कोरोना से उपजी इंसानी पीड़ा ने हमारे हिंदी के अखबारों को भले बीते पखवाड़े काफी-कुछ बदला है, लेकिन मतदाता और मतदान का रुझान इस बीच कितना बदल सका है यह देखने वाली बात होगी.
चुनावी पर्यटन करने पश्चिम बंगाल गए तमाम पत्रकार पिछले पखवाड़े जब दिल्ली वापस लौट रहे थे, तब बंगाल चुनाव का दूसरा अध्याय कोरोना की दूसरी लहर के साथ-साथ ‘अनफोल्ड’ हो रहा था. चुनाव के पहले अध्याय में शुरुआती चार चरण का मतदान बेशक भारतीय जनता पार्टी के नाम रहा या ऐसा होते दिखा, लेकिन 15 अप्रैल के बाद वहां जो घटा उसने बंगाल के ‘प्रवासी हिंदीभाषियों’ पर केंद्रित मीडिया की एकरंगी और जड़ थियरी को सिर के बल खड़ा कर दिया क्योंकि 30 अप्रैल आते-आते चुनावी तराजू का कांटा तकरीबन बीच में अटक गया. दस में सात एग्जिट पोल ने ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस को बढ़त दी, भाजपा केवल तीन में सरकार बनाती दिखी. कल मतगणना के बाद जब अंतिम परिणाम आएंगे, तो शायद यह कहना पड़ जाय कि सभ्यता के इतिहास में पहली बार एक अगम अगोचर वायरस ने लोकतांत्रिक चुनाव में राजनीतिक दलों की किस्मत का खेल बनाया या बिगाड़ा है. इस खेल को अंजाम देने में केंद्रीय भूमिका रही हिंदी के अखबारों की. कैसे? आगे बढ़ने से पहले एक घटना.
कोई हफ्ते भर पहले इस लेखक के पास कोलकाता से एक संदेश आया. संदेश भेजने वाले शख्स बिहार के अपने गृह जिला जाना चाहते थे क्योंकि वहां परिजनों को कोविड हुआ था और एक की मौत हो गयी थी. उन्हें बिहार जाने के लिए ट्रेन में टिकट नहीं मिल रहा था. टिकट नहीं मिलना था सो नहीं ही मिला, परिजन की अंत्येष्टि भी हो गयी. इसके बाद उन्हें कोरोना की भयावहता का अहसास हुआ, जो बंगाल के चुनावी माहौल में रहते हुए आम तौर से पता नहीं लग रहा था. आखिरी चरण में उनके क्षेत्र में मतदान हुआ, तो वे वोट डालने नहीं गए. मीडिया की मानें, तो प्रवासी हिंदीभाषियों का वोट इस बार अनिवार्यत: भारतीय जनता पार्टी का वोट है, लिहाजा उसका एक वोट कम हो गया. उस दिन बंगाल में वोटर टर्नआउट 76 फीसद के आसपास आकर रुक गया और कोलकाता में 60 फीसद को भी नहीं छू सका.
मीडिया के मुताबिक बंगाल में भाजपा की राह प्रशस्त करने में यदि प्रवासी हिंदीभाषियों की भूमिका केंद्रीय रहनी थी, तो तृणमूल की बढ़त दिखाते सात एग्जिट पोल और आखिरी चार चरणों में कम वोटर टर्नआउट के पीछे की असल कहानी क्या है? इस कहानी को समझने के लिए हमें उन माध्यमों को देखना होगा जो बंगाल के हिंदीभाषियों को उनके सुदूर हिंदी जनपदों से जोड़ते हैं. जाहिर है, इन माध्यमों में टीवी के समाचार चैनल और डिजिटल प्लेटफॉर्म तो हैं ही, लेकिन अखबारों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि बंगाल का आदमी आज भी अखबार बहुत चाव से पढ़ता है.
हिंदीभाषी बंगाली और हिंदी के अखबार
एक पखवाड़े पीछे चलते हैं और देखते हैं कि 15 अप्रैल को क्या-क्या हुआ था जो हिंदी के अखबारो में छपा था. सबसे पहली लीड खबर जो हैदराबाद के स्वतंत्र वार्ता से लेकर कोलकाता के जनसत्ता तक फैली थी, वो कोरोना के कारण सीबीएसई की बोर्ड परीक्षाएं रद्द होने की थी. नीचे देखिए 15 अप्रैल को जनसत्ता के कोलकाता संस्करण का पहला पन्ना.
जनसत्ता के ऊपर दिए पहले पन्ने पर दूसरी अहम खबर कोविड के प्रसार की भयावहता से जुड़ी है. मध्य अप्रैल तक बंगाल में कोरोना का अहसास लोगों के ज़ेहन में उस तरह से नहीं था जैसा हिंदी पट्टी के अन्य राज्यों में था. अचानक 15 को जब यह खबर सब जगह आती है कि बीते 24 घंटे में अक्टूबर के बाद संक्रमण से सर्वाधिक मौतें हुई हैं और एक लाख चौरासी हजार से ज्यादा मामले दर्ज किए गए हैं, तब बंगाल को बाकी देश की स्थिति का अहसास होता है. बाकी हिंदी अखबारों में तब तक स्वास्थ्य तंत्र के कुप्रबंधन की खबरें छपना शुरू हो चुकी थीं. दवाओं का टोटा, अस्पताल की कमी, आदि खबरें प्रमुखता से यूपी, एमपी, राजस्थान, गुजरात में छप रही थीं. नीचे ऐसी ही एक खबर भोपाल से है और दूसरी नोएडा डेटलाइन से. दोनों 15 अप्रैल को पत्रिका में छपी हैं.
कोलकाता में मारवाड़ी समुदाय बहुत बड़ी संख्या में है और वो भी हिंदीभाषी है. मारवाड़ी बंगाल की राजनीति को बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं और खासकर कोलकाता की आधे से ज्यादा सीटों पर उनका प्रभाव है. इस आलोक में नीचे राजस्थान पत्रिका में छपी गुजरात के वलसाड़ की एक खबर देखिए.
हिंदी अखबारों ने 15 अप्रैल तक कोरोना को लेकर जो बागी रूप अपना लिया था, उसकी पहल का श्रेय कायदे से गुजराती के दिव्य भास्कर को जाता है जिसने चार दिन पहले 11 अप्रैल को लीड खबर के रूप में गुजरात भाजपा के अध्यक्ष सीआर पाटिल का मोबाइल नंबर शीर्षक की जगह छाप दिया था. मामला ये था कि गुजरात के मुख्यमंत्री से जब पूछा गया कि उनकी पार्टी के अध्यक्ष को कैसे रेमडेसिविर के 5000 इंजेक्शन मिले जबकि आम लोगों को मिलने में दिक्कत आ रही है, तो विजय रूपानी ने जवाब दिया, ‘’उन्हीं से (पाटिल से) पूछो.‘’ इसके बाद अखबार ने बिलकुल टेलिग्राफ शैली की पत्रकारिता करते हुए पाटिल का मोबाइल नंबर छाप दिया.
दैनिक भास्कर समूह आम तौर से सत्ता-विरोधी पत्रकारिता नहीं करता लेकिन यह उदाहरण अपवाद था, जिसके कारण चाहे जो भी रहे हों, लेकिन हिंदी पट्टी के अखबारों में आने वाले दो हफ्ते हमें कायदे की मानवीय पत्रकारिता का अक्स बेशक देखने को मिला. नीचे कुछ और उदाहरण देख सकते हैं. एक भास्कर बीकानेर का बैनर है जहां दुनिया भर के करीब एक-तिहाई संक्रमण केस भारत के बताए गए हैं. दूसरी खबर पायोनियर दिल्ली की है जो हिंडन शवदाह गृह की है और तीसरी खबर हिंदुस्तान दिल्ली से है.
बंगाल चुनाव के संदर्भ में इस बात का आशय यह है कि पूरब से लेकर पश्चिम तक भाषायी, खासकर हिंदी अखबारों ने जो काम 15 अप्रैल के बाद किया उसने बंगाल में चुनाव के रंग में भंग कर डाला और सबका ध्यान बंगाल में चल रहे चुनाव के कारण बढ़ रहे कोरोना संक्रमण के मामलों की ओर घुमा दिया. ममता बनर्जी ने मौके पर मुद्दा पकड़ने में कोई चूक नहीं की. 15 अप्रैल के बाद उन्होंने अपनी चुनावी रणनीति बदली और राज्य में बढ़ते कोरोना संक्रमण का ठीकरा सीधे भाजपा के सिर पर फोड़ दिया. जनसत्ता कोलकाता ने इसे अपने यहां लीड छापा. तब तक पांच प्रत्याशी संक्रमित हो चुके थे और एक की मौत हो चुकी थी. भाजपा डिफेंस में आ गयी. चुनाव ने करवट बदल लिया.
चोर चोरी से जाय...
जिस वक्त सारे हिंदी अखबार अपना काम तन्मयता से कर रहे थे, जनता के दुख-दर्द को जगह दे रहे थे और स्वास्थ्य तंत्र की खामियों पर सवाल उठा रहे थे, उस वक्त दैनिक जागरण अपने पुराने खेल में लगा हुआ था- किसी तरह स्वामी की छवि को बचाना और चमकाना. अब लोग मर रहे हैं महामारी से तो खबर छापनी ही पड़ेगी, उसका कोई विकल्प नहीं होता लेकिन चोर चोरी से जाय हेरा फेरी से न जाय. जागरण के दो उदाहरण देखिए जहां उसने चुपके से खेल करने की कोशिश की है. जिस दिन ममता का भाजपा पर आरोप सभी अखबारों ने छापा, उसी दिन 16 अप्रैल को मेदिनीपुर जिले के एक ब्लॉक की सहकारी समिति के चुनाव की कहानी दैनिक जागरण कोलकाता ब्यूरो के इंद्रजीत सिंह की बाइलाइन से यूपी में छपी जिसका शीर्षक है, ‘’तृणमूल के खिलाफ भाजपा ने वाममोर्चा का दिया साथ.‘’ यह हेडिंग पढ़कर लगता है कि बात विधानसभा चुनावों की हो रही है.
बहरहाल, ठीक दो दिन बाद जागरण ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कानपुर के एक प्रोफेसर के हवाले से खबर छापी कि 30 अप्रैल के बाद उत्तर प्रदेश में कोरोना संक्रमण के मामले घट जाएंगे. यह ठीक उस वक्त हुआ जब तमाम जगह खबरें छप रही थीं कि मई के दूसरे हफ्ते में संक्रमण अपने पीक पर जाएगा.
अब तक टीवी चैनल भी अपने टीआरपी मॉडल के मुताबिक कोरोना की सनसनी को भुनाने में लगे थे और सोशल मीडिया पर रोज़ाना श्मशान और कब्रिस्तान की तस्वीरें शाया हो रही थीं. इस बीच 18 अप्रैल को राहुल गांधी और ममता बनर्जी ने अपनी सारी चुनावी रैलियां रद्द कर दीं, बाद में ममता ने सरी बैठकें भी कोरोना के चलते रद्द कर दीं, जिसकी खूब सराहना हुई. अब ममता ने केंद्र से वैक्सीन की मांग उठा दी थी. जागरण की कारस्तानियों के बावजूद बाकी अखबार अपने काम में लगे रहे. इधर दिल्ली और अन्य हिस्सों में ऑक्सीजन की कमी से मौतें होना शुरू हो चुकी थीं, उधर जनसत्ता अपने कोलकाता संस्करण में लगातार पहले पन्ने पर प्रमुखता से ये खबरें छाप रहा था.
अंतत: कलकत्ता हाइकोर्ट ने 22 अप्रैल को चुनाव आयोग पर कोविड प्रोटोकॉल के पालन के संदर्भ में सख्त टिप्पणी कर डाली जिससे चुनावों की वैधता पर पहली बार सार्वजनिक रूप से सवाल खड़ा हुआ. इसके बावजूद नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनावी रैलियां रद्द नहीं कीं, बस एक दिन में दो की जगह चार रैली करने का कार्यक्रम बना लिया. कोविड पर अखबारों, चैनलों और सोशल मीडिया के निरंतर दबाव का हालांकि अंतत: असर हुआ और मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र बनारस का रुख किया जहां इफ़रात में मौतें हो रही थीं और स्वास्थ्य तंत्र चरमरा चुका था. यह चुनावी दौड़ के दूसरे चक्र में ममता के दस दिवसीय ‘’मोदी मेड वायरस’’ कैम्पेन के बरक्स नरेंद्र मोदी की नैतिक हार थी.
वो दस दिन, जब चुनाव पलट गया…
पूरे एक महीने तक चले बंगाल चुनाव का एजेंडा महज 16 से 26 अप्रैल के बीच दस दिन में बदल गया था. इसका श्रेय हिंदी के उन अखबारों सहित समूचे मीडिया को खुलकर दिया जाना चाहिए जिसने चुनाव में मदमस्त बंगाल की जनता को बाकी देश की पीड़ा से परिचित करवाया और अपने भी गिरेबान में झांकने का मौका दिया. कलकत्ता हाइकोर्ट की टिप्पणी के बाद मीडिया में उसकी व्यापक कवरेज से बंगाल की जनता को इस बात का इल्म हुआ कि 20 मार्च से लेकर 24 अप्रैल तक महज एक महीने के भीतर वहां कोविड-19 के केस प्रतिदिन चालीस गुना बढ़ गए थे जब जनता चुनावी उत्सव में मगन थी. इसका सीधा असर सातवें चरण के मतदान पर पड़ा और वोटर टर्नआउट सबसे कम रहा.
पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा जारी इन आंकड़ों को देखें जो बंगाल में चुनाव के दौरान बढ़े कोरोना संक्रमण की वस्तुस्थिति को दर्शाते हैं.
जैसा कि पहले बताया, हिंदी अखबारों ने बंगाल के प्रवासी हिंदीभाषियों को उनके घर, गांव और बंगाल के जमीनी हालात से परिचित कराने का काम किया तो खुद ममता ने अपने बदले हुए प्रचार अभियान के माध्यम से आम बंगालियों को वोट की अपील की और मोहभंग की अवस्था में पड़े बंगाली भद्रलोक को पाला चुनने की सलाहियत दी.
जैसा कि जाधवपुर निवासी प्रसिद्ध फिल्म आलोचक बिद्यार्थी चटर्जी कहते हैं, ‘’अभी की ज़रूरत बस एक है कि भाजपा को नहीं आने देना है. मुझे ममता से कोई सहानुभूति नहीं है, वो भी उन्हीं में है लेकिन उसने देर से सही, सही मुद्दे पर मोर्चा पकड़ा है. कोर्ट भी कह चुका है चुनाव आयोग को. लोगों को ये बात समझनी होगी. चुनाव से बड़ा जीवन है, रोजी-रोटी है.‘’
डिजिकैम्प एशिया प्रोजेक्ट के मुताबिक 17 से 26 अप्रैल के बीच तृणमूल कांग्रेस द्वारा फेसबुक पर जारी कुल 31 चुनावी विज्ञापनों में आधे से ज्यादा मोदी सरकार द्वारा कोविड के कुप्रबंधन पर केंद्रित थे. इस दौरान भाजपा ने 468 विज्ञापन जारी किए लेकिन इसमें एक भी कोविड की स्थिति पर नहीं था. प्रोजेक्ट के मुताबिक पूरे चुनाव प्रचार अवधि में वैसे तो फेसबुक विज्ञापनों पर भाजपा का आधिकारिक खर्च तृणमूल से कम रहा, लेकिन 17 से 26 अप्रैल के बीच भाजपा ने 15 लाख रुपये ज्यादा खर्च किए. आखिरी चार चरणों में यह तथ्य भी उसकी बेचैनी को दिखाता है.
‘सिस्टम’ के कलेजे में धंसी कील
हिंदी अखबार चाहे कितना ही कुछ कर लें, मामला जब तक विदेशी अखबारों में नहीं पहुंचता तब तक विमर्श का मुद्दा नहीं बनता. भारत में जल रही चिताओं का धुआं योरप तक पहुंचा तो दि गार्डियन ने एक करारा संपादकीय छाप डाला. टाइम पत्रिका ने कवर पर दिल्ली के सीमापुरी श्मशान की तस्वीर छापकर लिख दिया- ‘’इंडिया इन क्राइसिस’’.
घरेलू मोर्चे पर टीवी चैनलों को फ़रमान जारी हो चुका था कि वे कोविड से जुड़ी मौतों और कुप्रबंधन में नरेंद्र मोदी का नाम न लें, केवल ‘सिस्टम’ चलाएं. उत्तर प्रदेश सरकार का फ़रमान आ चुका था कि मदद मांगने के नाम पर अफ़वाह फैलाने वाले पर एनएसए लगाया जाएगा. एक पर मुकदमा भी कर दिया गया. 27 अप्रैल को कानून में संशोधन के रास्ते दिल्ली केंद्र की झोली में चली गयी. आज दिल्ली के अस्पतालों के बाहर एक निजी सुरक्षा एजेंसी के बाउंसर तैनात हैं.
नरेंद्र मोदी की बदनामी होती देख दुनिया भर में छवि निर्माण के लिए विदेश मंत्री जयशंकर और राजनयिकों को तैनात किया गया. उधर दैनिक जागरण अपने संपादकीय पन्ने पर सरकार बहादुर की छवि संवारता रहा.
ये सब कुछ एक झटके में हुआ, लेकिन बंगाल के चुनाव पर चुनाव आयोग के नाम मद्रास हाइकोर्ट की यह टिप्पणी अंतिम कील की तरह ‘सिस्टम’ के कलेजे में भीतर तक धंस गयी, ‘’आप (चुनाव आयोग) वह एकमात्र संस्था हैं जो इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं. न्यायालय के हर आदेश के बावजूद रैलियों का आयोजन कर रही पार्टियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई. संभवतः आपके चुनाव आयोग पर हत्या का आरोप लगना चाहिए.‘’ जनसत्ता के कोलकाता संस्करण ने इसे फिर पहले पन्ने पर तान दिया.
कोविड के दौर में चुनाव-चुनाव खेलने का खेल अब अंतरराष्ट्रीय थू-थू का बायस बन चुका था. छवि चमकाने के लिए जनता पर लगायी जा रही पाबंदियों का उलटा असर देखा जा रहा था. इस बीच हिंदी के सारे अखबार अपने काम में अब भी निरंतर लगे हुए थे. पत्रिका ने 30 अप्रैल को दिल्ली के एक डॉक्टर की दी चेतावनी छापी है जिसे पढ़ा जाना चाहिए:
और अंत में
कोरोना से उपजी इंसानी पीड़ा ने हमारे हिंदी के अखबारों को भले बीते पखवाड़े काफी-कुछ बदला है, लेकिन मतदाता और मतदान का रुझान इस बीच कितना बदल सका है यह देखने वाली बात होगी. हां, दैनिक जागरण जैसे अपवाद हर जगह होते हैं जो कभी नहीं पसीजते. इस बीच मुझे आइआइटी कानपुर के उस वैज्ञानिक के निष्कर्ष के सच होने का बेसब्री से इंतज़ार है जिसने दैनिक जागरण से कहा था कि 30 अप्रैल के बाद महामारी की लहर उतर जाएगी. फिलहाल कल चुनाव का नतीजा जो भी आवे, जीतेगा कोरोना ही. हारेगी जनता.