अवधनामा के संपादक पत्रकार वकार रिज़वी का निधन.
गंगा जमुनी तहजीब का पुल
वाकर रिजवी के सोचने का ढंग निराला था. संस्कृति को ऊपर रख कर उसे ज्यादा महत्वपूर्ण बनाने की कोशिश जारी रहती. वक़ार रिज़वी ने मोहर्रम के दौर में अपने नरही वाले घर में जो मजलिसें कीं उनका मकसद दूसरे धर्मों को कर्बला के बारे में बताना था. मजलिस में वो कभी सुनीता झिंगरन से नौहा पढ़वाते थे तो कभी हिमांशु वाजपेयी से मजलिस. मोहर्रम पर बोलने के डॉ. दाउजी गुप्ता और डॉ. दिनेश शर्मा उनके यहां आते थे तो लोगों को तमाम नई-नई बातें पता चलती थीं.
वकार का मानना था कि एक दूसरे के प्रति ज्यादा न जानने से ही मुश्किल होती है. वे कहते थे कि हिंदी के लोग ये जानते ही नहीं की उर्दू में क्या छप रहा है इसलिए भ्रांतियां बन जाती हैं. अपने वेब पोर्टल पर उन्होंने अखबार की सुर्खियों का ऑडियो डालना शुरू किया. वो बहुत पापुलर प्रयोग था.
अवधनामा को यूपी का पाठक जितना जानता है दूसरे मुल्कों के लोग उससे ज्यादा. कुछ विदेश यात्राओं में कुछ मुझे ये जानकर आश्चर्य हुआ जब वहां लोगों ने अवधनामा का जिक्र किया.
हमारे रिश्ते का आलम ये कि अवधनामा की कुर्सी छोड़ने के बाद भी अवधनामा से रिश्ता नहीं छूटा. वकार भाई ने कहा, जब तक अवधनामा है आप इसके संपादकीय सलाहकार रहेंगे और तकरीबन 7 साल बाद भी यूपी के सूचना विभाग की डायरी में हमारा वजूद अवधनामा के नाम से ही दर्ज चला आ रहा है.
अभी चंद रोज़ पहले वे जुबिली पोस्ट के दफ्तर आये और अवधनामा के डिजिटल संस्करण को हमने मिल जुल कर नया रूप दिया और इसे आगे बढ़ाने का प्लान किया था.
वकार भाई के साथ उर्दू हिंदी लिटरेरी फेस्टिवल लखनऊ में आयोजित करने की योजना पर काम चल रहा था मगर अब वो शायद कभी नहीं होगा. बहुत कुछ है कहने सुनने और याद करने को मगर उंगलियां साथ नहीं दे रहीं. लिखूंगा और शायद एक किताब ही लिख जाए वकार भाई पर.
अलविदा , ऊपरवाला आपको जन्नत बख्शे
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