापन, सरकारों और बड़े डिजिटल संस्थानों के एल्गोरिदम से सूचना तंत्र मुफ्त या सबसिडाइज्ड रहेंगे, उनसे निष्पक्ष और सटीक पत्रकारिता की उम्मीद करना मुश्किल है. अब पहले से कहीं ज्यादा.
आगे के रास्ते विकास संवाद जैसी सजग और ईमानदार पहलों से निकलते हैं. जिनके जरिए हम पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों की तरफ लौटते हैं. किसी भी स्वस्थ और जागरूक समाज के लिए सवाल करना वह पहली शर्त हैं, ताकि हम समस्याओं से निकल कर समाधानों की तरफ पहुंच सकें. उसमें तथ्यों की रौशनी की तरफ लौटना जरूरी है, उनकी पुष्टि करना और उसमें सर्व हित की तरफ ले जाना भी. और इस फिक्र के साथ कि हम जो भी कर रहे हैं, उसमें कतार के आखिरी की फिक्र भी रहे.