यह सही है कि प्रताप भानु मेहता ने पिछले सात वर्षों से लगातार नरेन्द्र मोदी व उनकी सरकार के खिलाफ लिखा है, लेकिन हम यह क्यों भूल जा रहे हैं कि ये वही प्रताप भानु मेहता हैं जिन्होंने नरेन्द्र मोदी के पक्ष में भी लगातार कई लेख लिखे थे.
लंबे समय से पब्लिक यूनिवर्सिटी को नष्ट किया जा रहा है (जिसकी शुरुआत वाजपेयी-मनमोहन सिंह के समय में हो चुकी थी, फिर भी मनमोहन सिंह के कार्यकाल में कई केन्द्रीय विश्वविद्यालय खोले गए), लेकिन प्रताप भानु मेहता के नाम पर हाय-तौबा मचाने वाले कई बड़े लिबरल बुद्धिजीवी उसी समय पब्लिक यूनिवर्सिटी को छोड़कर निजी विश्वविद्यालयों की ओर पलायन करने लगे थे. यहां एक मजबूरी यह भी है कि कई यंग स्कॉलर बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर जब विदेश से लौटे तो उनके पास सरकारी विश्वविद्यालयों में नौकरी नहीं थी, अंततः मजबूरी में उन्हें निजी विश्वविद्यालयों में नौकरी करनी पड़ी लेकिन जो प्रोफेसर बड़े-बड़े सरकारी संस्थानों को छोड़कर निजी विश्वविद्यालय जा रहे थे, क्या उन्हें पता नहीं था कि वे सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाने के लिए वहां जा रहे हैं?
वैसे हमें एक बात और नहीं भूलनी चाहिए कि आज जब हमारे देश में एक आदमी की औसत आय साढ़े दस हजार (1 लाख 26 हजार 968 रुपए सालाना) रुपए प्रति महीने के करीब है तो हमारे देश में प्रोफेसरानों को तकरीबन ढाई लाख रुपए हर महीने मिलता है, फिर भी वे पब्लिक विश्वविद्यालय को छोड़कर निजी विश्वविद्यालय की तरफ दौड़े जा रहे हैं.
यह सही है कि प्रताप भानु मेहता ने पिछले सात वर्षों से लगातार नरेन्द्र मोदी व उनकी सरकार के खिलाफ लिखा है, लेकिन हम यह क्यों भूल जा रहे हैं कि ये वही प्रताप भानु मेहता हैं जिन्होंने नरेन्द्र मोदी के पक्ष में भी लगातार कई लेख लिखे थे. वही प्रताप भानु मेहता आरक्षण के खिलाफ रहे हैं और आरक्षण के बदले ‘अफरमेटिव एक्शन’ के पक्ष में हैंः लेकिन कैसा अफरमेटिव एक्शन, इसका कोई खाका उनके दिमाग में नहीं है.
लिबरल प्रताप भानु मेहता एक लिबरल स्पेस (जिसमें विश्वविद्यालय भी शामिल है) बनाने के पक्षधर हैं लेकिन उनके लिबरल स्पेस में विनय सीतापति जैसे लिबरल होते हैं जो प्रायः दक्षिणपंथ के इर्द-गिर्द झूलते रहते हैं. साथ ही जो लोग अशोक विश्वविद्यालय में ही नहीं बल्कि कहीं के भी लिबरलों को जानते हैं, वे इस तथ्य को भी भली भांति जानते हैं कि लिबरल के साथ सुविधा यह है कि कभी वे परंपरा के नाम पर दक्षिणपंथियों के साथ हो जाते हैं तो कभी संस्कृति के नाम पर दक्षिणपंथ के अवयवों को स्वीकार कर लेते हैं.
और हां, यह भी एक तथ्य है कि जिन लिबरल विश्वविद्यालयों के इतने कसीदे काढ़े जा रहे हैं, उनमें से किसी भी विश्वविद्यालय में अध्यापकों को यूनियन बनाने की छूट नहीं मिली है- यहां तक कि अशोक विश्वविद्यालय में भी नहीं, जहां के वाइसचांसलर मेहता रहे हैं.
वैसे इस पूरी परिघटना में सबसे ऐतिहासिक बात वहां के छात्रों का इस पूरी घटना में प्रताप भानु मेहता के पक्ष में उतरना है. शिक्षा की इतनी कीमत चुकाकर उन्होंने सोमवार से कक्षाओं का दो दिन के लिए बहिष्कार करने का आह्वान किया है. कोई अभिभावक अपने बच्चों पर हर महीने लाख रुपए खर्च कर रहा है और वह छात्र-छात्रा न्याय के पक्ष में लड़ाई लड़ रहा है, इसे भी रेखांकित करने की जरूरत है. साथ ही हमें इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि वहां पता नहीं कितनी तनख्वाह लेकर पढ़ाने वाले शिक्षक जब न्याय की बात करते हैं तो उन्हें ‘राग दरबारी’ के गयादीन का वह वाक्य याद आता है या नहीं जो वह खन्ना मास्टर से कहता है, ‘क्या करोगे मास्टर साहब, प्राइवेट स्कूल की मास्टरी तो पिसाई का काम है ही, भागोगे कहां तक?’
मेरी तरह ही ‘राग दरबारी’ प्रताप भानु मेहता का भी पसंदीदा उपन्यास रहा है, जिसका उन्होंने कई बार जिक्र भी किया है. एक बार तो इंडियन एक्सप्रेस में उन्होंने पूरा लेख ही इस उपन्यास पर लिख दिया था. मेहता शायद गयादीन और खन्ना मास्टर की बातचीत को भूल चुके हैं. लगभग ऐसी ही परिस्थिति है, जैसी आज की है, जिस पर खन्ना मास्टर से गयादीन की कही बात सटीक बैठती है.
नैतिकता, समझ लो कि यही चौकी है. एक कोने में पड़ी है. सभा सोसाइटी के वक्त इस पर चादर बिछा दी जाती है. तब बड़ी बढ़िया दिखती है. इस पर चढ़कर लेक्चर फटकार दिया जाता है. यह उसी के लिए है.
(साभार- जनपथ)