जितना जल्दी हो, एक सरकार काबुल में गठित हो और प्रांतों में प्रशासन औपचारिक तौर पर काम करना शुरू करे.
अफ़ग़ानिस्तान में रूस, चीन और ईरान ने अपने दूतावास ख़ाली नहीं कर अपनी इच्छा शक्ति का प्रदर्शन भी कर दिया है तथा तालिबान को भी छवि का लाभ पहुंचा दिया है कि उनसे विदेशियों को ख़तरा नहीं है और वह ज़िम्मेदार संगठन है. रूसी राजदूत ने तो तालिबान के साथ घूमकर काबुल की स्थिति देखने का कार्यक्रम भी बनाया है. इससे वे पश्चिम को तालिबान के साथ अपनी निकटता का संदेश भी देना चाहते हैं और अगली सरकार को वैधता दिलाने में मदद भी करना चाहते हैं. दिलचस्प बात है कि रूस उन चंद देशों में है, जिन्होंने तालिबान को प्रतिबंधित किया हुआ है. चीन के अपने सामरिक और आर्थिक हित हैं और उसने इसे छुपाया भी नहीं है.
मध्य एशिया के देश भी अप्रभावित नहीं हैं. हज़ारों अफ़ग़ान सैनिक, दर्ज़नों जहाज व हेलीकॉप्टर उन देशों में पहुंचे हैं. अनेक वारलॉर्ड, ग़नी सरकार के लोग और तालिबान विरोधियों के अलावा अफ़ग़ान शरणार्थी भी इन देशों में हैं. अफ़ग़ानिस्तान में आबादी का एक हिस्सा उन जातीयताओं का है, जो पड़ोसी देशों में बहुमत में हैं. ईरान और पाकिस्तान अपने हितों और प्रभाव को बनाये रखना चाहेंगे. तुर्की उल्लेखनीय भूमिका की आकांक्षा रखता है. अमेरिका अभी थोड़ा अचंभित और अवाक ज़रूर है, पर वह अपने हितों और अपने संपर्कों को सुरक्षित रखना चाहेगा तथा भावी परियोजनाओं में हिस्सेदारी भी चाहेगा.
अफ़ग़ानिस्तान से आपूर्ति होने वाले अफ़ीम का बहुत बड़ा वैश्विक कारोबार है. वह भी एक कारक बना रहेगा. पंजशीर घाटी में तालिबान के ख़िलाफ़ सोवियत क़ब्ज़े और तालिबान के विरुद्ध लड़े अहमद शाह मसूद के परिवार द्वारा प्रतिरोध तैयार करने की कोशिशों की ख़बर है. देश से बाहर भागे अब्दुल रशीद दोस्तम, अत्ता नूर, अशरफ़ ग़नी और उनके निकटवर्ती तथा तालिबान के विरोधी आम लोग भी बहुत देर तक चुप नहीं बैठेंगे. तालिबानी कमांडरों और नेताओं की आपसी तनातनी भी नयी लड़ाइयों की वजह बन सकती है या पुरानी खेमेबाज़ी का समीकरण बदल सकती है. काबुल और अन्य जगहों में कई आतंकी संगठन भी सक्रिय हैं, जिनमें से कुछ तालिबान के निकट हैं, तो कुछ उनके विरोधी हैं. ये अपने स्तर पर या किसी देश या बाहरी समूहों के इशारे पर हमलावर रहेंगे. कुछ अपराधी गिरोहों तथा एक-दो आतंकी समूहों के समर्पण की ख़बरें संतोषजनक हैं, पर इस मामले में बहुत कुछ करना है. यदि तालिबान को लंबे समय तक सत्ता में रहना है, तो आतंकियों को रोकना होगा. एक मसला तालिबान की ओर से लड़ रहे विदेशी लड़ाकों का भी है. सरकार गठन के बाद इनका क्या होगा, एक बड़ा सवाल है.
बहरहाल, अभी दुनिया की चिंता यह है और होनी भी चाहिए कि हवाई अड्डे की अराजकता तथा सीमाओं के बंद रहने से ज़रूरी चीज़ों की कमी न हो. हिंसा, महामारी और अन्य ऐसे संकटों को नियंत्रित रखा जाए. जितना जल्दी हो, एक सरकार काबुल में गठित हो और प्रांतों में प्रशासन औपचारिक तौर पर काम करना शुरू करे.
यह स्वागतयोग्य है कि तालिबान एक समावेशी सरकार बनाने की इच्छा जता रहे हैं तथा पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई, पूर्व विदेश मंत्री व सुलह काउंसिल के प्रमुख अब्दुल्ला तथा पूर्व प्रधानमंत्री गुलबुद्दीन हिकमतयार इस संबंध में तालिबान से बात कर रहे हैं. इसके अलावा, विभिन्न इलाक़ों में प्रभावशाली लोगों से सलाह ली जा रही है. ध्यान रहे, अफ़ग़ान समाज में बड़े-बुज़ुर्गों और धार्मिक रूप से आदरणीय लोगों की सबसे ज़्यादा सुनी जाती है. सोवियत दख़ल के दौर में लड़े मुजाहिद भी अच्छा-ख़ासा असर रखते हैं. ऐसी उम्मीद है कि अफ़ग़ान स्वतंत्रता दिवस 19 अगस्त तक सरकार का गठन हो जायेगा और फिर सामुदायिक प्रतिनिधियों से उस पर मुहर लगवाकर अंतरराष्ट्रीय मान्यता की क़वायद शुरू होगी.
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