जनसंख्या नियंत्रण की ये कोशिशें इस बात का ऐलान है कि अब मनुष्यता का अंत हो चुका है?

इस कानून या नीति के ज़रूर कुछ तात्कालिक प्रयोजन होंगे और हैं भी, लेकिन इसके मूल तत्वों की मीमांसा होना ज़रूरी है.

Article image
  • Share this article on whatsapp

कविता के अंत, विचारधारा के अंत, सभ्यताओं के अंत की घोषणा के बाद भी मनुष्यता के अंत की औपचारिक घोषणा अब तक नहीं हुई है, बल्कि जिस आधुनिक सभ्यता में हमने जन्म पर नियंत्रण पाया और स्वयंभू बन गए उसकी शुरुआत ‘ईश्वर के अंत’ की घोषणा (नीत्शे) से हुई थी. कालक्रम में देखें तो पहले ईश्वर के अंत की घोषणा हुई, फिर विचारधारा की, उसके बाद सभ्यता की. तो क्या अब बारी मनुष्यता के अंत की घोषणा की है?

महाभारत की पटकथा में डॉ. राही मासूम रज़ा कहते हैं, "हम, इतिहास की धरोहर हैं और भविष्य के लिए उत्तरदायी हैं. यहां ‘हम’ का मतलब हम इसलिए नहीं है क्योंकि हम यानी वी द पीपुल ऑफ इंडिया जनसंख्‍या नियंत्रण कानून नहीं ला रहे हैं बल्कि ये करतूतें हमारी चुनी सरकारों की हैं- ऐसी सरकारें, जो न खुद को इतिहास की धरोहर मानती हैं और न ही भविष्य के लिए उत्तरदायी. भविष्य छोड़िए, एक प्रेस कान्फ्रेंस करके पत्रकारों के सवालों के जवाब देने लायक भी उत्तरदायी होने का साहस नहीं है इन सरकारों में. हां, अगर बात नाकामियों का ठीकरा फोड़ने की हो तो क्या भूत और क्या भविष्य. क्या विगत क्या आगत. क्या आगे क्या पीछे. और किसी तरह से मिली किसी प्रायोजित सफलता का मामला हो, तो ‘न भूतो न भविष्यति’. अभिधा में अगर इसी क्षण यह ‘बात बोले’ तो वह बोलेगी कि- नाकामि‍यों के सात साल नेहरू और कांग्रेस के नाम रहे, आने वाले साल की नाकामियां अजन्मे बच्चों के सिर मढ़ी जाने वाली हैं."

इस कानून या नीति के ज़रूर कुछ तात्कालिक प्रयोजन होंगे और हैं भी, लेकिन इसके मूल तत्वों की मीमांसा होना ज़रूरी है. आखिर सवाल वही है जिसे अलग-अलग अंदाज़ में कई-कई तरह से पूछा जा सकता है- कोई तीसरा पक्ष जो प्रजनन की कार्यवाही में शामिल नहीं है, किसी और के लिए यह निर्णय ले सकता है कि इस कार्यवाही का निष्कर्ष एक जीवन होगा या नहीं? आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य शक्तियों का प्रकाश-पुंज है, लेकिन उसका प्रकाश उस संप्रभु जनता का दिया हुआ है. क्या एक वोट मात्र की कीमत इस कदर अधीनता का स्वीकार है?

imageby :

कहा जा रहा है कि अब संसाधन नहीं बचे. पूरी दुनिया में भारत की आबादी 20 प्रतिशत है और इसकी ज़मीन का क्षेत्रफल महज़ अढ़ाई प्रतिशत? इतने ही पुरजोर ढंग से उत्तेजना में फड़फड़ाते इस तरह की नीतियों के समर्थकों से यह पूछ लिया जाना चाहिए कि क्या अढ़ाई प्रतिशत भी काफी नहीं है? अगर वह सबके हिस्से बराबर से आ जाए तो? हिस्सेदारी के सवाल पर, बंटवारे के सवाल पर कभी न टूटने वाली चुप्पी और बच्चों के जन्म के नितांत निजी निर्णय पर अट्टहास करती उत्तेजित जुबानों के बीच इस सवाल की दस्तक तक प्रतिबंधित है कि मनुष्य की अगली पीढ़ी को आने से रोकना उनके अधिकार-क्षेत्र में नहीं आता.

हमारे अस्तित्‍व को पहले जनसंख्या और जनांकिकी में बदला गया, फिर उसे मनुष्य होने की तमाम गरिमा से पदच्युत किया गया. उसके बाद स्कूली किताबों से लेकर प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए निबंधों की तैयारी के लिखी गयी किताबों में जनसंख्‍या विस्फोट बता दिया गया. शायद ही किसी को उन लेखकों के नाम याद हों जो सारी परेशानियों की जड़ में जनसंख्या विस्फोट की दुर्दांत घटना को देखने के अभ्यस्त रहे और कई पीढ़ियों को अपनी लिखी किताबों के जरिये यह बताते रहे. आम चलन में हालांकि यह शब्द केवल स्कूल-कॉलेज में पूछे गए सवालों के जवाब में ही बरता जाता रहा. सोचिए, अगर यह शब्द आम चलन में आ गया होता तो सामान्य बातचीत का लहजा ही बदल जाता. बेटा अपनी मां को फोन करता- ‘’मां, बधाई हो आप दादी बन गयीं, एक विस्फोट हुआ है.‘’ पूछने पर बताता लड़का है या लड़की.

ऐसे समस्यामूलक लेखकों की नज़र में बच्‍चे ‘विस्फोट’ हैं और उनके माता-पिता विस्फोटक. इसीलिए इन माता-पिताओं को अब स्टेट सज़ा देगा कि अगर एक से ज़्यादा विस्फोट किया तो राशन-पानी बंद!

कोई कह सकता है कि ऐसा ही प्रयोग इस देश में पहले भी तो हो चुका है, बल्कि इससे भी कहीं ज़्यादा क्रूरता के साथ. तब हमें यह भी याद रखना होगा कि तब के ये जो विस्फोटक यानी माता-पिता हैं वे अपने निर्णय के पक्ष में खड़े हुए थे और उनसे लड़े थे जिन्‍होंने उनके इस अधिकार का अतिक्रमण किया था. उससे भी बड़ी बात कि जब वे लड़ रहे थे तब समाज उनका सम्मान कर रहा था. उन्हें जब जेलों में डाला जा रहा था तब भी समाज ने उन्हें बहिष्कृत नहीं किया था. जेलों से निकलने के बाद उनकी प्रतिष्ठा कई गुना बढ़ गयी थी. आज जो इस निज़ाम से लड़ेगा वह सबसे पहले देशद्रोही बना दिया जाएगा और ‘राज्य’ से पहले समाज ही उन्हें इस बगावत की सज़ा सुना देगा. बाद में तो खैर क्या ही सम्मान होगा.

घोषित-अघोषित आपातकाल को लेकर 25 जून और उसके बाद हुई तमाम मीमांसाओं में इस बात का ज़िक्र कम हुआ कि निज़ाम असल में वैसा ही है, जनता का चरित्र बदला है. पहले जनता अपने नागरिक और सामाजिक अधिकारों के अतिक्रमण के खिलाफ आवाज़ उठाने को अपना कर्तव्य समझती थी लेकिन अब की जनता ने नये तरह का नागरिकशास्त्र गढ़ लिया है और उनसे लड़ने को अपना दायित्व समझने लगी है जो निज़ाम से लड़ रहा है. बहरहाल, दिलचस्प ढंग से विरोधाभासी बात यह भी है कि जिस निज़ाम ने सबसे पहले परिवार नियोजन के सर्वोच्च संस्थान को नेस्तनाबूत किया, अब वही परिवार नियोजन के अधिकार को हासिल कर लेने को आतुर है.

(साभार- जनपथ)

Also see
article imageशर्मा वर्सेज़ शर्मा और लकड़बग्घों की सभा में बकरियों के कल्याण की चर्चा
article imageन्यूज़ नेशन के एंकर रवि शर्मा की सड़क दुर्घटना में मौत
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like