पत्रकारों और संपादकों को यह बुनियादी बात समझनी होगी कि एक ही शरीर में दो विरोधी तत्व रह सकते हैं.
डर मनुष्य का सबसे पुराना रोग है. सबसे आदिम प्रवृत्ति. आदिम मनुष्य सूरज, चांद, धरती, आंधी-तूफान, वर्षा, बिजली, जंगली पशुओं से डरता था. न तो कुदरती प्रक्रियाओं की उसे समझ थी, न हारी-बीमारी की दवा का ज्ञान था और न ही डरावने जीवों को पोसने या मार भगाने की तरकीब. लिहाजा उसने इन सब को भगवान बना लिया और पूजने लगा. जब पहली बार चकमक पत्थर से आग पैदा हुई, तो डर कुछ कम हुआ. आग देख के जंगली पशु उससे दूर रहते थे. फिर आग में लोहा गला के भाला बनाया, तो डर और कम हुआ. अब वो शिकार करने लगा.
धीरे-धीरे औज़ारों के सहारे खेती के युग में प्रवेश किया, तो मौसम के चक्र को समझने लगा. औषधीय पौधे उगाये. डर थोड़ा और कम हुआ. रोज़मर्रा का डर कम होता गया, लेकिन आदिम ईश्वर अपनी जगह बने रहे. इसकी वजह थी. डर खत्म नहीं हुआ था. बाढ़, सूखा, बिजली, भूकंप, बीमारी, आग, कभी भी कोई भी आपदा आ सकती थी. जब तक सब कुछ ठीक रहता, भगवान को वह भुलाये रखता. आपदा की घड़ी में उसे परिचित देवता याद आ जाते. दुख यदि नया हो, मौलिक हो, अंजाना हो, तो मनुष्य नये देवता गढ़ लेता. जैसे-जैसे दुख बढ़ते गये, देवता भी बढ़ते गये (सुख में मनुष्य खुद ही ईश्वर बना रहा, उसे किसी की ज़रूरत नहीं थी). इसीलिए कबीर को दुखी होकर कहना पड़ा- दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय...
मनुष्य के दुख और देवताओं के बीच कालान्तर में एक राजा आ गया. राजा ने प्रजा के दुख का कुछ भार अपने ऊपर ले लिया. राजा हद से हद इंतजाम कर सकता था क्योंकि उसके पास संसाधन थे, लेकिन काल पर उसका भी वश नहीं था. वह अपनी सीमाएं जानता था, इसलिए देवताओं की जरूरत उसे भी थी ताकि किसी नाकामी की सूरत में आखिरी वक्त में सब कुछ भगवानों के सिर मढ़ कर झोला उठाकर निकल लेने में आसानी रहे. सो उसने आदिम देवताओं को बनाये रखा, उन्हें प्रोत्साहित भी किया. साथ ही अपनी नाकामियों को छुपाने और कामयाबियों की मुनादी के लिए कुछ संदेशवाहक तैनात किये. कालान्तर में जब राजा विधायी हुआ, उसके कारिंदे कार्यपालक और पंच न्यायपालक, तब ये संदेशवाहक इस व्यवस्था का चौथा पाया बन गये.
इस तरह मनुष्य के दुख और उसके बनाये देवताओं के बीच दो एजेंट स्थापित हो गये- सरकार और अखबार. सरकार को बड़े सरकार की जरूरत हमेशा से थी. अखबार को तीनों की जरूरत थी. सरकार की कृपा रही तो ही अखबार चलेगा. लोग अखबार को तभी पढ़ेंगे जब अखबार उनके डर का शमन करेगा. डर के शमन का पहला रास्ता सरकारी इंतजामों की मुनादी था, दूसरा रास्ता देवताओं से होकर जाता था. इसीलिए विज्ञान के युग में वैज्ञानिकता बघारने वाले बड़े-बड़े अखबार भी ज्योतिषफल का प्रकाशन बंद नहीं कर सकते क्योंकि उसके पीछे डर काम करता है- सबसे पुराना रोग!
इस डर के आगे खड़े देवताओं की भूमिका को महान वैज्ञानिक नील्स बोर से बेहतर कोई नहीं समझता था. इसीलिए उन्होंने अपने घर के दरवाजे पर घोड़े की नाल लटका रखी थी. किस्सा है कि एक बार कोई अमेरिकी वैज्ञानिक उनके यहां आया और लटकी हुई नाल को देखकर चौंक गया. उसने पूछा- आप क्वांटम मेकैनिक्स के इतने बड़े ज्ञाता हैं, मुझे उम्मीद है कि आप इस टोटके पर विश्वास तो नहीं ही करते होंगे कि घोड़े की नाल लटकाना शुभ है. नील्स बोर ने कहा- बेशक, मैं विश्वास नहीं करता, लेकिन मेरे विश्वास किये बगैर भी ये अपना काम करता है, ऐसा मुझे बताया गया है. यहां नील्स बोर एक धार्मिक टोटके को विश्लेषण के एक स्वतंत्र फ्रेम (आस्था से) के रूप में स्थापित कर रहे हैं. इतिहासकार जुआन ओशिएम रिलिजन एंड एपिडेमिक डिज़ीज़ में यही बात थोड़ा कायदे से लिखते हैं, ‘’बेहतर हो कि हम जेंडर, वर्ग या नस्ल की ही तरह धर्म को भी विश्लेषण की एक स्वतंत्र श्रेणी मान लें. महामारी के प्रति धार्मिक प्रतिक्रिया को एक फ्रेम के रूप में सबसे बेहतर तरीके से देखा जा सकता है- लगातार परिवर्तित होता एक फ्रेम, जो बीमारी और उसके प्रति इंसानी प्रतिक्रियाओं को बड़े महीन तरीके से प्रभावित करता है.‘’
कोरोना माता और अखबारों का बहीखाता
हिंदी के ज्यादातर अखबार (दैनिक जागरण छोड़ कर) महामारी नियंत्रण में सरकारों की नाकामियों को पिछले डेढ़ महीने से उद्घाटित कर रहे थे. पिछले स्तम्भ में इस पर विस्तार से मैंने बात की थी. आखिर क्या हो गया कि कोरोना से लड़ते-गिरते देश की जनता अंतत: जब कोरोना माई, कोरोना देवी, कोरोना मरिअम्मा की शरण में चली गयी, तब अखबारों को यह रास नहीं आया और उन्होंने जनता को अंधविश्वासी ठहराना शुरू कर दिया? यह कथित ‘’अंधविश्वास’’ आखिर उसी बदइंतज़ामी और अभाव का तो स्वाभाविक परिणाम था जिसके बारे में अखबारों ने इतना लिखा? दो महीने के दौरान हुई मौतों और मारामारी ने जो डर फैलाया, उस डर को आखिर कहीं तो जज़्ब होना था? पैदा हो गयी एक नयी देवी, जैसा कि होता आया है सदियों से.
अदृश्य दुश्मन से डर, उससे लड़ने में सरकार की नाकामी और अंतत: भगवान की शरण- इस कार्य-कारण की श्रृंखला को मिलाकर जो चौखटा बनता है, वह जुआन ओशिएम के हिसाब से विश्लेषण का एक स्वतंत्र पैमाना बन सकता था. नील्स बोर की मानें तो इस विश्लेषण और वस्तुपरक प्रेक्षण के लिए जरूरी नहीं था कि आप कोरोना देवी में विश्वास करें ही. इसीलिए यह भी जरूरी नहीं था कि खबर लिखते समय जनता (यानी अपने पाठक) की आस्था का आप मखौल उड़ा दें. कोरोना माता या ऐसे ही धार्मिक कर्मकांडों के बहाने ग्रामीण स्वास्थ्य संरचना के पूरे राजनीतिक अर्थशास्त्र पर बात हो सकती थी, जो किसी अखबार ने नहीं की. सारे के सारे संपादक अचानक नील्स बोर से बड़े वैज्ञानिक बन गये. ऐसी खबरों के भीतर ही नहीं, शीर्षक में भी अखबारों ने जनता को धिक्कारा, लानत भेजी और चेतावनी जारी की. आइए, कुछ खबरों के शीर्षकों के उदाहरण से बात को समझें.
क्या आपको लगता है कि ऐसे शीर्षक लगाकर हमारे हिंदी के अखबार पाठकों को जागरूक करने की कोशिश कर रहे थे? अगर वाकई ऐसा था, तो राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों के धार्मिक कर्मकांड से जुड़ी खबरों में ‘’अंधविश्वास’’ क्यों नहीं लिखा गया? याद कीजिए, अब से तीन महीने पहले जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो दिन की यात्रा पर बांग्लादेश गये थे तब उन्होंने वहां जेशोरेश्वरी काली मंदिर में पूजा के बाद प्रेस से कहा था, ‘’मुझे मां काली के चरण में पूजा करने का सौभाग्य मिला है. हमने कोरोना से उबरने के लिए मां काली से प्रार्थना की.‘’ इस खबर को सारे अखबारों और चैनलों ने बिना किसी ‘’वैज्ञानिक आपत्ति’’ के जस का तस स्वागतभाव में चलाया था. स्वागत की ऐसी ही कुछ और बानगी देखिए:
अखबारों के लिए आपदा में नेता और सरकार का धार्मिकता की ओर मुड़ना स्वागत योग्य खबर है लेकिन जनता का अपने बनाये देवताओं की ओर मुड़ना ‘’अंधविश्वास’’? ये कैसी सेलेक्टिव वैज्ञानिकता है? इस भ्रामक और विकृत नजरिये की हद तब हो गयी जब पुलिस प्रशासन ने यूपी के प्रतापगढ़ में बने कोरोना माई के मंदिर पर बुलडोजर चलवा दिया. कितनी दिलचस्प बात है कि जिस दिन सभी अखबारों में कोरोना माई के मंदिर के ध्वंस की खबर छपी, ठीक उसी दिन उन्हीं अखबारों में जम्मू में वेंकटेश्वर मंदिर के शिलान्यास की खबर धूमधाम से छपी वहां के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा की तस्वीर के साथ.
क्या सरकारों और अखबारों को चंदा और चढ़ावा उगाहने वाले अमीर भगवान पसंद हैं, जनता के गरीब भगवान नहीं? बालाजी मंदिर कितना पैसा चंदे से जुटाता है ये कोई छुपी हुई बात नहीं है. राम मंदिर के लिए साढ़े पांच हजार करोड़ का चंदा हो चुका है. हिंदी के अखबारों को भी इन दो मंदिरों से कोई दिक्कत नहीं है. दैनिक जागरण तो राम मंदिर आंदोलन की पैदाइश ही है. इन अखबारों को सिर्फ गरीब जनता के कोरोना माई मंदिर में ‘’अंधविश्वास’’ दिखता है. ये कौन सी वैज्ञानिकता है? वैज्ञानिकता भी छोडि़ए, अखबारों के संपादकों को इतनी सी बात नहीं समझ आती है कि जनता अपने भगवान मजबूरी में गढ़ती है, अपने मंदिर अपनी जेब से बनवाती है, सरकार के धन से नहीं. अखबारों में समझदारी की दिक्कत है, संवेदना की या फिर इनके संपादक ही धूर्त हैं?
और अंत में प्रार्थना...
ऐसा नहीं है कि किसी आपदा की सूरत में डर के चलते धर्म की ओर केवल भारत की जनता ही मुड़ जाती है. पूरी दुनिया में मनुष्य का विकास ऐसे ही हुआ है. पिछले साल पहले वैश्विक लॉकडाउन में जब दुनिया भर की सरकारों ने धार्मिक आयोजनों और प्रार्थना के लिए पाबंदियां लगानी शुरू कीं तो इसके खिलाफ शुरुआती आवाज़ ब्रिटेन से उठी थी. इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में जोसेफ एमटी ने (13 मार्च, 2011) बड़े अच्छे से समझाया है कि संक्रमण से बचने के लिए सुझाये गये ‘’सोशल डिस्टेंसिंग’’ की दार्शनिक बुनियाद ही धार्मिक मान्यता के खिलाफ जाती है क्योंकि वह मनुष्य को मनुष्य से दूर करती है. दी गार्डियन में 22 नवंबर 2020 को प्रकाशित हैरियट शेरवुड की एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन में चर्च से जुड़े 120 प्रमुख व्यक्तियों ने धार्मिक सभा पर कोरोना के कारण लगायी गयी रोक को मानवाधिकारों पर यूरोपीय घोषणापत्र के अनुच्छेद 9 के उल्लंघन का हवाला देते हुए कानूनी चुनौती दी थी.
धार्मिक संस्थानों को एक ओर रख दें, तो पूरी दुनिया में बीते एक साल के दौरान बढ़ी धार्मिकता को नजरंदाज़ करना मुश्किल है. पोलैंड में पिछले साल किया गया एक अध्यन बताता है कि वहां युवाओं के बीच धार्मिक रुझान बढ़ा है. इसी तरह अमेरिका में प्यू रिसर्च सेंटर ने एक सर्वे किया था जिसमें शामिल एक-चौथाई लोगों ने कहा कि महामारी के दौरान वे ज्यादा धार्मिक हुए हैं. यूनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगन में अर्थशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर जीनेट बेंजेन ने एक शोध कर के दुनिया भर में पिछले साल बढ़ी हुई धार्मिकता का आंकड़ा पेश किया है. उनके मुताबिक मार्च 2020 में गूगल पर धार्मिक प्रार्थना की खोज करने वालों की संख्या रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गयी.
इस संदर्भ में महामारी के साथ धार्मिक अनुकूलन (RCOPE- Religious Coping) के तौर-तरीकों पर भारत और नाइजीरिया के समुदायों पर किये गये एक तुलनात्मक अध्ययन का हवाला देना प्रासंगिक होगा, जो इंटरनेशनल जर्नल ऑफ सोशल साइकियाट्री में छपा है. अध्ययन कहता है कि भारत में करीब 66 फीसद लोगों के धार्मिक आचार व्यवहार में महामारी के दौरान कोई बदलाव नहीं हुआ. इसके मुकाबले नाइजीरिया में धार्मिकता की ओर रुझान (RCOPE scale) में भारत से ज्यादा वृद्धि देखी गयी.
जाहिर है, नाइजीरिया में जन स्वास्थ्य का ढांचा भारत से भी बदतर है इसलिए वहां आपदा में भगवान ज्यादा काम आये. हेल्थकेयर सिस्टम इंडेक्स में नाइजीरिया (48.34) के मुकाबले भारत (65.87) काफी आगे है, लेकिन स्वतंत्र रूप से भारत के जन स्वास्थ्य ढांचे का हाल देखें तो समझ में आ सकता है कि यहां आपदा में लोगों ने क्यों नया भगवान गढ़ लिया और धार्मिक कर्मकांडों की ओर क्यों मुड़ गये. ग्रामवाणी द्वारा पिछले दिनों जारी किये गये एक सर्वे लेख के मुताबिक:
‘’शहरों में लोगों के पास भागने के लिए एक से दूसरा अस्पताल था, लेकिन गांव में तो वो विकल्प भी नहीं था. डॉक्टरों और दवाओं की अनुपलब्धता ने कोरोना की दूसरी लहर में सबसे ज्यादा गांव ही खाली किये हैं. नतीजा आपने बनारस, गाजीपुर, कानपुर, बक्सर के गंगा घाटों के नज़ारों में देखा ही है. 2019 में सरकार द्वारा जारी की गयी नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल रिपोर्ट के अनुसार जहां शहरी इलाक़ों में प्रत्येक दस लाख की आबादी पर सरकारी अस्पताल में 1190 बेड की सुविधा है, वहीं ग्रामीण इलाक़ों में प्रत्येक दस लाख की आबादी पर सरकारी अस्पताल में 318 बेड की सुविधा है. यह अंतर तीन गुना क्यों है सरकार के पास कोई खास जवाब जरूर होगा. चौंकाने वाली बात यह है कि अधिकतर ग्रामीण इलाकों के अधिकांश प्रखंड प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और उपस्वास्थ्य केन्द्रों पर आज भी ताले लगे हैं.‘’
रिपोर्ट निष्कर्ष में जो बात कहती है, वह हिंदी के अखबारों की सामाजिक समझदारी पर एक गंभीर सवालिया निशान है:
‘’जब सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में ताले लग गये, उप-स्वास्थ्य केन्द्रों में इलाज नहीं मिल रहा, शहर जाने के रास्ते लॉकडाउन के कारण बंद हो गये, किसी प्रकार निजी वाहन का इन्तजाम कर भी लें तो मनमाने किराये की वजह से हिम्मत नहीं कर रहे शहर ले जाने की, तो गांव के लोगों के पास भगवान की शरण लेने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा. ऐसे हालात में अफवाहों का बाजार भी गरम है. कई जगहों से खबर आ रही है कि लोग कोरोना को भगाने के लिए मंदिरों में पूजा के लिए पहुंच रहे हैं. विशाल यज्ञ हो रहे हैं. गाजीपुर जनपद जखनियां क्षेत्र के जलालाबाद बुढ़वा महादेव मन्दिर में तो सैकड़ों की संख्या में महिलाएं जमा हो गयीं. कलश यात्रा निकाली गयीं, भगवान से प्रार्थना की गयी कि कोरोना को भगा दें ताकि वे चैन की सांस ले सकें. मीडिया में इस तरह की खबरों को अफवाह के तौर पर पेश किया जा रहा है. इन घटनाओं को कोविड प्रोटोकॉल तोड़ने का परिणाम बताया जा रहा है. ऐसा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई भी हो रही है. सवाल ये है कि आखिर क्यों लोग अस्पतालों की जगह मंदिर-मस्जिद भाग रहे हैं? आखिर क्यों डॉक्टरों से ज्यादा दुआ और हवन पर भरोसा किया जा रहा है? इन ग्रामीणों पर कार्रवाई करने से पहले ये जांचना जरूरी है कि क्या उन्हें सही इलाज मिल रहा है? गांव के लोग कोविड पॉजिटिव होने के बाद किसके भरोसे हैं? शहर में रहने वालों के पास तो फिर भी अस्पतालों को ढूंढने का विकल्प हैं पर गांव, जो स्वास्थ्य केन्द्र, उप-स्वास्थ्य केन्द्रों के भरोसे हैं वह क्या करें?’’
‘’दैत्यों’’ का प्रबंधन: चीन से सबक
बात खत्म करने से पहले एक और संदर्भ. 28 जनवरी 2020 को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा था, ‘’यह महामारी एक दैत्य (डेमन) है और हम इस दैत्य को छुपने नहीं देंगे.‘’ इस बयान के कुछ दिनों पहले ही वुहान में दो कोविड-19 अस्पतालों का निर्माण शुरू हुआ था जो दो हफ्ते में बनकर तैयार हो गये. एक का नाम रखा गया हूशेंशान युआन (अग्नि देवता का अस्पताल) और दूसरे का नाम रखा गया लीशेंशान युआन (इंद्र देवता का अस्पताल). कम्युनिस्ट नेतृत्व वाले चीन के राष्ट्रपति के मुंह से निकला ‘दैत्य’ और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के दो अस्पतालों के देवताओं पर रखे गये नाम क्या चौंकाते नहीं हैं? जन स्वास्थ्य के प्रबंधन में ‘’देवताओं’’ और ‘’दैत्यों’’ की भूमिका को समझने के लिए महामारियों के प्रति सत्ता और समाज की ऐतिहासिक प्रतिक्रियाओं को जानना होगा- ऐतिहासिक का मतलब कीटाणु-विषाणु वाले सिद्धांत और आधुनिक मेडिसिन के बमुश्किल 100 साल के इतिहास से भी पीछे जाकर. इस मामले में जो इतिहास चीन का है, वही भारत का भी है, बल्कि समूचे दक्षिण एशिया का.
किसी भी बीमारी, महामारी, बाढ़, सुखाड़ को दैवीय शाप मानने वाले प्राचीन समाजों के लिए आपदा इस बात का संदेश होती थी कि राजा को अब राज करने का अधिकार नहीं रह गया. उसका अख्तियार और इकबाल खत्म हो गया. लालू प्रसाद यादव ने कुछ साल पहले इसे ऐसे कहा था कि जब राजा पापी होता है तो पानी नहीं बरसता. दरअसल, ऐसी मान्यताओं के चलते ही राजाओं पर जनकल्याणकारी काम करने का दबाव बनता था ताकि किसी बग़ावत को थामा जा सके. यहां मामला केवल अपनी गद्दी बचाने का ही नहीं था, बल्कि राजा वास्तव में अपनी प्रजा के प्रति किसी नैतिक आदेश से बंधा होता था. चीन में कनफ्यूशियसवादी नैतिकता ऐसे कर्तव्यों की बात करती है. ये दोनों कारक मिलकर महामारी के प्रति सत्ता की प्रतिक्रिया को तय करते थे.
इसके साथ ही राजा को आपदाओं महामारियों से जुड़े काल्पनिक ‘’दैत्यों’’ से भी लड़ना होता था. भारत में यज्ञ और हवन आदि की परंपरा रही है. चीन में मानते थे कि ऊपर कोई महामारी का मंत्रालय है (वेनबू) जो अच्छे और बुरे लोगों में संतुलन बैठाने के लिए आपदाएं भेजता है. 20वीं सदी के पहले दशक तक चीन में उस दैवीय मंत्रालय को खुश करने के लिए नगर देवता (चेनहुआंग शेंग) की पूजा करने का चलन था. सांस्कृतिक क्रांति और माओ के आने के बाद महामारी में धर्म के दखल को समाप्त किया गया, इसके बावजूद शी जिनपिंग को परंपरागत सामूहिक स्मृतियों के आवाहन में ‘’दैत्य’’ का संदर्भ लेना ही पड़ा. पेरिस यूनिवर्सिटी की विद्वान फ्लोरेंस ब्रेतेल अपने एक शोध में लिखती हैं कि ऐसा कर के जिनपिंग ने आधुनिक प्रौद्योगिकी व परंपरागत आस्था के मिश्रण से महामारी का ऐसा जबरदस्त प्रबंधकीय मॉडल खड़ा किया जिसके नतीजे आज पूरी दुनिया के सामने हैं.
अखबारों को फर्जी ट्रैप से निकलना होगा
आप चाहें तो फ्लोरेंस का अध्ययन खोज कर पढ़ सकते हैं. लंबा है लेकिन बहुत दिलचस्प है. कहने का कुल लब्बोलुआब ये है कि धर्म और विज्ञान दोनों को ही समाज की ऐतिहासिकता में समझना जरूरी है. खासकर तब, जब समाज 100 साल बाद आयी एक वैश्विक महामारी की सूरत में धर्म बनाम विज्ञान की ऐसी मुंडेर पर खड़ा हो जहां उसे एक ही विकल्प चुनने की आज़ादी दी जा रही हो. बिलकुल यही तो किया गया था हमारे साथ पिछले दिनों जब एलोपैथी को आयुर्वेद के खिलाफ लाकर खड़ा कर दिया गया और हमें किसी एक को चुनने के लिए कहा गया. वो चुनाव ही फर्जी था जिसे हमारे अखबार नहीं समझ पाये. बिलकुल यही समस्या गंगा किनारे पायी गयी लाशों को लेकर हुई जब फिर से परंपरा को विज्ञान के बरक्स खड़ा कर दिया गया जबकि बात सरकार के प्रबंधन और जवाबदेही पर होनी थी.
अबकी जब प्रतापगढ़ में कोरोना माता का मंदिर तोड़ा गया तब भी समस्या जस की तस बनी रही. नयी माता की शरण में लोगों को क्यों जाना पड़ा, यह जानने के बजाय मंदिर ही दफना दिया और लोगों को अखबारों ने अंधविश्वासी ठहरा दिया. इस तरह सरकार को एक फिर जवाबदेही से मुक्ति मिल गयी. अखबारों को समझना होगा कि यह ट्रैप है, जाल है, जिसमें उन्हें फंसाया जाता है रोज़-रोज़ और एक पाला चुनने को बाध्य किया जाता है. वैक्सीन चुने तो आयुर्वेद को खारिज करने की मजबूरी. विज्ञान चुने तो मंदिर को खारिज करने की मजबूरी. जनता को अंधविश्वासी बोले तो नेताओं के अंधविश्वास से आंख मूंदने की मजबूरी. राम मंदिर चुने तो उसमें हुए घोटाले के आरोप को नजरंदाज करने की मजबूरी. देखिए 14 जून के अखबारों को, अकेले दैनिक भास्कर है जिसने राम मंदिर के चंदे में घोटाले के आरोप की लीड खबर लगायी है. बाकी सबने दो नंबर, 10 नंबर, 13 नंबर पन्ने में खबर को निपटा दिया है.
पत्रकारों और संपादकों को यह बुनियादी बात समझनी होगी कि एक ही शरीर में दो विरोधी तत्व रह सकते हैं. एक ही समाज में दो विरोधी प्रवृत्तियां रहती हैं. दिन और रात, सुख और दुख, विज्ञान और धर्म, मनुष्य और वायरस, ये सब एक-दूसरे के पूरक हैं, दुश्मन नहीं. किसी एक की टेक लगाकर दूसरे को खारिज करना सही तरीका नहीं है चीजों को देखने का, खासकर तब जब उससे व्यापक आबादी की उम्मीद और जिंदगी जुड़ी हो. वैसे भी, सरकारों के पास, अखबारों के पास, हमारे आपके जैसे प्रबुद्धों के पास मर रही जनता को देने के लिए है ही क्या, जो हम उसकी बैसाखियां छीनने को आतुर रहते हैं?