'पक्ष'कारिता: महामहिम का लौटना और अखबारों का लोटना

महामहिम अपने गांव से दिल्‍ली वापस आकर भी चर्चा में बने हुए हैं जबकि उनके कारण कभी न वापस आने वाली वंदना मिश्रा चर्चा से गायब हैं.

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इंसान को भगवान ने बनाया है या भगवान को इंसान ने, इस नाजुक सवाल को छोड़ दें तो हम प्रथमदृष्‍टया पाते हैं कि दोनों की शक्‍लें एक जैसी हैं. दोनों मनुष्‍याकृति हैं. जब केंचुल एक जैसी है तो उसके भीतर बसे प्राण किसी और के कैसे होंगे? हर रचयिता चाहता है कि उसकी रचना उसी की छायाप्रति हो. जाहिर है, फिर दोनों के गुण-अवगुण भी समान होंगे. प्रवृत्तियां भी एक जैसी होंगी. जीने का ढर्रा भी एक सा होगा. वर्ग-वर्ण विभाजन भी एक सा होगा. मसलन, बड़े भगवान होंगे तो बड़े इंसान होंगे. छोटे-मोटे भगवान होंगे तो छोटे-मोटे इंसान भी होंगे. पिछले अंक में हमने देखा कि कैसे एक राष्‍ट्रीय देवता ने एक स्‍थानीय देवी को विस्‍थापित कर दिया. अखबारों के लिए भी यह सहज ही रीति रही. इंसानों के मामले में अखबार कैसे अलग लाइन ले लेते? इसीलिए महामहिम अपने गांव से दिल्‍ली वापस आकर भी चर्चा में बने हुए हैं जबकि उनके कारण कभी न वापस आने वाली वंदना मिश्रा चर्चा से गायब हैं.

राष्‍ट्रपति प्रथम नागरिक हैं. उत्‍तर प्रदेश के अखबारों ने इस हफ्ते उन्‍हें कई जगह प्रथम पुरुष लिखा है. उनका दुख, उनकी करुणा, उनकी दोस्‍ती, उनकी भावुकता, उनका मज़ाक, उनकी मार्केटिंग, उनका दूसरे से हालचाल पूछना, उनका पसंदीदा खानपान, उनका बस या ट्रेन से चलना, सब कुछ प्रथम है लिहाजा उत्‍तम है. हिंदी के अखबारों के लिए ये सब उल्‍लेखनीय है. कानपुर में रहने वाली इंडियन इंडस्‍ट्रीज़ असोसिएशन की महिला प्रकोष्‍ठ की अध्‍यक्ष वंदना मिश्रा, जो राष्‍ट्रपति की ट्रेन गुजरने के कारण पुल पर रोके गये ट्रैफिक का असमय शिकार हो गयीं, उल्‍लेखनीय वे भी हैं लेकिन प्रथम पुरुष की भावनाओं के संदर्भ में ही, स्‍वतंत्र रूप से नहीं. इसीलिए 26 जून को जब यह घटना घटी, तो अमर उजाला को छोड़ कर किसी ने भी इस सुलगती आग में अपना हाथ नहीं डाला.

अमर उजाला

उसी दिन अमर उजाला डिजिटल ने यह खबर तो चला दी, खबर का स्‍क्रीनशॉट भी खूब वायरल हुआ, हालांकि हेडिंग में कहीं भी राष्‍ट्रपति का उल्‍लेख नहीं था. अगले दिन के प्रिंट संस्‍करण में जो खबर छपी, वह बेहद संतुलनकारी थी. प्रथम नागरिक के दुख और पुलिस आयुक्‍त की माफी के साथ इनसेट में दो कॉलम की एक अश्‍लीलता जगमगा रही थी- ‘’मित्र के घर पहुंचे राष्‍ट्रपति, शादी की सालगिरह को बनाया यादगार.’’

अमर उजाला कानपुर एडिशन

इस मामले में अकेले छत्‍तीसगढ़ के नवभारत ने पूरी साफ़गोई से खबर छापी अन्‍यथा उत्‍तर प्रदेश के अखबारों में तो राष्‍ट्रपति के दुख और करुणा में लिपटी खबरें ही चलायी गयीं. दैनिक जागरण ऐसे मौकों पर खुराफात की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता है, सो उसने मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्‍व काल में हुई एक मौत को इनसेट में छापकर अपने पाठकों को बताना जरूरी समझा कि उस वक्‍त पुलिस ने माफी नहीं मांगी थी. गोया यह समझाने की कोशिश की जा रही हो कि इस बार पुलिस का माफी मांगना और राष्‍ट्रपति का दुखी होना कितना महान कृत्‍य है.

नवभारत अखबार में छपी खबर
दैनिक जागरण में छपी खबर

चार दिन तक राष्‍ट्रपति का यूपी का दौरा जिस खबर पर आकर उत्‍तर प्रदेश के अखबारों में खत्‍म हुआ, वह हिंदी की पत्रकारिता और पुलिसिंग के बीच जबरदस्‍त साम्‍य दिखलाता है. जैसे पुलिसवाले कोई घटना होने से पहले उसकी मंशा भांप कर ही किसी को उठा लेते हैं, वैसे ही अमर उजाला ने एक खबर छापी कि महामहिम वंदना मिश्रा के परिवार को फोन कर के सांत्‍वना देंगे.

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संचारी भावों की पत्रकारिता

यही हिंदी प्रदेश का वैशिष्‍ट्य है. यहां प्रथम पुरुष ही उत्‍तम पुरुष होता है जबकि उत्‍तम से उत्‍तम पुरुष अन्‍य होता है. हिंदी अखबारों के संपादकों का व्‍याकरण ज्ञान चाहे कितना ही चौपट हो, लेकिन वे प्रथम पुरुष को उत्‍तम पुरुष मानने और दर्शाने में कोई चूक नहीं करते. इसीलिए घटना घटने से पहले ही उसे रिपोर्ट कर देना हिंदी पत्रकारिता की विलक्षण मौलिकता माना जाना चाहिए.

बहरहाल, कानपुर/लखनऊ से निकलने वाले हिंदी अखबारों के कुछ और शीर्षक देखिए. यहां प्रथम पुरुष के प्रोटोकॉल में दबी उसके संचारी भावों की मौलिक छवियां आपको दिखायी देंगी.

  • ...कानपुर पहुंचते ही भाभी से मज़ाक करने में नहीं चूके राष्‍ट्रपति (हिंदुस्‍तान)

  • लल्‍ला का पसंदीदा पेड़ा बनाकर लाईं भाभी विद्यावती... (दैनिक जागरण)

  • राष्‍ट्रपति रामनाथ कोविंद की करुणा और दोस्‍ती का कायल हुआ कानपुर (हिंदुस्‍तान)

  • ...भावुक हो गए राष्‍ट्रपति, शीश झुकाकर चूम ली मिट्टी (अमर उजाला)

  • राष्‍ट्रपति रामनाथ कोविंद लखनऊ के टेलर से बोले- क्‍या हाल है मास्‍टर जी (दैनिक जागरण)

  • राष्‍ट्रपति नहीं, दोस्‍त की हैसियत से घर आया हूं... (हिंदुस्‍तान)

  • हजरतगंज में मार्केटिंग करने पहुंचा राष्‍ट्रपति का परिवार (पत्रिका)

  • ‘धुन्‍नी’ को भी है चाचा रामनाथ कोविंद का इंतजार... (अमर उजाला)

  • राष्‍ट्रपति को पसंद भाभी के हाथ की कढ़ी व रसियाउर... (अमर उजाला)

  • पुराने मित्रों और रिश्‍तेदारों से मिलकर भावुक हो गए राष्‍ट्रपति रामनाथ कोविंद (हिंदुस्‍तान)

  • 2012 में बस से अलीगढ़ आए थे रामनाथ कोविंद (अमर उजाला)

ऐसे दर्जनों और शीर्षक अखबारों व वेबसाइटों पर तैर रहे हैं. इस संदर्भ में जनसत्‍ता की एक खबर बताती है कि इस देश के सवा अरब से ज्‍यादा लोगों में कोई भी खुद को 27वां नागरिक मानने को स्‍वतंत्र है क्‍योंकि नागरिकता की प्राथमिकता सूची में 26 पायदान पहले से तय हैं. जाहिर है, राष्‍ट्रपति इस पायदान में पहले स्‍थान पर आते हैं. इन 26 पायदानों पर कुल पांच लाख 80 हजार के आसपास व्‍यक्ति बैठे हुए हैं जो दुनिया के किसी भी देश में अतिमहत्‍वपूर्ण व्‍यक्तियों (वीआईपी) की सबसे ज्‍यादा संख्‍या है. हमसे ज्‍यादा आबादी वाला चीन इस मामले में दूसरे नंबर पर आता है जहां वीआइपी व्‍यक्तियों की संख्‍या महज 435 है. बाकी देश उससे भी नीचे हैं.

वीआईपी डाटा

पांच लाख 80 हजार के आसपास का यह आंकड़ा आज से साढ़े तीन साल पहले जनवरी 2018 का है. उससे करीब नौ महीने पहले 1 मई 2017 को देश में जब वाहनों पर लाल बत्‍ती लगाना प्रतिबंधित हुआ था, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ‘मन की बात’ में वीआइपी संस्‍कृति की जगह ईपीआई संस्‍कृति लाने की बात कही थी. ईपीआई से उनका आशय था एवरी पर्सन इज़ इम्‍पॉर्टेन्‍ट यानी हर व्‍यक्ति विशिष्‍ट है. तब उन्‍होंने यह भी माना था कि प्रतीकात्‍मक रूप से केवल लाल बत्‍ती खत्‍म कर देना पर्याप्‍त नहीं है बल्कि वीआईपी वाली मानसिकता को खत्‍म करना होगा. मानसिकता की बात कह कर उन्‍होंने अपने कुछ राजनीतिक विरोधियों की विशिष्‍ट सुरक्षा सुविधाएं तो छीन लीं, लेकिन वीआईपी संस्‍कृति को पोषित करने वाला प्रोटोकॉल और ढांचा जस का तस रहने दिया.

कानपुर में वंदना मिश्रा की मौत के पीछे यही वजह है. इसे कानपुर कमिश्‍नरेट से पुलिस आयुक्‍त असीम अरुण के जारी किये माफीनामे से समझा जा सकता है जिसमें उन्‍होंने खुद को ‘’व्‍यक्तिगत रूप से क्षमाप्रार्थी’’ लिखा है. अमर उजाला के मुताबिक आयुक्‍त ने कहा कि ‘’किसी वीवीआईपी और वीआईपी के आने पर फ्लीट को रोका जा सकता है पर बीमार को नहीं. यह आदेश शासन से भी था और मेरे द्वारा भी जारी किया गया था. इसके बाद भी ऐसा हादसा हुआ. चार पुलिसकर्मियों पर कार्रवाई करते हुए उन्हें निलंबित किया गया है.‘’ इसी खबर में डीसीपी ट्रैफिक के हवाले से बताया गया है कि राष्‍ट्रपति की वापसी पर फाटक को बंद रखना रेलवे का फैसला था.

कानपुर पुलिस का ट्वीट

फैसला रेलवे का; ‘’व्‍यक्तिगत रूप से क्षमाप्रार्थी’’ पुलिस आयुक्‍त; दुखी राष्‍ट्रपति; और निलंबित आम पुलिसकर्मी- इन चारों में आपस में कोई सम्‍बंध नज़र आता है क्‍या? देश के हर नागरिक को वीआईपी बनाने यानी ईपीआई संस्‍कृति लाने के प्रधानमंत्री के उद्गार के संदर्भ में वंदना मिश्रा की मौत की जिम्‍मेदारी और जवाबदेही लेने के लिए कायदे से देखें तो एक व्‍यक्ति नहीं मिलेगा क्‍योंकि मामला व्‍यक्ति का है ही नहीं. इसीलिए मनमोहन सिंह के काफिले से हुई तीन मौतें काल कवलित हो गयीं (कानपुर में अमान खान, दिल्‍ली में अनिल जैन और तीसरी मौत चंडीगढ़ में हुई थी) क्‍योंकि मामला सिस्‍टम का था और सिस्‍टम वायवीय है. अमूर्त है. उस पर आंच नहीं आनी चाहिए. इसीलिए किसी और को दुखी होना पड़ता है तो किसी और को व्‍यक्तिगत रूप से माफी भी मांगनी पड़ जाती है. वंदना मिश्रा के परिवार से माफी तो सांसद और विधायक भी मांग चुके हैं. इसमें किसी का कुछ नहीं जाता. सब कुछ यथावत रहता है.

दैनिक जागरण इसीलिए यह तथ्‍य अलग से गिनवाता है कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में उनके काफिले से हुई मौत पर पुलिस ने माफी नहीं मांगी थी. पाठक को यह बात तुरंत कन्विंस कर लेती है. अमर उजाला जब लिखता है कि वंदना मिश्रा के परिजनों को राष्‍ट्रपति फोन करेंगे, तो पाठक अभिभूत हो जाता है और महामहिम की सरलता पर अश-अश कर उठता है. इस तरह हिंदी के प्रदेश में प्रथम पुरुष को उत्‍तम पुरुष स्‍थापित करते हुए अन्‍य पुरुष को उसकी महानता का ग्रास बना दिया जाता है और पब्लिक के मन में धारणा कायम होती है कि मोदीजी देश से वीआईपी कल्‍चर को खत्‍म कर रहे हैं.

वीआईपी बनाम ईपीआई: हकीकत और धारणा की दूरी

वीआईपी से ईपीआई संस्‍कृति में संक्रमण के नारे के दो साल बाद सरकारी महकमे ने एक सर्वे करवाया कि किस राज्‍य में वीआईपी सुरक्षा के क्‍या आंकड़े हैं. अद्भुत परिणाम सामने आया. पूरे देश में सन् 2018 तक जितने मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, जजों और नौकरशाहों को पुलिस सुरक्षा मिली हुई थी, वह 2019 में बहुत कम हो गयी. इसके ठीक उलट वीआईपी सुरक्षा में 2018 में जितने पुलिसवाले तैनात थे, उनकी संख्‍या 2019 में काफी बढ़ गयी. ब्‍यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट के इस आंकड़े को बीबीसी सहित दिल्‍ली के लगभग सभी अखबारों ने छापा था लेकिन हिंदी के अखबार ऐसी खबरों में दिलचस्‍पी नहीं रखते हैं.

वीआईपी

ध्‍यान देने वाली बात है कि बिहार और हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं. वहां वीआईपी सुरक्षा प्राप्‍त व्‍यक्तियों की संख्‍या भी घटी है और वीआईपी सुरक्षा में लगे पुलिसकर्मियों की संख्‍या भी कम हुई है. कोई भी सहज पूछ सकता है कि जिनसे वीआईपी सुरक्षा छीनी गयी कहीं वे भाजपा के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी तो नहीं थे? इसको पुष्‍ट करने के आंकड़े हमारे पास नहीं हैं. इसके उलट पश्चिम बंगाल, पंजाब और झारखंड में वीआईपी सुरक्षा प्राप्‍त व्‍यक्तियों की संख्‍या 2019 में बढ़ी है. पंजाब को छोड़ दें, तो बाकी दो में वीआईपी सुरक्षा में लगे पुलिसकर्मियों की संख्‍या भी बढ़ी है. इस नज़रिये से आंकड़ों का विश्‍लेषण किसी अखबार ने नहीं किया.

क्‍या इससे यह समझा जाय कि भारतीय जनता पार्टी वाकई वीआईपी संस्‍कृति को कमजोर कर रही है? अब तथ्‍य चाहे जो भी हों, धारणा के स्‍तर पर तो आंकड़े ऐसा ही कह रहे हैं. देखिए डेटा- इसी साल स्‍टेटिस्‍टा द्वारा जारी किया गया शोध है जिसमें वीआईपी संस्‍कृति के प्रति फरवरी 2019 तक लोगों की धारणा का मूल्‍यांकन किया गया है.

देश में वीआईपी संस्‍कृति कम हुई है

इसके अनुसार 65 फीसद लोगों का मानना था कि देश में वीआईपी संस्‍कृति कम हुई है. 30 फीसद उलटी राय रखते थे. पता नहीं बीते दो साल में इस धारणा में क्‍या बदलाव आया, लेकिन मार्च 2020 के बाद से जारी कोरोनाकाल को लेकर लगातार एक बात कही गयी कि यह महामारी ‘’ईक्‍वलाइज़र’’ का काम कर रही है जहां क्‍या राजा और क्‍या रंक, सबकी हालत एक समान है. कुछ पश्चिमी विद्वानों ने तो कोरोना के बाद के दौर में समाजवाद की छवियां देखनी शुरू कर दी थीं. अपने यहां तस्‍वीर जस का तस थी. महामारी के पीक के बीचोबीच डॉक्‍टरों को विशिष्‍ट व्‍यक्तियों से आजिज आकर प्रधानमंत्री को पत्र लिखना पड़ गया कि हुजूर, सरकारी अस्‍पतालों में वीआईपी संस्‍कृति को खत्‍म करिए. फेडेरशन ऑफ ऑल इंडिया मेडिकल असोसिएशन ने 12 अप्रैल को यह चिट्ठी प्रधानमंत्री मोदी को लिखी थी.

एफएआईएमए

इस मामले में नेताओं की तो क्‍या ही कहें, जब केजरीवाल ने दिल्‍ली हाइकोर्ट के जजों और उनके परिवारों के लिए एक पांचसितारा होटल को अलग से अस्‍पताल बनाने का ऐलान कर दिया. इस वीआईपी कल्‍चर ने महामारी के दौरान मध्‍यवर्ग में बहुत लोगों की जान भी ले ली. जोर-जुगाड़ और संपर्क के चक्‍कर में लोगों ने कोरोनाग्रस्‍त अपने परिजनों को गंवा दिया. इस मामले में कुछ पत्रकार इस देश के 27वें नागरिक बनकर उभरे जिन्‍होंने पूरे वीआईपी संरक्षण में अपना न सिर्फ इलाज करवाया बल्कि उसका जमकर प्रचार भी किया जबकि उन्‍हीं के बगल में इलाज के अभाव में आम लोग मरते रहे.

लौटना कभी-कभी अपने हाथ में नहीं होता

वंदना मिश्रा सौभाग्‍यशाली थीं कि कोरोना से बचकर वापस आयी थीं. तीन दिन से उन्‍हें कुछ स्‍वास्‍थ्‍य शिकायत थी. उसी को दिखाने उन्‍हें अस्‍पताल ले जाया जा रहा था. उन्‍हें अभी मरना नहीं था, लेकिन लौटना भी उनके हाथ में नहीं था. उधर राष्‍ट्रपति गांव से वापस दिल्‍ली लौट आए. हो सकता है फोन कर के वे वंदना मिश्रा के परिवार को सांत्‍वना भी दे चुके हों, लेकिन चीजें अब वैसी नहीं हैं जैसी उनके कानपुर जाने से पहले थीं. सत्‍यम श्रीवास्‍तव ने न्‍यूजक्लिक पर लिखे अपने लेख में बहुत संजीदगी से गिनवाया है कि यह यात्रा क्‍यों याद रखी जाने लायक है. इसे पढ़ा जाना चाहिए, खासकर अपनी तनख्‍वाह और उस पर टैक्‍स कटौती के संदर्भ में महामहिम के बयान पर टिप्‍पणी करते इस वाक्‍य को: ‘’इस मुद्दे पर बात करके राष्ट्रपति जी ने उन हल्के कटाक्षों के लिए राष्ट्रपति भवन के दरवाजे खोल दिये हैं जहां परिंदा भी बिना उनकी अनुमति के पर नहीं मार सकता.‘’

वाकई, जिस तरीके से प्रथम नागरिक को लेकर लोकवृत्‍त और सोशल मीडिया में बातें बन रही हैं, वह अभूतपूर्व है. चार दिन के भीतर हिंदी के अखबारों में जमा रामनाथ कोविंद के कुल दुख-दर्द और करुणा पर दूसरे माध्‍यमों में हो रही टीका-टिप्‍पणी भारी पड़ रही है. वे कानपुर गये तो थे प्रथम पुरुष बनकर ही, लेकिन लौटने पर चौतरफा अन्‍य पुरुषों की तरह बरते जा रहे हैं. उन्‍होंने कानपुर में कहा था कि वे राष्‍ट्रपति बनेंगे, ऐसा उन्‍होंने सपने में भी नहीं सोचा था. जिस तरह उनका ‘होना’ उनके हाथ में नहीं था, वैसे ही उनका ‘लौटना’ भी उनके हाथ में नहीं है. बिलकुल वंदना मिश्रा की तरह. महामहिम के इस अनकहे जीवित दुख को कौन सा अखबार लिखेगा?

इस मौजूं पर मुझे 80 के दशक के एक मानिंद कवि ऋतुराज की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं:

अस्तित्व के टटपूँजिएपन में
दूसरों की देखा-देखी बहुत-सी
चीज़ें जुटाई गईं
उनकी ही तरह बिजली, पानी
तेल, शक्कर आदि के अभाव झेले गए

रास्ते निकाले गए भग्न आशाओं
स्वप्नों, प्रतीक्षाओं में से

कम बोला गया

उनकी ही तरह,
सब छोड़ दिया गया
समय के कम्पन और उलट-फेर पर

प्रतिरोध नहीं किया गया
बल्कि देशाटन से सन्तोष किया

क्या कहीं गया हुआ मनुष्य
लौटने पर वही होता है?
क्या जाने और लौटने का समय
एक जैसा होता है?

(लौटना, ऋतुराज)

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