"देश के बंटवारे में सावरकर के विचारों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता"

जब भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था तब सावरकर भारत में विभिन्न स्थानों का दौरा करके हिन्दू युवकों से ब्रिटिश सेना में प्रवेश लेने की अपील कर रहे थे.

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15 अगस्त 1943 को सावरकर ने नागपुर में कहा, ”मेरा जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत से कोई विरोध नहीं है. हम हिन्दू अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं.” (निरंजन टाकले द्वारा उद्धृत द वीक, अ लैम्ब लायनाइज़ड, 24 जनवरी 2016). इसी आलेख में निरंजन, सावरकर और तत्कालीन वाइसराय लिनलिथगो की मुंबई में 9 अक्टूबर 1939 को हुई मुलाकात का उल्लेख करते हैं जिसके बाद लिनलिथगो ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फ़ॉर इंडिया लार्ड ज़ेटलैंड को एक रिपोर्ट भेजी जिसमें लिखा गया था, ”सावरकर ने कहा स्थिति अब यह है कि महामहिम की सरकार हिंदुओं की ओर उन्मुख हो और उनके सहयोग से कार्य करे.” सावरकर के अनुसार अब हमारे हित एक जैसे थे और हमें एक साथ कार्य करना आवश्यक था. उन्होंने कहा, ”हमारे हित परस्पर इतनी नजदीकी से जुड़े हुए हैं कि हिंदुइज्म और ग्रेट ब्रिटेन के लिए मित्रता जरूरी है और पुरानी शत्रुता अब महत्वहीन हो गयी है.”

एक ऐतिहासिक प्रसंग और है जो सावरकर की पसंद और प्राथमिकताओं को दर्शाता है. यह भारतीय राजनीतिक और प्रशासनिक परिदृश्य के सबसे विवादित व्यक्तित्वों में से एक सीपी रामास्वामी से संबंधित है. अतिशय महत्वाकांक्षी, स्वेच्छाचारी, सिद्धांतहीन, अधिनायकवादी चिंतन से संचालित और पुन्नापरा वायलार विद्रोह के बर्बर दमन के कारण जनता में अलोकप्रिय सीपी रामास्वामी ने 18 जून 1946 को त्रावणकोर के महाराजा को अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद अपनी रियासत को स्वतंत्र घोषित करने के लिए दुष्प्रेरित किया.

सीपी रामास्वामी ने इसके बाद पाकिस्तान के लिए अपना प्रतिनिधि भी नियुक्त कर दिया. 20 जून 1946 को सीपी रामास्वामी को जिन्ना का तार मिला जिसमें उन्होंने सीपी के कदम की प्रशंसा की थी, किंतु इसी दिन एक और तार उन्हें प्राप्त हुआ. शायद वे इसकी अपेक्षा भी नहीं कर रहे थे. यह तार था सावरकर का, जिसमें उन्होंने हिन्दू राज्य त्रावणकोर की स्वतंत्रता की घोषणा के दूरदर्शितापूर्ण और साहसिक निर्णय के लिए सी पी की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी. (अ नेशनल हीरो, ए जी नूरानी, फ्रंटलाइन, वॉल्यूम 21, इशू 22, अक्टूबर 23 से नवंबर 5, 2004)

मनु एस पिल्लई ने उल्लेख किया है कि सावरकर ने 1944 में जयपुर के राजा को लिखे एक पत्र में हिन्दू महासभा की रणनीति का खुलासा करते हुए बताया कि हिन्दू महासभा कांग्रेसियों, कम्युनिस्टों और मुसलमानों से हिन्दू राज्यों के सम्मान, स्थिरता और शक्ति की रक्षा के लिए हमेशा उनके साथ खड़ी है. सावरकर ने लिखा कि हिन्दू राज्य हिन्दू शक्ति के केंद्र हैं और इसलिए वे स्वाभाविक रूप से हिन्दू राष्ट्र के निर्माण में सहायक होंगे. राजाओं ने सावरकर के विचारों पर एकदम अमल तो नहीं किया, किन्तु उनके विचारों से सहमति व्यक्त की और अनेक राजाओं के साथ हिन्दू महासभा की बैठकें भी हुईं. ये बैठकें मैसूर और बड़ोदा जैसे आधुनिक और विकसित रियासतों के साथ भी हुईं, किंतु हिन्दू महासभा को खूब समर्थन परंपरावादी रियासतों से ही मिला. (सावरकर्स थ्वार्टेड रेशियल ड्रीम, 28 मई 2018, लाइव मिंट).

मनु एस पिल्लई ने 1940 में सावरकर के उनके छद्म नाम (एक मराठा) से प्रकाशित एक आलेख का उल्लेख किया है जिसमें सावरकर ने लिखा था- यदि गृहयुद्ध की स्थिति बनी तो हिन्दू रियासतों में सैनिक कैम्प तत्काल उठ खड़े होंगे. इनका विस्तार उत्तर में उदयपुर और ग्वालियर तक और दक्षिण में मैसूर और त्रावणकोर तक होगा. तब दक्षिण के समुद्र और उत्तर की यमुना तक मुस्लिम शासन का लेशमात्र भी नहीं बच पाएगा. पंजाब में सिख लोग मुसलमान जनजातियों को खदेड़ देंगे और स्वतंत्र नेपाल हिन्दू विश्वास के रक्षक तथा हिन्दू सेनाओं के कमांडर के रूप में उभरेगा. नेपाल हिंदुस्थान के हिन्दू साम्राज्य के राजसिंहासन के लिए भी दावेदार बन सकता है. सावरकर्स थ्वार्टेड रेशियल ड्रीम, 28 मई 2018, लाइव मिंट.

इन राजाओं की रुचि हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में कम और अपनी शानो शौकत तथा ऐशो आराम भरे जीवन को जारी रखने में अधिक थी तथा ये ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनी वफादारी व्यक्त करने के ज्यादा इच्छुक थे. इन राजाओं की रियासतों के छोटे आकार, आपसी बिखराव और जनता में इनकी अलोकप्रियता के कारण हिन्दू राष्ट्र निर्माण का सावरकर का सपना साकार नहीं हो पाया.

(साभार- जनपथ)

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