भारतीय आचार्यों की समस्या यह थी कि वह लोगों को यह कैसे बताएं कि आनंद देने वाले रस की उत्पत्ति होती कैसे है? उन्होंने मनुष्य के हृदय में बसने वाले भावों के दो भाग किए.
सांप्रदायिकता इस काल का महारस है. भरत मुनि को यदि दोबारा जीवित हो कर अपने नाट्य-शास्त्र के छठवें अध्याय में कुछ हेर-फेर करने का अवसर मिलता तो वह सांप्रदायिक रस को महारस घोषित करते और लगे हाथ इस बात का स्पष्टीकरण भी देते कि वह अपने अतीत के जीवन-काल में इस रस को महारस घोषित क्यों नहीं कर पाए. संस्कृत नाटकों की परंपरा में कई भाष्यकार पैदा हुए हैं. मुनि भरत तो हैं ही. उनके बाद दंडी, धनंजय, उद्भट, मम्मट और अभिनवगुप्त नाम के अनगिनत विद्वान हुए पर किसी अभागे को सांप्रदायिक रस न सूझा. किसी ने श्रंगार रस को अव्वल माना तो किसी ने करुण को. यदि 11वीं सदी में पैदा हुए आचार्य मम्मट ने सांप्रदायिक रस की एक चम्मच चख ली होती तो वह किसी आलतू-फालतू रस को ‘ब्रह्मानंद सहोदर’ का तमगा देते? वह बेलाग लपेट सांप्रदायिक रस को ‘सत्तानंद सहोदर’ घोषित कर देते. यह रस है ही इतना पॉवरफुल!
शास्त्रों में यह अभिकथित है कि जिसका मजा लिया जाए वह रस है- रस्यते आस्वाद्यते इति रसः. बात सही भी है जहां आनंद ही न आए वहां रस किस बात का. वह तो नीरस हुआ. भारतीय आचार्यों की समस्या यह थी कि वह लोगों को यह कैसे बताएं कि आनंद देने वाले रस की उत्पत्ति होती कैसे है? उन्होंने मनुष्य के हृदय में बसने वाले भावों के दो भाग किए. पहला हुआ स्थायी भाव और दूसरा अस्थायी या संचारी भाव. बाद वाला पहले वाले की निष्पत्ति में मदद करता है इसलिए वह कहलाया संचारी. संचारी भाव का दूसरा नाम व्यभिचारी भाव भी है.
इन सबके घालमेल से रस पैदा होता है जिसे मुनि भरत यूं समझाते हैं- विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद्रस निष्पत्तिः. लब्बोलुआब यह कि रस को किसी एकल भाव के दम पर पैदा नहीं किया जा सकता. रस कई सारे मसालों से मिलकर पैदा होने वाली चीज है. अब आप समझ पाएंगे कि समकालीन भारत का रस-राज अर्थात सांप्रदायिक रस की निर्माण-प्रक्रिया कैसे चल रही है. इस रस के निर्माण के लिए दो निहायत ही जरूरी मसालों अर्थात भावों का नाम है- हिंदू और मुस्लिम. उग्रता इसका संचारी भाव है और घृणा स्थायी भाव. खुले में नमाज का इस रस का उद्दीपन है और मुसलमान से जुड़ा हुआ कोई भी टॉपिक इसका आलम्बन और जिन सहृदय जनों के ‘हृदय की मुक्तावस्था’ में इस रस का सबसे अधिक ‘आश्रय’ है वो ‘सहृदय जन’ हैं- भारत का मध्य-वर्ग.
यूं तो समाज के किसी भी वर्ग को रसास्वादन की मनाही कभी नहीं रही है, ये पुराने जमाने के ठलुआ किंतु सुविधासंपन्न कुलीन लोग थे जो रसों का भर-भर कर रसपान करते थे. आज के भारत में सांप्रदायिक रस नाम के इस रस के रस-पान में मुख्य रूप से मिडिल क्लास लगा है. छात्र से लेकर प्रोफेसर तक, संत से लेकर वैज्ञानिक तक, मुलाजिम से लेकर हाकिम तक, रोजगारशुदा से लेकर बेरोजगार तक, अनाड़ी से लेकर खिलाड़ी तक, कार्यकर्ता से लेकर नेता तक, निर्देशक से लेकर अभिनेता तक, श्रमिक से लेकर उद्योगपति तक, पत्नी से लेकर पति तक, किसी भी रस को एक साथ और एक ही काल-खंड के भीतर ऐसा सामूहिक रसास्वादन करने वाले रस-ग्राही कभी नसीब नहीं हुए. यह इस रस का कालजयी सौभाग्य है. रोज शाम को सूरज ढलते ही सोफासीन होकर इस देश का मध्यवर्ग टीवी चैनलों के उन खबरिया कार्यक्रमों के घटाघोप अंधेरों में डूब जाता है जिनका प्रोडक्शन चैनलों के संपादकगण द्वारा स्टूडियो के महाचोंधक प्रकाश में किया जाता है.
चेतना के स्तर पर इस महारस की घंटी इतिहास के कचरा-ज्ञान से बजती है. कचरा-ज्ञान की बहुतायत में उपलब्धता यह सुनिश्चित करती है कि इतिहास अपने एकतरफा, अविष्लेष्य और विकृत रूप में ही समाज के धरातल पर पहुंचे और पहुंचकर लंबे समय तक वहीं ठहर जाए. इतिहास के इस कचरा-ज्ञान की छोटी छोटी टैबलेट्स बनाकर पठन-पाठन के लिए व्हाट्सएप विश्वविद्यालय में भेज दी जाती हैं. इन टैबलेट्स के उत्पादन और वितरण के लिए वाकायदा एक सिस्टम होता है. यहां लोगों को पेशेवर तौर पर रखा जाता है जो अपने रचनात्मक कौशल से दिन रात नफरती मीम तैयार करता है. बहुत परिश्रम से तैयार इस ज्ञान को सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर उतार दिया जाता है जहां यह अपनी सांप्रदायिक खुशबुओं के साथ ग्रुप दर ग्रुप कभी व्हाट्सएप तो कभी ट्विटर या फिर फेसबुक के व्योम में तैरता रहता है. इतिहास के इस व्हाट्सएप वर्जन ने कितना नुकसान किया है, इसका आंकलन करना आसान नहीं है. हाल ही में एक फिल्मी गीतफरोश ने भारत के इतिहास की जो समझ पेश की, बहुत संभव है उस समझ के निर्माण में इन्हीं टैबलेट्स का हाथ रहा हो.
इस युग की सामूहिक सांप्रदायिक चेतना की एक खूबी इसकी क्षैतिज पहुंच के साथ-साथ इसकी बेमिसाल ऊर्ध्व पहुंच है. क्षैतिज सांप्रदायिकता मात्रात्मक स्तर पर मानव संसाधन तैयार करती है जबकि ऊर्ध्व सांप्रदायिकता गुणात्मक स्तर पर काम करती है. क्षैतिज सांप्रदायिकता के उलट ऊर्ध्व सांप्रदायिकता के शिकार अपेक्षाकृत अधिक पढ़े लिखे लोग होते हैं. यह एक किस्म की इलीट सांप्रदायिकता है. यह अपने असर में क्षैतिज से अधिक खतरनाक है. यह दिमाग में देर से प्रवेश करती है, देर तक रहती है और देर से ही निकलती है या नहीं भी निकलती है. सुबह-सुबह देश के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले अखबारों के संपादकीय पन्नों पर सांप्रदायिक रस का बौद्धिक विवेचन करने वाले गुणी लेखक सांप्रदायिक चेतना के इसी ऊर्ध्व वर्ग से आते हैं. इनके अपने बच्चे अक्सर शहर के नामी मिशनरी स्कूलों में पढ़ते हैं. इनके परिवारों में गुड मोर्निंग और गुड नाइट कहने की सौम्य परपराएं निभायी जाती हैं, किंतु इनकी मुराद ऐसे लोगों की सतत मौजूदगी बनाए रखने से होती है जो मौका पड़ने पर ‘जय श्री राम’ का उदघोष करते रहें. ये इलीट लेखक अपने चरित्र में ‘मार्टिन हाइडेगर’ भी हो सकते हैं और ‘कार्ल शिम्ट’ भी.
बात यह नहीं है कि समाज के भीतर सांप्रदायिक रस का फव्वारा एकदम से फूट पड़ा हो या फिर इस विशाल वट-वृक्ष का आविर्भाव चार-छह साल से हुआ हो. इस विशाल और अकल्पनीय रूप से विविधता-बहुलता भरे देश के आंगन में छोटे-मोटे तनाव की मौजूदगी बहुत हैरान करने वाली चीज नहीं कही जा सकती थी. मतभेदों से मुक्त देश और स्पेस न अतीत में थे न भविष्य में ही होंगे. सांप्रदायिक अस्मिताओं की चेतना का बीज हमारे हृदयों से हमेशा से मौजूद था किंतु हम इसकी खुलेआम परवरिश से लजाते थे. पहले के समय से फर्क यह आया कि अब हम छाती चौड़ी करके सांप्रदायिक हो सकते हैं. सरकारी कर्मचारी होते हुए भी दफ्तर में खुलकर अपने धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल कर सकते हैं. अब धार्मिक होने से अधिक फलदायी स्थिति सांप्रदायिक होना है क्योंकि इस स्थिति में राज्य आपको पूरा सहयोग प्रदान करेगा.
हाब्स ने जब अपनी किताब को ‘लेवायथन’ का शीर्षक दिया तो उसका मकसद एक ऐसे शक्तिशाली राज्य की परिकल्पना में था जो अपनी ताकत के इस्तेमाल से इंसानों के बीच पनपने वाले विवादों और परस्पर नुकसान पहुंचाने वाली हिंसा और घृणा को समाप्त कर सके. लेकिन यहां इसका ठीक उलटा है. राज्य खुद ही दुरबीन लगाकर दरारें ढूंढ रहा है ताकि उन्हें और चौड़ा किया जा सके. इस दौर की सांप्रदायिकता सब्सिडी प्राप्त सांप्रदायिकता है. इस विमर्श में यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारत जैसे राष्ट्र का बहुलतापूर्ण नागरिक जीवन क्या हमेशा के लिए सांप्रदायिक अस्मिताओं के साथ जीते रहने को श्रापित है? क्या इसकी नागरिक चेतना का पंथ निरपेक्षीकरण कभी न हासिल होने वाला लक्ष्य है! क्या यह राष्ट्र सदा उन्माद में जिएगा? क्या यह राष्ट्र सांप्रदायिकता के महारस को त्यागकर किसी सदभाव रस जैसी कल्पना का मूर्तन कर सकेगा? मैं इसका उत्तर निराशवाद में ध्वनित होते हुए ही दे सकूंगा- कभी नहीं.
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