महामारी के दौर में वैज्ञानिक दृष्टिकोण

विज्ञान और सच्चाई ही वह आधार है जिसका प्रयोग करके हम इस महासंकट से निपट सकते हैं, और यह सुनिश्चित कर सकते हैं, कि इसकी फिर से पुनरावृत्ति न हो.

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यहां तक ​​की सोशल मीडिया पर ऑक्सीजन की अपील पर भी कथित तौर पर पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज की गई. हमारे वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों ने कई बार इस संकट के समय में ऐसी नीतियों का निर्माण किया, जो लोक-कल्याणकारी कम बल्कि लोगों में सरकार के प्रति अच्छी धारणा का निर्माण करने की चेष्टा ज़्यादा लगती है. उनमें से अधिकांश ने या तो चुप्पी साध ली और या तो संकट के बारे में सरकारी आख्यान को बिना एक ईमानदार पुनरावलोकन के ही प्रतिध्वनित किया है. कुछ बहादुर सलाहकारों, जिनमें झूठ का सामना करने और योजना और क्रियान्वयन में कमियों को इंगित करने का साहस और सत्यनिष्ठा है, उनको या तो दरकिनार कर दिया गया, और या तो उनसे इस्तीफे ले लिए गए.

उन्हीं कई लोगों में से एक भारत के नामी विषाणु वैज्ञानिक डॉ. शाहिद जमील का भारत सरकार द्वारा बनाये गए कोरोना वायरस के सिक्वेंसिंग कंसोर्टियम, जिसका लक्ष्य म्युटेशन से बनने वाले विषाणु के रूपों को पहचानना और उससे लड़ने के लिए नीति निर्धारण में मदद करना था, उनसे इस्तीफ़ा दे दिया जाना है. यह संकट अभूतपूर्व है, इसमें कोई संदेह नहीं है. स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की हमारी ऐतिहासिक उपेक्षा ने संकट को और भी भयावह बना दिया है. हालांकि, यह संकट के प्रति एक ठोस, वैज्ञानिक और तर्कसंगत प्रतिक्रिया की कमी है जिसने संकट को और भी ज़्यादा विनाशकारी बना दिया. वैज्ञानिक विरोधी और सत्तावादी मानसिकता का संयोजन एक घातक मिश्रण साबित हुआ, जिसकी कीमत आने वाले वर्षों में हम सभी को चुकानी पड़ सकती है.

इन अव्यवस्थाओं के बीच नेहरू का सुझाया हुआ वैज्ञानिक दृष्टिकोण कुछ अधिक ही सताता है, जब लोग इस विषाणु के संक्रमण को 5जी के परीक्षण का नतीजा बताने लगते हैं. अवलोकन, श्रेणीकरण, परीक्षण और विश्लेषण क्या इतने जटिल हो गए हैं, कि हम वैज्ञानिक ज्ञान और अवैज्ञानिक प्रोपेगेंडा के बीच अंतर कर पाने में खुद को असमर्थ महसूस कर रहे हैं. वैज्ञानिक दृष्टिकोण की पहली अनिवार्यता प्रश्न करने की स्वतंत्रता है, हालांकि प्रश्न करने वाले पहले ही राष्ट्रविरोधी करार दिए जा चुके हैं. नेहरू के दिए हुए वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर तार्किक बहस की कोई भी संभावना विलुप्त हो चुकी है, क्योंकि नेहरू का नाम लेते ही अवैज्ञानिक तर्क परंपरा के अनुसार लोग वितंड के लिए कश्मीर और कश्मीरी पंडितों का उदाहरण देने लगते हैं, अथवा नेहरू को बाबर का वंशज सिद्ध करने की कवायद में जुट जाते हैं. अब अज़ीम प्रेमजी के कहने के बाद शायद इस महामारी का मुकाबला वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किया जाये. गंगाजल से तो वायरस घुला नहीं, इस महामारी का इलाज तो विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के तहत लगातार हाथ धोते रहने, मास्क लगाने और दो गज़ की दूरी के अनुपालन से ही संभव है.

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