यह हमारी नहीं, पूंजी और सत्ता की लड़ाई है

जितने डिजिटल प्लेटफॉर्म हैं दुनिया में वे सब पूंजी, बड़ी-से-बड़ी पूंजी की ताकत पर खड़े हैं. छोटे-तो-छोटे, बड़े-बड़े मुल्कों की आज हिम्मत नहीं है कि वे इन प्लेटफॉर्मों को सीधी चुनौती दे सकें.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
Date:
Article image

कितना अजीब है कि दोनों ही हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं और हम हैं कि हर कहीं, हर तरह से चुप कराए जा रहे हैं; या बोलने के अपराध की सजा भुगत रहे हैं. मंत्रीजी ने तब तलवार निकाल ली जब उनका अपना एकाउंट मात्र घंटे भर के लिए बंद कर दिया गया लेकिन इस सरकार में ऐसे रविशंकरों की कमी नहीं है जिन्होंने तब खुशी में तालियां बजाई थीं जब कश्मीर में लगातार 555 दिनों के लिए इंटरनेट ही बंद कर दिया गया था. दुनिया की सबसे लंबी इंटरनेट बंदी! तब किसी को कश्मीर की अभिव्यक्ति का गला घोंटना क्यों गलत नहीं लगा था? पिछले 6 से ज्यादा महीनों से चल रहे किसान आंदोलन को तोड़कर, उसे घुटनों के बल लाने के लिए जितने अलोकतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल किया गया और किया जा रहा है, उसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन किसी को दिखाई क्यों नहीं देता है? वहां भी इंटरनेट बंद ही किया गया था न! यही नहीं, पिछले दिनों सरकार ने निर्देश देकर ट्विटर से कई एकाउंट बंद करवाए हैं और नये आईटी नियम का सारा जोर इस पर है कि ट्विटर तथा ऐसे सभी माध्यम सरकार को उन सबकी सूचनाएं मुहैया कराएं जिन्हें सरकार अपने लिए असुविधाजनक मानती है. यह सामान्य चलन बना लिया गया है कि जहां भी सरकार कठघरे में होती है, वह सबसे पहले वहां का इंटरनेट बंद कर देती है. इंटरनेट बंद करना आज समाज के लिए वैसा ही है जैसे इंसान के लिए ऑक्सीजन बंद करना!

नहीं, यह सारी लड़ाई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए नहीं हो रही है. सच कुछ और ही है; और वह सच, सामने के इस सच से कहीं ज्यादा भयावह है. सरकार और बाजार का मुकाबला चल रहा है. हाइटेक वह नया हथियार है जिससे बाजार ने सत्ता को चुनौती ही नहीं दी है बल्कि उसे किसी हद तक झुका भी लिया है.

जितने डिजिटल प्लेटफॉर्म हैं दुनिया में वे सब पूंजी, बड़ी-से-बड़ी पूंजी की ताकत पर खड़े हैं. छोटे-तो-छोटे, बड़े-बड़े मुल्कों की आज हिम्मत नहीं है कि इन प्लेटफॉर्मों को सीधी चुनौती दे सकें. इसलिए हाइटेक की मनमानी जारी है. उसकी आजादी की, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अपनी ही परिभाषा है जो उनके व्यापारिक हितों से जुड़ी है. वे लाखों-करोड़ों लोग, जो रोजाना इन प्लेटफॉर्मों का इस्तेमाल संवाद, मनोरंजन तथा व्यापार के लिए करते हैं वे ही इनकी असली ताकत हैं. लेकिन ये जानते हैं कि यह ताकत पलट कर वार भी कर सकती है, प्रतिद्वंद्वी ताकतों से हाथ भी मिला सकती है. इसलिए ये अपने प्लेटफॉर्म पर आए लोगों को गुलाम बना कर रखना चाहती हैं. इन्होंने मनोरंजन को नये जमाने की अफीम बना लिया है जिसमें सेक्स, पोर्न, नग्नता, बाल यौन आदि सबका तड़का लगाया जाता है. इनकी अंधी कोशिश है कि लोगों का इतना पतन कर दिया जाए कि वे आवाज उठाने या इंकार करने की स्थिति में न रहें.

यही काम तो सरकारें भी करती हैं उन लोगों की मदद से जिनका लाखों-लाख वोट उन्हें मिला होता है. सरकारों को भी लोग चाहिए लेकिन वे ही और उतने ही लोग चाहिए जो उनकी मुट्ठी में रहें. अब तो लोग भी नहीं, सीधा भक्त चाहिए! पूंजी और सत्ता, दोनों का चरित्र एक-सा होता है कि सब कुछ अपनी ही मुट्ठी में रहे. इन दोनों को किसी भी स्तर पर, किसी भी तरह की असहमति कबूल नहीं होती है. फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, ई-मेल जैसे सारे प्लेटफॉर्म पूंजी की शक्ति पर इतराते हैं और सत्ताओं को आंख दिखाते हैं. सत्ता को अपना ऐसा प्रतिद्वंद्वी कबूल नहीं. वह इन्हें अपनी मुट्ठी में करना चाहती है.

पूंजी और सत्ता के बीच की यह रस्साकशी है जिसका जनता से, उसकी आजादी या उसके लोकतांत्रिक अधिकारों से कोई लेना-देना नहीं है. इन दोनों की रस्साकशी से समाज कैस बचे और अपना रास्ता निकाले, यह इस दौर की सबसे बड़ी चुनौती है. भारत सरकार भी ऐसा दिखाने की कोशिश कर रही है कि जैसे वह इन हाइटेक कंपनियों से जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों को बचाने का संघर्ष कर रही है. लेकिन यह सफेद झूठ है. प्रिंट मीडिया, टीवी प्लेटफॉर्म आदि को जेब में रखने के बाद सरकारें अब इन तथाकथित सोशल नेटवर्कों को भी अपनी जेब में करना चाहती हैं. हमें पूंजी व पावर दोनों की मुट्ठी से बाहर निकलना है. हमारा संविधान जिस लोकसत्ता की बात करता है, उसका सही अर्थों में पालन तभी संभव है जब सत्ता और पूंजी का सही अर्थों में विकेंद्रीकरण हो. न सत्ता यह चाहती है, न पूंजी लेकिन हमारी मुक्ति का यही एकमात्र रास्ता है.

Also see
article imageआपातकाल: 25वीं वर्षगांठ मनाने के भाजपा के फैसले को स्वामी ने बताया था ‘हास्यास्पद’
article imageलोग गरीबी और भय के बीच बंगाल के डूआर्स चाय बागानों में कुछ ऐसे लड़ रहे हैं कोविड-19 से लड़ाई
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like