डॉ. भीमराव अंबेडकर के प्रयासों के बाद दलित चेतना तो विकसित हुई है, लेकिन दलित पैंथर्स के गठन के समय जो दलित नेतृत्व उभार और नेतृत्व में हिस्सेदारी का दृढ़संकल्प दिखाता, वह कहीं खो सा गया है.
दलित चरित्रों का स्वरूप
इन सभी फिल्मों में दलित चरित्र महिलाएं हैं और उन्हें दीन-हीन ढंग से ही चित्रित किया गया है. अपनी सामाजिक स्थिति और दलित पहचान के कारण उन्हें अधिक तकलीफ झेलनी पड़ती है. उन्हें अपमान और लांछन से भी गुजरना पड़ता है और अंत में प्रेम के लिए त्याग व बलिदान करना पड़ता है. कस्तूरी तो जान भी गंवा देती है. फिल्मों में दलित चरित्रों के आख्यान पर काम कर रहे अध्येतानों के मुताबिक हिंदी फिल्मों में दलित चरित्र तो लिए गए, लेकिन उन्हें नायकों के समान दर्जा और महत्व नहीं दिया गया. उनके प्रति नायकों की प्रेमानुभूति में समानता तो दिखती है, लेकिन उच्च जाति के लेखक और निर्देशक दलित महिला चरित्रों के निरूपण और निर्वाह में मूल रूप से सदियों से प्रचलित धारणाओं से आगे नहीं बढ़ पाते. स्वाधीनता आंदोलन के साथ चल रहे सुधार आंदोलनों और आजादी के बाद नए भारत के निर्माण में जातीय भेदभाव की असमानता खत्म करने में वे उच्च जातीय लोकप्रिय तर्कों का ही सहारा लेते हैं. इन फिल्मों के नायक दयालु, उदार, प्रेमी और प्रगतिशील नजर आते हैं. वे प्रेम के आड़े आ रही सामाजिक दीवारों को तोड़ने के बजाय बीच का रास्ता बनाते हैं, जिसमें नायिकाओं को वेदना, अपमान और घुटन सहना और कुलटा जैसा संबोधन में सुनना पड़ता है.
पैरेलल सिनेमा का प्रगतिशील नैरेटिव
दलित चरित्रों के चित्रण और प्रस्तुति में गुणात्मक फर्क पैरेलल सिनेमा के दौर में आता है. नई भाव संवेदना और सामाजिक यथार्थ की समझ के साथ आए फिल्मकार राजनीतिक रूप से वामपंथी रुझान के कारण वर्ग और जाति में जकड़े समाज के दलित चरित्रों को अपनी फिल्मों में विशेष स्थान देते हैं. वे उनकी दारूण स्थिति और सामाजिक पहचान को पर्दे पर रूपायित करते हैं. हमें ‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘मंथन’, ‘आक्रोश’ और ‘दामुल’ जैसी फिल्में मिलती हैं. इन फिल्मों में श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी और प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों ने समय की मांग को देखते हुए फिल्मों के नैरेटिव में दलित चरित्रों को वांछित महत्व दिया है. वे दलित समाज के शोषण, उत्पीड़न, विरोध और विजय की कहानियों से प्रभावित होते हैं. हिंदी फिल्मों के मुख्यधारा से अलग इन फिल्मों में समाज के वंचित किरदारों को देखकर आम दर्शक के तौर पर हमें फिल्मकारों की प्रगतिशीलता लक्षित होती है, किंतु दलित चिंतकों ने इन फिल्मकारों की वाजिब आलोचना की है.
उन्होंने रेखांकित किया है कि अपनी सदाशयत के बावजूद प्रगतिशील फिल्मकार दलित चरित्रों को आश्रित, कमजोर, निर्भर और निम्न दर्जे का ही दिखाते हैं. दलित चरित्रों को इन फिल्मों में भी नायकत्व नहीं हासिल होता. कहीं वह शराब पीता है, कहीं उसका नाम कचरा है, कहीं वह भाववेश में सटीक निर्णय नहीं लेता आदि आदि... आशय यह है कि निम्न जाति, अछूत और दलित किरदारों के चित्रण में फिल्मकार अपनी उच्च जाति की संवेदना से ही चरित्रों का गठन और चित्रण करते हैं. उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए खास डिजाइन और फार्मूले तय कर लिए हैं. उनमें दलित चरित्रों को पिरो कर वाहवाही और पुरस्कार बटोर लेते हैं. व समस्याओं की जड़ों पर चोट नहीं करते. वे उन चरित्रों की वर्तमान स्थिति के कारणों की गवेषणा नहीं करते. सदियों के दमन पर बात नहीं करते. नतीजतन इन फिल्मों में दलित चरित्र एकांगी और यांत्रिक स्वरूप में आने लगते हैं.
क्यों नहीं मिल पाए दलित नायक
107 सालों के सिनेमा के इतिहास में ‘आलम आरा’ के बाद से लगभग 90 सालों की हिंदी फिल्मों की विकास यात्रा में फिल्मकारों को दलित नायक नहीं मिल पाए. दलितों के दमन, शोषण, उत्पीड़न की कहानियों में भी उन्हें नायक का दर्जा नहीं मिल पाया. सामान्य हिंदी फिल्मों में भी देश के अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी और वंचित समाज के चरित्रों को नायक-नायिका के रूप में नहीं पेश किया जाता है. क्यों नहीं वे सामान्य रोमांटिक फिल्मों के हीरो या हीरोइन होते? हमेशा वे सहयोगी और सेकेंडरी चरित्र होते हैं. उच्च जाति के नायक उनके संरक्षक, उद्धारक और पालक के रूप में आते हैं.
क्या वजह है कि हिंदी फिल्मों के नायक-नायिका समाज के वंचित समूह से नहीं आते. निश्चित ही इसके पीछे का बड़ा कारण फिल्मों के निर्माता, लेखकों, निर्देशकों और कलाकारों का मुख्या रूप से उच्च जाति का होना है. न केवल फिल्म, बल्कि समाज के सभी क्षेत्रों में नेतृत्व की कमान अभी तक उच्च जाति के हाथों में है. अपवाद स्वरूप कभी निम्न जाति के हाथों में नेतृत्व आता है तो उन्हें लुढ़कने, बदलने और सर्वमान्य सत्ता और मान्यता के पक्ष में आने के अनेक प्रलोभन मिलते हैं. अफसोस की बात है कि उनमें से कई इस प्रलोभन के शिकार हो जाते हैं. फिर भी आशा की जा सकती है कि समाज बदलने के साथ दलित चेतना की समझदारी में आए उभार के बाद सिनेमा सहित विभिन्न क्षेत्रों में दलित स्वर मुखर, सार्थक और सटीक होगा.
उम्मीद बाकी है
हिंदी फिल्मों में नीरज घेवन की ‘मसान’, अमित मासुरकर की ‘न्यूटन’, बिकास रंजन मिश्रा की ‘चौरंगा; ने फिल्मों में दलित चरित्रों के चित्रण और प्रतिनिधित्व में उन्हें महत्ता दी है. उन्हें नायक का दर्जा दिया है. फिल्मों में दलित चरित्रों की पहचान और निश्चयन के संदर्भ में मराठी के फिल्मकार नागराज मंजुले और तमिल के फिल्मकार पा रंजीत का उल्लेख लाजमी होगा. इनकी ‘फंड्री’, ‘धड़क’, ‘काला’ और ‘कबाली’ ने दलित किरदारों की पहचान और विमर्श को राजनीतिक चेतना और सामाजिक अभ्युत्थान के साथ पेश किया.
सच्चाई यह है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर के प्रयासों के बाद दलित चेतना तो विकसित हुई है, लेकिन दलित पैंथर्स के गठन के समय जो दलित नेतृत्व उभार और नेतृत्व में हिस्सेदारी का दृढ़संकल्प दिखाता, वह कहीं खो सा गया है. राजनीति और सत्ता के खेल में दलित नेतृत्व की राजनीतिक पार्टियों का भटकाव और भ्रम अनेक किस्म के लाभ और अवसर से चालित होता है. फिल्मों में भी यह भटकाव और भ्रम दिखता है. जब दलित चरित्र नायक-नायिका होने के बाद भी ढंग से कुछ कह नहीं पाते. वे फिल्मों की घिसी-पिटी और ड्रामेबाजी में उलझ जाते हैं. उम्मीद है कि घेवन, मासुरकर, मंजुले और रंजीत की आगामी फिल्में इस संदर्भ में ठोस रूप में आश्वस्त करेंगी.