अपने हितों के अनुरूप अगर ब्राह्मणों को बदलना भी पड़ जाए तो वे बदलने में थोड़ा सा भी संकोच नहीं करते. उनके समाज दर्शन में दलित अछूत हैं, लेकिन जरूरत पड़ने पर वे दलितों के पैर छू लेते हैं.
बामसेफ के संस्थापकों में से एक माननीय डी. के. खापर्डे चाहते थे कि पहले बहुजन वैचारिकी के आधार पर समाज तैयार किया जाए और फिर राजनैतिक पार्टी बनायी जाए. इसके विपरीत, मान्यवर कांशीराम का कहना था कि नहीं, ये दोनों बातें साथ-साथ चलेंगी. इन दोनों के सहयेगी माननीय दीनाभाना जी किस के पक्ष में थे मुझे जानकारी नहीं. अपनी इसी समझ के अनुरूप मान्यवर कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी बनायी थी. आज बसपा का ब्राह्मण सम्मेलन माननीय डी. के. खापर्डे की आशंकाओं को मूर्त करता हुआ प्रतीत होता है. उन्हें बहुजन राजनीति के चक्कर में बहुजन वैचारिकी के खत्म होने का भय था, लेकिन बहुजन समाज को तैयार करने के दौरान लोग साहेब कांशीराम से पूछते थे कि आप अपने लोगों को सांसद और विधायक कब बनाएंगे? दूसरी पार्टियों के लोग तो उन्हें सांसद और विधायक बना रहे हैं. ऐसे में वे आपके पास क्यों आएंगे? लोगों की बात भी उचित थी. इसी बात को ध्यान में रखते हुए मान्यवर कांशीराम ने अपनी सोच बदल ली थी.
बहुजन वैचारिकी का फैलाव और बहुजन राजनीति दोनों साथ-साथ चलेंगी. इन दोनों को साथ ले कर चलने में जोखिम तो है, पर ऐसा कौन सा बड़ा काम है जो बिना जोखिम के है. बस इन्हें साध कर चलना आना चाहिए. ऐसे में, सारा दारोमदार लीडरशिप के ऊपर है. अगर उसमें क्षमता है तो वह इन दोनों को अपने पक्ष में साध कर चल सकता है. बहुजन वैचारिकी और बहुजन राजनीति दो अलग-अलग चीजें हैं. ये एक दूसरे से जुड़ी हो कर भी एक दूसरे से स्वतंत्र हैं. इसलिए बहुजन वैचारिकी जैसे-जैसे कहेगी, बहुजन राजनीति वैसे-वैसे नहीं चलेगी. राजनीति जितनी वैचारिकी से जुड़ी हुई बात है उतनी ही रणनीतियों से भी. साहेब कांशीराम ने जब मुलायम सिंह से समझौता किया था तो बहुजन वैचारिकी को ध्यान में रखकर किया था लेकिन जब भाजपा के साथ गठबंधन किया था तो वह रणनीतियों का मसला था. ठीक यही बात भाजपा के साथ भी थी. बसपा के साथ उसका गठबंधन भी रणनीतिक था. ऐसे ही नहीं मान्यवर कांशीराम ने भाजपा को वल्चर और बसपा को सुपरवल्चर बताया था. यह उनकी नेतृत्व क्षमता थी कि बसपा से गठबंधन के बाद भाजपा उत्तर प्रदेश में हाशिये पर चली गयी थी.
वर्ष 2007 में बसपा ने सीधे भाजपा से समझौता न कर के ब्राह्मण समाज के साथ समझौता किया था जिसके चलते उसे विधानसभा में पूर्ण बहुमत मिला था. ब्राह्मण समाज के राजनैतिक होने का यह एक बड़ा सबूत था कि उसके अधिकांश लोग बसपा को वोट दिये थे. बसपा के साथ ब्राह्मणों के जुड़ने का एक बड़ा लाभ यह हुआ था कि तब उसके साथ अतिपिछड़ी जातियों और दलितों में गैर-चमार/जाटव जातियों के अधिकांश लोग भी जुड़ गये थे. ब्राह्मणों के समर्थन के कारण इन जातियों में बसपा की स्वीकार्यता बढ़ जाती है. इससे बसपा के पक्ष में हवा बन जाती है और मुस्लिम समाज के लोग भी उसके पक्ष में खड़े हो जाते हैं. इसलिए बसपा के ब्राह्मण सम्मेलन की जो आलोचना हो रही है वह सैद्धांतिक रूप से बहुत कुछ सही होते हुए भी सतही और राजनीति से प्रेरित है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के शहीद भगत सिंह कॉलेज में हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
(साभार- जनपथ)