हमारा संविधान स्वयंभू जैसी हैसियत किसी को नहीं देता है. इसलिए भी 15 अगस्त को की गई यह अटपटी घोषणा ज्यादा ही अटपटी लगी.
हम क्या भूलें? उस दरिंदगी को भूलें जिसे विभीषिका कहा जा रहा है. वह विभीषिका नहीं थी, क्योंकि वह आसमानी नहीं, इंसानी थी. उसे इतिहास के किसी अंधेरे कोने में दफ्न हो जाने देना चाहिए क्योंकि वह हमें गिराता है, घृणा के जाल में फंसाता है, जोड़ता नहीं, तोड़ता है. दोनों तरफ की सांप्रदायिक मानसिकता के लोग चाहते हैं कि वह याद बनी रहे, बढ़ती रहे, फैलती और घुमड़ती रहे ताकि जो जहर गांधी ने पी लिया था, वह फिर से फूटे और भारत की धरती को अभिशप्त करे; इस महाद्वीप के लोगों को आदमकद नहीं, वामन बना कर रखे. उनके लिए ऐसा करना जरूरी है क्योंकि वे इसी का रसपान कर जीवित रह सकते हैं.
लेकिन कोई मुल्क सभ्यता, संस्कृति और उदात्त मानवता की तरफ तभी चल पाता है जब वह अपना कलुष मिटाने व भूलने को तैयार होता है. सभ्यता व संस्कृति की यात्रा एक उर्ध्वगामी यात्रा होती है. वह नीचे नहीं उतरती है, हमें पंजों पर खड़े होकर उसे छूना व पाना होता है. जो ऐसा नहीं कर पाते हैं वे सारे समाज को खींच कर रसातल में ले आते हैं, फिर उनका नाम जिन्ना हो कि सावरकर कि उनके वारिस. इसलिए हम उन सांप्रदायिक ताकतों को याद रखें कि जिनके कारण देश टूटा, अनगिनत जानें गईं, अपरिमित बर्बादी हुई और पीढ़ियों तक रिसने वाला घाव, वैसा घाव जैसा महाभारत युद्ध में अंत में अश्वथामा को मिला था, इस महाद्वीप के मन-प्राणों पर लगा. जिस मानसिकता के कारण वह घाव लगा, हम उसे न भूलें लेकिन जितनी जल्दी हो सके, उस घाव को भूल जाएं.
याद रखना ही नहीं, भूल जाना भी ईश्वर प्रदत्त आशीर्वाद है. इसलिए 15 अगस्त को अपना स्वतंत्रता दिवस मनाने की उल्लास भरी मानसिकता बनाने के लिए जरूरी लगता हो तो हम 14 अगस्त को प्रायश्चित व संकल्प दिवस के रूप में मनाएं. प्रायश्चित इसका कि हम इतने कमजोर पड़े कि अपना यह सामूहिक पतन रोक नहीं सके; और संकल्प यह कि आगे कभी अपने मन व समाज में ऐसी कमजोरी को जगह बनाने नहीं देंगे हम. महा संबुद्ध बुद्ध को साक्षी मान कर हम 14 अगस्त को गाएं- ले जा असत्य से सत्य के प्रति, ले जा तम से ज्योति के प्रति, मृत्यु से ले जा अमृत के प्रति. विश्वगुरु बनना जुमला नहीं, आस्था हो तो इस देश का मन नया और उदात्त बनाना होगा.
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं)
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