कश्मीर घाटी के कई संपादकों का दावा है कि सरकार के बड़े अधिकारी उन्हें अपने अखबारों की शब्दावली बदलने के लिए विवश कर रहे हैं. लेकिन न्यूज़रूम स्टाफ के मुताबिक संपादक भी जिम्मेदार.
दबाव से पैंतरेबाज़ी
जैसे-जैसे जम्मू कश्मीर प्रशासन जाहिर तौर पर सर्वमान्य चीजों को बदलने की कोशिश कर रहा है, कई अखबारों ने अपने सांस लेने की जगह पाने के लिए कई तरकीबें निकाल ली हैं.
पहली तरकीब है सरकारी सूचनाओं को खास तौर से जो पुलिस से आती हैं, को विस्तार से उद्धरित करना. वह सब एडिटर समझाते हैं, "हम जितना हो सके उतना पुलिस के वक्तव्यों को इस्तेमाल करते हैं, जब जरूरत न हो तब भी जिससे "आतंक" और "आतंकवादी" जैसे शब्द उद्धरण चिह्नों में आ जाएं. इतना ही नहीं, हेड लाइन भी "जहां सबको पता है कि डबल कोट इस्तेमाल नहीं होते", ने "आतंकवादी" और "आतंकवाद" लगाना शुरू कर दिया है.
राइजिंग अखबार में, राज्य के समर्थन वाली शब्दावली इस्तेमाल करने से एक संकट की स्थिति पैदा हो गई थी जिसमें स्टाफ प्रतिरोध के लिए इस्तीफा देने की धमकी दे रहा था. अधिकतर बाकी बड़े अखबार शब्दावली में बड़ा बदलाव करने से बच निकले हैं और इससे अपने कर्मचारियों के रोष से भी बचे हैं.
20 जुलाई को एक मुठभेड़ की 400 शब्दों की रिपोर्ट में "आतंक" और "आतंकवादी” शब्द 13 बार इस्तेमाल हुए. पुलिस के द्वारा कथित तौर पर नव युवकों को हथियार उठाने से रोकने की एक रिपोर्ट में, पहले दो अनुच्छेदों में "आतंक" और "आतंकवादी" छः बार आया जबकि शीर्षक में यह दावे पुलिस के हवाले से थे. अगले दिन हेडलाइन ने सीधे घोषणा कर दी, "पुलिस ने 14 युवाओं को आतंकी समूह में शामिल होने से बचाया". तीन दिन बाद एक 700 शब्द के लेख में "आतंक" और "आतंकवादी" का इस्तेमाल 21 बार हुआ, लेकिन शीर्षक में नहीं.
अयाज़ ग़नी जिन्होंने राइजिंग कश्मीर के संस्थापक शुजात बुखारी की 2018 में हुई हत्या के बाद संपादक का कार्यभार संभाला, न्यूजलॉन्ड्री के द्वारा अखबार की संपादकीय दृष्टि को समझने के लिए फोन किए जाने पर आहत थे. उनके स्टाफ के जिन लोगों ने हम से बात की है उन्होंने यह जानने की मांग की.
स्टाफ के द्वारा छोड़कर जाने की धमकी के विषय पर वे दावा करते हैं, "यह पूरी तरह से गलत जानकारी है. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. आप हमारे मामलों में सीधे-सीधे दखल दे रहे हैं. आपको यह हक किसने दिया? यह हमारा अंदरूनी मामला है. ऐसी कोई घटना नहीं हुई है. यह एक झूठ बात है."
ग़नी ने जोर देकर कहा कि वह अभी भी "उग्रवादी" शब्द का इस्तेमाल करते हैं. आप हमारा अखबार और वेबसाइट देख सकते हैं.
लेकिन अखबार "आतंक" और "आतंकवादी" जैसे शब्द बिना उद्धरण चिह्नों के इस्तेमाल कर रहा है. वे जवाब में कहते हैं, "जो शब्दावली आती है उसे हम इस्तेमाल करते हैं. इसमें क्या बात है?"
एक और तरकीब इन सूचनाओं को केवल अखबार में छापा जाना और ऑनलाइन न छापा जाना है. वह सब एडिटर बताते हैं, "कुछ कहानियां छपती हैं, कुछ केवल ऑनलाइन होती हैं. मायने रखती है सुबह 8:00 बजे से पहले डीआईपीआर को भेजी गई अखबार की पीडीएफ कॉपी, खासतौर से तब जब विज्ञापन दिए गए हों या कोई महत्वपूर्ण दिन हो जैसे कि उप राज्यपाल या राष्ट्रपति का दौरा."
कश्मीर में सभी अखबारों को अपने हर संस्करण की एक कॉपी सूचना और जनसंपर्क निदेशालय को भेजना अनिवार्य है.
"आतंक" शब्द
कश्मीर के पत्रकार केवल इलाके में होने वाले टकराव पर रिपोर्ट ही नहीं करते, वे अलग-अलग गुटों के बीच की चाकू की धार पर चलने के समान नाजुक परिस्थिति में जीते भी हैं. प्रशासन के द्वारा उनकी शब्दावली को पुनः परिभाषित करना उनके लिए एक नई चुनौती है जिसको लेकर उन्हें डर है कि उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है.
भारत से लड़ने वाले कश्मीरियों को क्या कहकर बुलाया जाए यह पत्रकारों के लिए लंबे समय से संवेदनशील विषय रहा है. हालांकि अब इन गोरिल्ला पति के लड़ाकों को भारत सरकार "आतंकवादी" कह रही है, उन्हें कुछ वर्षों पहले तक "उग्रवादी" कहा जाता था. कश्मीरी बहुतायत में "स्वतंत्रता सेनानी" या "मुजाहिद" कहलाना पसंद करते हैं, जिसमें "मुजाहिद" उपमा उन्हें एक पंथी जामा भी पहना देती है. पिछले तीन दशकों में प्रेस ने एक तटस्थ शब्द के रूप में "उग्रवादी" को लेकर सम्मति बना ली थी जबकि कई कश्मीरियों को यह भी अस्वीकार्य है.
नेतृत्व विहीन कश्मीर एडिटर्स गिल्ड के एक सदस्य इंगित करते हैं कि "उग्रवादी शब्द, किसी व्यक्ति की नजर में मुजाहिद को नीचा दिखाना या किसी के लिए आतंकवादी का महिमामंडन, दोनों ही नहीं करता."
इसलिए अधिकारियों के द्वारा "आतंकवादी" या समान अर्थ रखने वाले शब्दों के उपयोग का निर्देश देना, उनके द्वारा केवल प्रेस को पक्षपाती बनने के लिए मजबूर करना है. सिर्फ इसलिए नहीं कि इस बात पर सर्वसम्मति नहीं है कि यह किस पर लागू होता है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि यह उनसे उनकी काम करने की स्वतंत्रता छीनना भी है.
एक वरिष्ठ पत्रकार शोक जताते हैं, "हमें हमारी काम करने की उस जगह से हटाया जा रहा है जो हमने बहुत संघर्ष और कई मौतों के बाद कमाई थी. ये हमारी सुरक्षा खतरे में डाल रहे हैं."
एक संपादक जो मीडिया क्षेत्र में पिछले 30 वर्षों से काम कर रहे हैं, संभावित खतरों को स्पष्ट रूप से समझाते हैं, "कल अगर उग्रवादियों का पलड़ा भारी होता है या वह अखबारों पर "स्वतंत्रता सेनानी" लिखने का दबाव बनाकर अपनी ताकत का प्रदर्शन करने का निश्चय करें, तब हम क्या करेंगे? सरकार पत्रकारों को खतरे की चपेट में ला रही है."