संगीत के इतिहास में एक युग प्रवर्तक थे हिंदू-मुस्लिम सौहार्द के विलक्षण पैरोकार काजी नज़रुल इस्लाम

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के बाद 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में केवल काजी नज़रुल इस्लाम ही एक निर्भीक और सशक्त रचनाकार रहे हैं.

Article image
  • Share this article on whatsapp

इसके पश्चात नज़रुल ‘बिद्रोही कोबी’ के नाम से पहचाने जाने लगे. कविता ‘विद्रोही’ काफी लोकप्रिय हुई, जिसने उन्हें पर्याप्त प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि दी. कविता में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बागी तेवर थे. इस कविता का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ. अतः ब्रिटिश हुकूमत की आंखों में वह हमेशा ही गड़ते रहे. 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक में बंगाल में केवल वही एक सशक्त एवं निर्भीक कवि थे. अतः 23 जनवरी 1923 को उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया. इसी वर्ष अप्रैल में जेल सुपरिंटेंडेंट के अभद्र व्यवहार और अशालीन भाषा के प्रतिरोध में उन्होंने 40 दिनों का उपवास किया. गांधी का प्रभाव रहा होगा.

उसी वर्ष दिसंबर में वे जेल से बाहर आ गए. 1924 में उनकी एक और पुस्तक ‘बिषेर वंशी’ प्रकाशित हुई. यह पुस्तक भी अंग्रेजी सरकार ने प्रतिबंधित कर दी. इसके बाद उन्होंने ‘श्रमिक प्रजा स्वराज दल’ नाम से एक समाजवादी राजनीतिक पार्टी बनाई और साम्राज्यवादी- दमनकारी अंग्रेजी सत्ता के विरोध में वे चेतना फैलाने का काम सक्रिय रूप से करने लगे. 25 अप्रैल 1925 को काजी नज़रुल इस्लाम ने एक हिंदू लड़की प्रमिला देवी से शादी कर ली, जिसका काफी विरोध हुआ था. प्रमिला ब्रह्म समाज से आती थीं. मुस्लिम मजहब के ठेकेदारों ने नज़रुल से कहा कि प्रमिला को धर्मपरिवर्तन करना होगा लेकिन नज़रुल ने एकदम मना कर दिया. इसी समय उन्होंने लांगल नाम से एक साप्ताहिक पत्र भी प्रकाशित किया. 1926 में वे परिवार सहित कृष्णानगर में रहने लगे. 1927 में उनका बांग्ला गजलों का प्रथम संग्रह आया. वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उन्होंने अनेक मौलिक एवं अनूदित साहित्यिक रचनाओं जैसे-उपन्यास, लघुकथा, नाटक, निबंध, अनुवाद और पत्रकारिता आदि का सृजन किया. उन्होंने बाल साहित्य भी लिखा. वे कुशल गायक व अभिनेता भी रहे. बांग्ला फिल्‍म ‘ध्रुव भक्त के डायरेक्टर और रवीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘गोरा’ पर आधारित फिल्‍म के संगीत निर्देशक भी बने. 1928 में वे संगीत की सुप्रसिद्ध कंपनी एचएमवी के साथ जुड़ गए. उसके बाद उनके गीत राष्ट्रीय रेडियो पर प्रसारित होने लगे. 1930 में उनकी पुस्तक ‘प्रलय शिक्षा’ आई. पुनः उनपर देशद्रोह का मामला दर्ज हुआ और किताब प्रतिबंधित कर दी गई. तीन वर्ष बाद 1933 में उनका एक निबंध संग्रह ‘मॉडर्न वर्ल्ड लिटरेचर’ भी आया.

1939 में वह कलकत्ता रेडियो में आ गए. तभी उनकी पत्नी प्रमिला देवी गंभीर रूप से बीमार पड़ीं. उनके इलाज के लिए नज़रुल ने अपनी किताबों के कॉपीराइट तक बेच दिए. उधारी बढ़ गई. वे गंभीर आर्थिक संकट में आ गए जिससे वह कभी उबर नहीं सके. गरीबी पर लिखी उनकी एक कविता में उनकी यह बेबसी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है. उसकी कुछ पंक्तियां हैं–

गरीबी सर्वाधिक असह्य वस्तु है

जो घर में मुझसे, मेरी पत्नी और बच्चों से

रोज मिलती है.

इन परिस्थितियों के चलते 1940 में वे गहन अवसाद से ग्रस्त हो गए. दो वर्ष बाद उनकी स्थित और गंभीर हो गई. दुर्योग से 1942 में 43 वर्ष की आयु में वह अपनी आवाज़ और याददाश्त खोते हुए एक अज्ञात बीमारी से पीड़ित होने लगे. यह देखकर 1950 में उनके प्रशंसकों और समर्थकों के एक समूह ने उन्हें यूरोप भिजवाने की व्यवस्था की. वह पत्नी सहित लंदन और फिर आस्ट्रिया गए. वहां वियना में डॉ हेंस हॉफ के साथ एक मेडिकल टीम ने उनमें ‘पिक्स डिसीज नामक’ बीमारी का पता लगाया. यह एक दुर्लभ और लाइलाज न्यूरोडीजेनेरेटिव बीमारी थी. जिसमें याददाश्त खोने के साथ-साथ बोलने पर भी प्रभाव पड़ता है और बोलने की शक्ति चली जाती है. 15 अगस्त 1953 को वह वापस कलकत्ता लौट आए. नज़रुल के स्वास्थ्य में लगातार गिरावट आती जा रही थी. बीमारी के कारण वे अलग-थलग पड़ गए और अलगाव में रहने के लिए विवश हो गए. उनकी ऐसी मानसिक हालत के कारण उन्हें रांची (झारखंड) मनोरोग अस्पताल में भी भर्ती कराया गया. कई वर्षों तक वह रहे लेकिन उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ. इसके बाद उनका जीवन बहुत कष्टप्रद रहा. उनकी पत्नी उनकी देखभाल करती रहीं. 1962 में प्रमिला देवी की मृत्यु हो गई. यह बहुत पीड़ादायक था. अगले 10 वर्ष इसी दुख और पीड़ा में बीते. लेकिन इन सब परेशानियों बावजूद यह तो स्पष्ट है कि उनका इतिहास गौरवशाली था. समाज में चेतना प्रसार और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए उनका अवदान चिरस्मरणीय रहेगा. साहित्य में तो वह अग्रणी पंक्ति में थे ही.

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में नज़रुल की राष्ट्रवादी सक्रियता और क्रांतिकारी साहित्य सृजन ही औपनिवेशिक ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा उनके लगातार कारावास का कारण बने. जेल में रहते हुए ही नज़रुल ने “राजबन्दीर जबनबन्दी” (“राधारमण”, ‘एक राजनीतिक कैदी का बयान’) लिखा था. दृष्टव्य है, उनके लेखन ने बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान वहां के मुक्ति संघर्ष को प्रेरित किया. नज़रुल ने अपने लेखन में स्वतंत्रता, मानवता, प्रेम, और क्रांति जैसे विषयों को मुख्य आधार बनाया. उन्होंने कट्टरता और रूढ़ियों का विरोध किया. नज़रुल जीवनपर्यन्त राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के मजबूत आधार-स्तंभ बने रहे. साम्यवाद में उनकी अटूट आस्था थी लेकिन उन्हें अहसास था कि धर्मभीरु जन इस रोग से मुक्त होने में असमर्थ हैं. इसलिए धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध और सौहार्द एवं सद्भाव के पक्ष में वह सृजनशील भी रहे और सक्रिय भी रहे.

उनकी कविता ‘साम्यवादी’ की पंक्तियां हैं–

गाता हूं साम्यता का गान

जहां आकर एक हो गए

सब बाधा व्यवधान

जहां मिल रहे हैं हिंदू-बौद्ध-मुस्लिम-ईसाई

गाता हूं साम्यता का गान…

द्वितीय महायुद्ध के उपरांत नज़रुल के साहित्य का बृहत् पठन-पाठन आरंभ हुआ. तब तक वह बीमारी के गिरफ्त में आ चुके थे. नज़रुल के साहित्य को पढ़ने के बाद यह अंदाजा लगाना मुश्‍किल नहीं है कि काव्य में मुक्ति, विद्रोह, लैंगिक समानता, सांप्रदायिक सौहार्द और प्रेम आपस में पूरी तरह गुंथे हुए हैं. इसके लिए वे धार्मिक प्रतीकों, मिथकों और मान्यताओं को अपने ढंग से अपनाते हैं. स्त्री समानता पर वह न केवल वैचारिक प्रतिबद्धता और व्यवहारगत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं अपितु कविता इस तरह लिखते हैं, कि कृष्ण को चुनौती देते हुए कहते हैं कि ‘अगर तुम राधा होते’ तो वह महसूस करते जो एक स्त्री राधा के रूप में महसूस करती है. उनकी एक कविता से–

अगर तुम राधा होते श्याम

मेरी तरह बस आठों पहर तुम,

रटते श्याम का नाम

वन-फूल की माला निराली

वन जाति नागन काली

कृष्ण, प्रेम की भीख मांगने

आते लाख जनम

तुम, आते इस बृजधाम

उन्होंने बंगाली भाषा में ग़ज़ल को भी समृद्ध किया. एक पुस्तक भी आई. उन्हें अपने कार्यों में अरबी और फारसी शब्दों के व्यापक उपयोग के लिए भी जाना जाता है. इसपर गुरुदेव को भारी आपत्ति भी रही. ‘रक्तो’ की जगह ॱखून’ का प्रयोग उन्हें बहुत नागवार गुजरा. यह विडंबना रही कि नज़रुल इस्लाम के साहित्य और संगीत के संदर्भ में तत्त्वमूलक और तथ्यपूर्ण विस्तृत मूल्यांकन नहीं हो सका इस क्षेत्र में बहुत थोड़े-से आलोचकों ने ध्यान दिया. यह खेद का विषय है कि उनकी समस्त आलोचनाएं प्राय: एकांगी रहीं. वे युक्तिसंगत नहीं थीं. उनके अत्यंत निकटस्थ मित्रों ने उनके बारे में कुछ समीक्षाएं अवश्य छपवाई. बीच-बीच में ऐसे कुछ मोड़ आए जहां उनका काव्य और संगीत अपने प्रकृत स्वरूप को खो बैठा. लयह उन्होंने जानबूझकर भी किया. दरअसल कंटेंट उनके लिए महत्वपूर्ण था फॉर्म गौण. इस सबके बावजूद नज़रुल बांग्ला भाषा के अन्यतम श्रेष्ठ सामाजिक चेतना के कवि रहे. नज़रुल की संपूर्ण रचनाओं का कहीं भी कोई ब्योरा तिथिवार नहीं मिलता. लेकिन यदि किसी को नज़रुल की संपूर्ण रचनाओं का विधिवत अध्ययन करना हो तो उसे पश्चिमी बंगाल में स्थित बालीगंज के पुस्तकालय को अवश्य देखना चाहिए. इसी पुस्तकालय में उनकी संपूर्ण रचनाएं संभालकर रखी हुई हैं.

हिंदी में उनपर बहुत कम लिखा गया. उनकी मृत्यु के उपरांत 1976 में कवि विष्णुचंद्र शर्मा की उनके जीवन पर एक किताब ‘अग्निसेतु’ नाम से आई. एक जन गीतकार एवं सुर-साधक के रूप में भी नज़रुल सर्वोच्च स्थान के अधिकारी हैं. 1972 में बांग्लादेश सरकार के निमंत्रण पर नज़रुल का परिवार उन्हें ढाका, बांग्लादेश ले गया. वहां ससम्मान उन्हें पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ बांग्लादेश की नागरिकता प्रदान की गई. उन्हें बांग्लादेश ने ‘राष्ट्रकवि’ घोषित किया. चार साल बाद 29 अगस्त 1976 को बांग्लादेश में उनकी मृत्यु हो गई. वहां उनकी इच्छानुसार उन्हें ढाका विश्वविद्यालय के सामने दफनाया गया.

(सभार- जनपथ)

Also see
article imageकानून की जमीन पर खोखली नजर आती ईशा फाउंडेशन के साम्राज्य की नींव
article imageपत्रकारों और राजनेताओं के कंधों पर पैर रख-रखकर कैसे एक शख़्स जग्गी वासुदेव से सद्गुरु बन गया
subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like