मुख समान मुखिया को चाहिए कि पहले अपने अधीन मंत्री को बर्खास्त करते हुए लखीमपुर में किसानों की जघन्य हत्या पर स्वयं का मुख खोलें.
यह चूंकि एक ट्वीट के जरिये कहा गया है इसलिए संक्षिप्तता की वजह से शायद बात स्पष्ट नहीं हो पायी कि यह एहसास बयानी थी, आत्म-परीक्षण के लहजे में कही गयी थी या इसके जरिये तोहमत लादी गयी है. सुधिजन इस पर प्रकाश डालेंगे.
लेकिन अगर यह आभास है जिसे सेल्फ-रियलाइज़ेशन कहा जाता है तब जिसने यह कहा उसकी सराहना की जानी चाहिए, हालांकि इस बात के लिए अफसोस भी व्यक्त किया जा सकता है कि बहुत लंबा वक़्त ले लिया कहने में. कम से कम जब से संघ की शाखाओं में जाना शुरू किया यानी बालपन से, तब से ही मानव अधिकारों को लेकर चयनित प्रतिक्रिया अपनाने का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं और 20 साल से मुखिया बने बैठे हैं. आज जाकर यह बोध हुआ कि कुछ मामलों में चयनित नहीं होना चाहिए!
अगर यह तोहमत है तब ‘किसने किस पर’ लगायी का सवाल खड़ा हो जाता. और कह भी कौन रहा है? जिसमें छप्पन छेद हैं? मतलब कोई ऐसा व्यक्ति जो हमेशा से सेलेक्टिव रहा हो वह किसी और पर यह तोहमत कैसे लगा सकता है कि कोई सेलेक्टिव क्यों है? इसलिए यह मुखिया होने की चुनौती है. मुखिया को छोड़कर बाकी सभी को फिर भी ये रियायत है कि वो कब, कैसे, कहां, क्यों बोलें लेकिन मुखिया को हर कब, कहां, कैसे, क्यों पर बोलना चाहिए. लखीमपुर पर बोलेंगे नहीं और कश्मीर पर पूछेंगे कि कोई बोला क्यों नहीं. फिर कोई अगर कश्मीर पर बोलेगा और पूछेगा कि नोटबंदी करने से सारे आतंकवादी मय आतंकवाद खत्म हो जाने थे और अगर कुछ बच भी जाते, तो उन्हें अनुच्छेद 370 हटाने के बाद खत्म हो जाना था. फिर भी ये कौन हैं, कहां से आ रहे हैं, कौन इन्हें पाल-पोस रहा है कि इन दो-दो कारगर उपायों के बाद भी वहां हिंदुओं और सिखों को मार रहे हैं? तब कहेंगे ऐसा क्यों बोला?
मुख समान मुखिया को चाहिए कि पहले अपने अधीन मंत्री को बर्खास्त करते हुए लखीमपुर में किसानों की जघन्य हत्या पर स्वयं का मुख खोलें और कश्मीर जो अब विशुद्ध रूप से एक कानून व्यवस्था का मामला है उसे ठीक से संभालें और मानव अधिकारों के सम्मान में तत्काल उन 700 किसानों की शहादत पर एक अफसोसनामा लिखें और कानून वापिस लें. मानव अधिकारों के सम्मान और उनकी रक्षा के लिए तत्काल उन बंदियों को बाइज्जत रिहा करें जो इस देश में वाकई मानव अधिकारों के लिए जन-जन के बीच काम करते रहे हैं.
मुख का काम केवल भोजन चबाना नहीं होता बल्कि उसकी अपनी एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति भी होती है. लोग एक-दूसरे को मुख के कारण ही पहचानते हैं. यहां मुख के आयतन को थोड़ा बड़ा किया जा सकता है. अब इसे मुंह कहा जा सकता है. मुंह लेकर कहीं जाया जाता है. मुंह को छुपाया जाता है. शर्मिंदगी का भाव सबसे पहले मुंह पर ही आता है. अगर मुंह मुखिया का हो तो उसे इसकी सबसे ज़्यादा परवाह करनी चाहिए. इसी मुंह और मुख में एक जुबान भी होती है जिसे खोला जाता है, चलाया जाता है, इसकी लाज बचायी जाती है और इसे पक्का किया जाता है. जब यह जुबान मुखिया की हो तब और ज़्यादा सतर्क रहने की ज़रूरत होती है.
सुन रहे हैं न मुखिया जी….!
(साभार- जनपथ)
General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.
Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?