शनिवार को लखनऊ में कांशीराम की पुण्यतिथि पर मायावती की रैली में जैसी भीड़ जुटी, वह अपने आप में कांशीराम के राजनीतिक सफर को याद करने का आज एक बड़ा कारण है.
जब कांशीराम को समझ आया कि दलित आंदोलन बिना राजनीतिक जमीन के नहीं पनप सकता, तो उन्होंने 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की. कांशीराम ने पाली भाषा के शब्द ‘बहुजन’ का इस्तेमाल कर सभी अल्पसंख्यकों को अपने साथ एक बैनर तले लाने की कोशिश की.
1988 के इलाहाबाद लोकसभा उपचुनाव में कांशीराम ने वीपी सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ा और उन्हें 70,000 वोटों से हार मिली. उनकी हार का सिलसिला चलता रहा और 1989 में पूर्वी दिल्ली संसदीय क्षेत्र के चुनाव में वो चौथे नंबर पर रहे.
किस्मत तब बदली जब उन्होंने 1991 में इटावा लोकसभा सीट पर चुनाव जीता. 1996 में कांशीराम ने होशियारपुर लोकसभा सीट पर जीत हासिल की. 1993 में उन्होंने समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाकर उत्तर प्रदेश में सरकार बनायी.
नब्बे के दशक की शुरुआत में कांशीराम ने ‘मनुवादियों’ और सवर्णों के खिलाफ आक्रामक मुहिम छेड़ी, लेकिन जल्दी ही उन्हें सभी जातियों की अहमियत समझ आ गयी और उन्हें ब्राह्मण, बनिया और मुसलमानों का भी समर्थन मिला जिससे उस दशक में कांग्रेस का लगभग पूरा वोट बैंक उनके पाले में आ गया.
कांशीराम को डायबिटीज समेत कई बीमारियों ने घेरा हुआ था. 1994 में उनको दिल का दौरा पड़ा, 1995 में दिमाग की एक नस में खून का थक्का जम गया और 2003 में एक और दौरा पड़ा. इस दौरे के बाद कांशीराम अपने निधन तक बिस्तर पर ही रहे.
2002 में कांशीराम ने 14 अक्टूबर 2006 को बौद्ध धर्म अपनाने की इच्छा जतायी थी. इसी तारीख को अंबेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने के 50 साल पूरे होने वाले थे लेकिन 9 अक्टूबर 2006 को दिल का दौरा पड़ने से उनका देहांत हो गया. उनका अंतिम संस्कार बौद्ध धर्म के मुताबिक किया गया और मायावती ने ही उनको मुखाग्नि दी. कांशीराम के अवशेष आज भी नोएडा के दलित प्रेरणा स्थल में रखे हैं.
लखनऊ में बनाये कांशीराम स्मारक स्थल पर उनकी इस पुण्यतिथि पर जुटी भारी भीड़ इस बात की ताकीद करती है कि बहुजन आंदोलन का अभी अंत नहीं हुआ है.
(साभार- जनपथ)
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